आने वाले वर्षों में जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाली विनाशकारी घटनाओं से व्यापक रूप से बड़े पैमाने पर जनसंख्या का विस्थापन होगा. इस समस्या का विस्तार देशों की सरहदों के आर-पार दिखाई देगा. जलवायु परिवर्तन के नतीजतन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आबादी का बेक़ाबू प्रवास या शरणार्थी संकट ग्लोबल समुदाय के लिए मानवीय, आर्थिक और सुरक्षा से जुड़ी चिंता का विषय है. इस पॉलिसी ब्रीफ़ में जलवायु शरणार्थियों के बचाव, पुनर्वास और स्थान परिवर्तन के संदर्भ में G20 द्वारा एजेंडा तय करने का प्रस्ताव किया गया है. ग्लोबल जलवायु परिवर्तन पुनर्वास बीमा यानी GCCRI के तंत्र के ज़रिये इस क़वायद को अंजाम दिया जा सकता है. सबसे पहले तक्षशिला इंस्टीट्यूशन ने साल 2015 के अपने पॉलिसी ब्रीफ़ में GCCRI का विचार सामने रखा था. ये प्रणाली ख़तरे की ज़द में रहने वाले व्यक्तियों और परिवारों को बीमा ख़रीद के अवसर मुहैया कराएगी. जलवायु से जुड़ी विनाशकारी घटनाओं में ज़मीन, जायदाद और आजीविका गंवाने वाले लोगों की बीमे के ज़रिए सुरक्षा की जा सकेगी. G20 के देशों को भी GCCRI प्रणाली से फ़ायदा होगा. इसकी अनेक वजहें हैं: ऐतिहासिक रूप से दुनिया के विकसित देशों का जलवायु परिवर्तन में हाथ रहा है, GCCRI ऐसे देशों को सुधार के प्रयास करने का मौक़ा देगी. आर्थिक और सुरक्षा नज़रिए से बेक़ाबू शरणार्थी संकट एक जोख़िम भरा सबब है. GCCRI इस समस्या की रोकथाम के उपाय मुहैया करा सकती है. इसके अलावा सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों के आधार पर शरणार्थियों के प्रभावी पुनर्वास की पहले से योजना भी तैयार की जा सकेगी.
टास्क फ़ोर्स 3: LiFE, रेज़िलिएंस, एंड वैल्यूज़ फ़ॉर वेल-बींग
चुनौती
जनसंख्या का विस्थापन, जलवायु परिवर्तन के सबसे गंभीर परिणामों में से एक है. समुद्र के बढ़ते जल स्तरों, मौसम से जुड़ी चरम घटनाओं और जलवायु से संबंधित आपदाओं के प्रभाव से लोगों को अपना घर-बार छोड़ने को मजबूर होना पड़ता है. निचले इलाक़ों और असुरक्षित क्षेत्रों पर इन घटनाओं का बेहिसाब असर होता है. इनमें छोटे द्वीप देश और तटवर्ती समुदाय शामिल हैं. इन लोगों को विस्थापन और पुनर्वास की मार झेलनी पड़ती है. इतने विशाल पैमाने पर लोगों के विस्थापन से सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय तौर पर गंभीर प्रभाव देखने को मिलते रहेंगे. विस्थापन का दंश झेल रहे लोगों और उनको शरण देने वाले देशों को इसका प्रभाव सहना पड़ेगा. ऐसे हालात दुनिया भर की सरकारों के लिए सुरक्षा दृष्टिकोण से भी गंभीर चिंता का विषय हैं.
जलवायु परिवर्तन से निपटने के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में मोटे तौर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने पर ज़ोर दिया जाता रहा है. जलवायु में हो रहे बदलावों के प्रभाव अब पूरी शिद्दत से महसूस किए जाने लगे हैं. लिहाज़ा बदलते मौसम के अनुकूल रणनीतियां बनाने और उनके क्रियान्वयन की ओर दुनिया का ध्यान बढ़ता जा रहा है. समस्या के समाधान के लिए कई उपाय किए जाने की दरकार है. बहरहाल, अनेक कमज़ोर देशों और समुदायों के पास बदलते मौसम के अनुरूप रणनीतियों और उपायों को अमल में लाने के लिए ज़रूरी संसाधन और क्षमता का पर्याप्त मात्रा में मौजूद नहीं हैं. लिहाज़ा ऐसे देश दिन ब दिन और ज़्यादा नाज़ुक हालात में पहुंचते जा रहे हैं.
जलवायु शरणार्थियों और प्रवासियों के संदर्भ में ये बात ख़ासतौर से सच है. इन लोगों को सुरक्षित और टिकाऊ नई रिहाइशों और आजीविका की तलाश में अक्सर भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. हालिया वर्षों में जलवायु के मोर्चे पर नए रुझानों के चलते पेश चुनौतियों से निपटने की ज़रूरत पर लोगों का ध्यान बढ़ता जा रहा है. इन कमज़ोर और नाज़ुक आबादियों का बचाव करने और उनकी मदद करने को लेकर तमाम अंतरराष्ट्रीय प्रयास किए गए हैं.
मिसाल के तौर पर जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ़्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) ने साल 2015 में विस्थापन पर एक कार्य बल का गठन किया गया था. इसे जलवायु के चलते होने वाले विस्थापन संकट से निपटने के तौर-तरीक़े ढूंढने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी. साल 2018 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रवास पर ग्लोबल क़रार को मंज़ूर कर लिया. इसमें जलवायु प्रवासियों के अधिकारों की रक्षा से जुड़े प्रावधानों को शामिल किया गया है.
इतना ही नहीं, कुछ देशों ने जलवायु शरणार्थियों की मदद के लिए नीतियों और कार्यक्रमों की स्थापना को लेकर कई क़दम भी उठाए हैं. मसलन, साल 2017 में जलवायु शरणार्थियों के लिए एक ख़ास वीज़ा श्रेणी का प्रस्ताव करने वाला न्यूज़ीलैंड दुनिया का पहला देश बन गया. हालांकि इस पर अमल की प्रक्रिया को कम से कम 2024 तक के लिए टाल दिया गया है. बहरहाल, जलवायु शरणार्थी संकट के चलते पेश विशाल चुनौतियों के निपटारे के लिए अभी काफ़ी कुछ किए जाने की दरकार है.
G20 की भूमिका
जलवायु परिवर्तन के चलते पैदा होने वाला विस्थापन चिंताजनक है. निश्चित रूप से G20 को इसकी सुध लेते हुए इस मसले पर ज़रूरी क़दम उठाने चाहिए:
आर्थिक प्रभाव: जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाले विस्थापन का G20 देशों पर ज़बरदस्त आर्थिक प्रभाव देखने को मिल सकता है. उदाहरण के तौर पर इन देशों को शरणार्थियों की बढ़ती आमद के प्रबंधन में भारी आर्थिक लागत चुकानी पड़ सकती है. इनमें रिहाइश मुहैया कराना, स्वास्थ्य सेवाएं देना और तमाम सामाजिक सेवाएं शामिल हैं. हक़ीक़त ये है कि दुनिया के किसी भी इलाक़े में बड़े पैमाने पर और बेलगाम रूप से होने वाले विस्थापन का पूरी ग्लोबल अर्थव्यवस्था पर प्रभाव हो सकता है. इससे आर्थिक तौर पर अस्थिरता आ सकती है और विकास की रफ़्तार मंद पड़ सकती है.
राष्ट्रीय सुरक्षा: विस्थापन और प्रवास, मौजूदा सामाजिक और सियासी तनावों को और गंभीर बना सकता है. इससे संघर्ष और अस्थिरता के हालात पैदा होने की आशंका है.
ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी: G20 में ऐसे विकसित देश शामिल हैं जिनका ऐतिहासिक तौर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में सबसे बड़ा योगदान रहा है. लिहाज़ा जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्याओं के निपटारे में उनकी ज़िम्मेदारी भी ज़्यादा है. विस्थापन की समस्या अक्सर जलवायु परिवर्तन के चलते पैदा होने वाले प्रभावों का नतीजा होती है. इनमें समुद्र का बढ़ता स्तर और मौसम से जुड़ी चरम घटनाएं शामिल हैं. ऐसे हालात व्यापक रूप से मानवीय गतिविधियों के चलते पैदा होते हैं. लिहाज़ा G20 देशों को जलवायु शरणार्थियों के पुनर्वास से जुड़ी प्रक्रिया में नेतृत्वकारी भूमिका अदा करनी चाहिए. पनाह ले रहे ऐसे लोगों को मेज़बान देशों में अपनी ज़िंदगी दोबारा शुरू करने का मौक़ा दिया जाना चाहिए. ये क़वायद जलवायु कार्रवाई में तमाम देशों की ‘साझा, मगर अलग-अलग ज़िम्मेदारियों’ के विचार के अनुरूप है.
क्षमता: कुल मिलाकर G20 देशों के पास ज़बरदस्त वित्तीय और तकनीकी संसाधन मौजूद हैं, जिसे नाज़ुक आबादियों को सहारा देने के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है. ऊपर रेखांकित की गई वजहों के मद्देनज़र जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाले विस्थापन के मसले पर क़दम उठाना G20 देशों के निजी हित में है. समूह के देशों को जलवायु परिवर्तन से मेलजोल बनाने वाली प्रणालियां तैयार करने के लिए अपनी क्षमताओं का भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए.
ग्लोबल जलवायु परिवर्तन पुनर्वास (रिलोकेशन इंश्योरेंस सिस्टम) बीमा ढांचा
प्रस्तावित ग्लोबल जलवायु परिवर्तन पुनर्वास बीमा (GCCRI) मौसमी बदलावों के चलते पैदा होने वाले विस्थापन की समस्या का एक माकूल समाधान पेश करता है. अक्सर जलवायु से जुड़ी विनाशकारी घटनाओं के चलते लोग अपनी ज़मीन और आजीविका से हाथ धो बैठते हैं. GCCRI इन तमाम लोगों को ऐसी नौबत आने पर पुनर्वास की लागत वहन करने के लिए बीमा योजना ख़रीदने की सहूलियत देता है. तक्षशिला इंस्टीट्यूशन के विश्लेषकों पवन श्रीनाथ, प्रणय कोटास्थाने, वरुण रामचंद्र और सारा फ़ारूक़ी ने 2015 में प्रकाशित अपने पॉलिसी पेपर में पहली बार GCCRI का प्रस्ताव किया था. GCCRI और उसके अहम तत्वों के साथ-साथ ऐसी नीति को अमल में लाने से जुड़ी चुनौतियों का ब्योरा नीचे दिया गया है. ये तमाम विवरण उसी पॉलिसी पेपर से लिए गए हैं.
बीमा ढांचा
बीमे के दायरे में दूसरे देशों में नए सिरे से बसावट (relocation) और पुनर्वास की क़वायद को शामिल किया जाना चाहिए. इसके अलावा एक साधारण तयशुदा मियाद वाला भत्ता, मेज़बान देश में काम करने की क़ानूनी मंज़ूरी और बच्चों को बीमा पॉलिसी के हस्तांतरण जैसे कारक भी जुड़े होने चाहिए. GCCRI व्यक्तियों और परिवारों को बीमा पॉलिसियां ख़रीदने का अवसर देगा. जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाली विनाशकारी घटनाओं में ज़मीन और आजीविका छिन जाने की सूरत में ऐसे लोग लाभ हासिल करने के हक़दार हो जाएंगे.
ग्लोबल जलवायु परिवर्तन पुनर्वास बीमा, ऐसे नाज़ुक और कमज़ोर लोगों को एक सुरक्षा जाल मुहैया करा सकता है, जो जलवायु परिवर्तन के चलते सुरक्षित और टिकाऊ रिहाइश ढूंढने में मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. हालांकि, ऐसे ढांचे को ज़मीन पर उतारने के लिए भारी मात्रा में संसाधनों के साथ-साथ सरकारों, बीमाकर्ताओं और अन्य किरदारों के बीच गठजोड़ की ज़रूरत होगी. योग्यता से जुड़े मानक तय करने और बीमा ढांचे तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करने में भी कई तरह की चुनौतियां पेश आएंगी. इस संदर्भ में G20 द्वारा सक्रिय भूमिका निभाया जाना निहायत ज़रूरी है. वो GCCRI का अनुकूल ढांचा तैयार करने में बड़ा रोल अदा कर सकता है.
G20 और ग्लोबल जलवायु परिवर्तन पुनर्वास बीमा (GCCRI)
GCCRI को लागू करने के लिए G20 को एक अंतरराष्ट्रीय ढांचा क़रार स्थापित करने और उसे बढ़ावा देने की पहल करनी चाहिए. समझौते में सदस्य देशों द्वारा ज़मीन, आवास, कामकाज की मंज़ूरियां और कोष से जुड़े प्रावधान करने की ज़रूरत को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए. फ़ंड की व्यवस्था किए जाने से बीमा कंपनियां पुनर्वास बीमा उत्पाद तैयार कर सकेंगी. इस कड़ी में ‘साझा मगर अलग-अलग ज़िम्मेदारियों’ के सिद्धांत का पालन किया जाना चाहिए. इससे सदस्य देशों को अपने ख़ुद के योगदानों का मिश्रण चुनने की छूट मिल जाएगी. इस सिलसिले में भूमि-संपन्न, जलवायु के मोर्चे पर लचीले और उच्च आय वाले देशों से ज़्यादा से ज़्यादा भूमिका अदा किए जाने की उम्मीद की जाती है.
बीमा इकाइयों के बीच प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. पुनर्वास से जुड़ा मुख्य लाभ मुहैया कराने वाले अनेक उपकरणों की इजाज़त दी जानी चाहिए. इसके साथ ही तय मियाद के लिए साधारण भत्ता, मेज़बान मुल्क में कामकाज की क़ानूनी मंज़ूरियां और प्रभावित लोगों के बच्चों को बीमा पॉलिसी के हस्तांतरण की सुविधा भी जोड़ी जानी चाहिए. इन क़वायदों से तैयार ग्लोबल पुनर्वास बीमा बाज़ार में अगर कोई कमी रह जाए तो उसे बहुपक्षीय संस्थाएं और राज्य-संचालित बीमा कंपनियां पूरी कर सकती हैं. बीमा उत्पादों तक संप्रभु समर्थन (sovereign backing) का विस्तार किया जाना बेहद ज़रूरी है. इससे पुनर्वास के वक़्त दिवालिएपन और ग़ैर-अनुपालन की रोकथाम करने में मदद मिलेगी.
जलवायु परिवर्तन से जुड़े जोख़िमों की ज़द में रहने वाले असुरक्षित देश बीमे की किस्तों को सस्ता बनाने का विकल्प चुन सकते हैं. इस तरह पुनर्वास बीमा पॉलिसी लेना सुगम हो जाएगा और उसकी स्वीकार्यता का स्तर व्यापक बन जाएगा. मानवतावाद, बराबरी और जवाबदेही की बुनियाद पर ऊंची आमदनी वाले देशों और बहुपक्षीय संस्थाओं की ये भूमिका बनती है कि वो अल्प विकसित देशों के निवासियों के लिए बीमा प्रीमियम को सस्ता बनाए रखें.
ढांचागत क़रार के तहत एक स्वतंत्र अथॉरिटी स्थापित की जानी चाहिए, जो किसी विपदा में जलवायु कारक की मौजूदगी का सत्यापन कर सके. इस तरह बीमा धारकों को अपने दावे पेश करने की सहूलियत मिल जाएगी.
वैधानिक और भू-राजनीतिक चुनौतियों के साथ-साथ रोकथाम के उपाय
घरेलू वैधानिक ढांचा
भारत समेत अनेक देशों ने 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन से जुड़े समझौते पर अब तक दस्तख़त नहीं किए हैं. इन देशों में शरणार्थियों या पनाह चाहने वालों के लिए विशिष्ट नीतियां भी मौजूद नहीं हैं. ग्लोबल जलवायु परिवर्तन पुनर्वास बीमा का सुगम क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए सशक्त घरेलू विधायी उपाय किए जाने बेहद ज़रूरी हैं. लिहाज़ा GCCRI ढांचे में दुनिया भर की सरकारों के लिए उपयुक्त घरेलू क़ानूनों और पुनर्वास नीतियों का निर्धारण किए जाने की सख़्त ज़रूरत होती है. तकनीकी सहायता मुहैया कराने, ज़रूरी क़ानून तैयार करने और उनके क्रियान्वयन के बेहतरीन तौर-तरीक़े साझा करने के लिए G20 समूह अन्य राष्ट्रों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर सकता है.
विवाद निपटारा
इस तंत्र के क्रियान्वयन में विवाद उभर सकते हैं. साथ ही बीमे के दावों और देशों द्वारा उनके निपटारे के बीच एक अंतर भी हो सकता है. भले ही दंडनीय प्रावधान ज़रूरी हों, लेकिन तमाम देश ऐसे बाध्यकारी प्रावधानों का प्रतिरोध कर सकते हैं. G20 ऐसे संभावित टकरावों के निपटारे के लिए बीच-बचाव और विवाद निपटारा तंत्रों के प्रयोग को प्रोत्साहित कर सकता है.
अनिच्छा
ऊंची आमदनी वाले, भूमि-संपन्न और जलवायु के प्रभावों का मज़बूती से सामना करने वाले देशों के लिए GCCRI प्रणाली से सहमति जताने के प्रोत्साहन काफ़ी सीमित हो सकते हैं. लिहाज़ा ऐसी बीमा योजना की व्यावहारिकता घट जाती है. G20 के अन्य सदस्यों की ओर से लगातार डाले गए अंतरराष्ट्रीय दबाव से इस मसले के निपटारे में मदद मिल सकती है. साथ ही उनके योगदानों की सीमा तय करने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन और लोचदार व्यवस्था भी हासिल हो सकती है.
बीमे से जुड़ी ख़ास चुनौतियां और रोकथाम के उपाय
रिस्क मॉडलिंग
निम्न आवृति (frequency) और ज़बरदस्त असर वाले वाक़यों के बारे में ठोस आंकड़ों का अभाव है. ऐसे में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी विनाशकारी घटनाओं की जोख़िम के मूल्यांकन की क़वायद पेचीदा हो जाती है. हालांकि, हाल के वर्षों में मौसम का पूर्वानुमान लगाने के तरीक़ों में काफ़ी सुधार आया है. लिहाज़ा अब उन जलवायु बीमा उत्पादों को तैयार करना मुमकिन हो गया है, जो एक वक़्त पर नामुमकिन लगते थे.
जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाली विनाशकारी घटनाओं को लेकर बीमा पॉलिसी की क़ीमतों को प्रभावी रूप से तय करना अपने-आप में एक चुनौती है. इसके निपटारे के लिए बहुपक्षीय संस्थाओं और सरकारों को शोध और विकास पर निवेश करना चाहिए. इससे बीमा कंपनियों को आकस्मिक जोख़िम के क्षेत्र में पहले से ज़्यादा उन्नत नमूने (actuarial models) तैयार करने में मदद मिलेगी. ऐसे में बीमा प्रीमियमों में गिरावट का रास्ता साफ़ हो सकता है.
बाज़ार का अधूरापन
विनाशकारी आपदाओं के बीमे से जुड़ी क़वायद बाज़ार में मौजूद अधूरेपन के प्रति संवेदनशील होती हैं. इनमें ऊंचे-जोख़िम वाले प्रीमियम और निम्न-आय वाले देशों द्वारा वहन ना कर पाने की आशंकाएं जुड़ी होती हैं. इतना ही नहीं, बड़ी विनाशकारी घटनाएं अनेक नीति-निर्माताओं के लिए एक ही वक़्त पर घाटे का सबब बन सकती हैं.
सरकारें और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां, बीमे को सस्ता बनाने में अहम भूमिका निभा सकती हैं. इस क़वायद से उनका कुल उपभोक्ता आधार बढ़ता है और बीमे की प्रक्रिया निम्न-आय वाले देशों के निवासियों की आर्थिक क्षमता के अनुकूल हो जाती है. चूंकि बीमे की अदायगी के लिए आवास, कामकाज की मंज़ूरियों और भत्तों की आवश्यकता होती है, लिहाज़ा निजी बीमा कंपनियों को अपने हाथ में बड़ी मात्रा में पूंजी रखने की ज़रूरत नहीं पड़ती.
प्रतिकूल चयन
असुरक्षित इलाक़ों के बीमे की क़वायद में एक बड़ी चुनौती प्रतिकूल चुनौती के तौर पर सामने आती है. दरअल आर्थिक रूप से गतिशील व्यक्ति द्वारा ख़ुद को बीमा दायरे से बाहर रखने का विकल्प चुन लिए जाने की संभावना रहती है. इस तरह बीमाकर्ताओं के सामने सिर्फ़ न्यूनतम गतिशील उपभोक्ता ही बच जाते हैं. इससे दिवालिएपन का जोख़िम पहले से ज़्यादा हो जाता है और पुनर्वास के दौरान स्थानीय प्रतिरोध की संभावना भी बढ़ जाती है.
बहरहाल, सबसे ज़्यादा गतिशील व्यक्तियों पर भी विनाशकारी हालातों में उभरने वाली प्रतिस्पर्धा का प्रभाव पड़ता है. ऐसे में प्रतिकूल चयन की संभावनाएं निम्न हो जाती हैं. आपदाओं के बाद कामकाज के परमिट सौंपते वक़्त सरकारें भी बीमा धारकों को वरीयता दे सकती हैं. इस तरह प्रतिकूल चयन की समस्या की रोकथाम हो जाती है.
मुफ़्तख़ोरी
मुमकिन है कि कुछ लोग इस बीमा योजना से बाहर रहना पसंद करें. उनकी सोच ऐसी हो सकती है कि बीमा योजना से बाहर रहने के बावजूद भी मानवीय आधार पर उनका पुनर्वास कर दिया जाएगा. ग्लोबल जलवायु परिवर्तन पुनर्वास बीमा मुफ़्तख़ोरी की आदत से जुड़ी इस समस्या का भी निपटारा करता है. सामान्य रूप से मानवतावादी हस्तक्षेपों में जितनी मदद मुहैया कराई जाती है उसके मुक़ाबले GCCRI में बेहतर भुगतान की व्यवस्था की गई है. आमतौर पर शरणार्थी कैंपों में लोगों को शरणार्थी का दर्जा देकर ज़रूरी सामान मुहैया कराए जाते हैं. भावी मदद पहुंचाने की अन्य व्यवस्थाएं किए जाने तक यही क़वायद जारी रहती है. जबकि प्रस्तावित GCCRI में ऐसे विस्थापित लोगों को पूर्व-आवंटित आवासीय इकाइयां और रोज़गार के परमिट दिए जाएंगे. इस तरह बीमा धारकों को शरणार्थी कैंपों की तकलीफ़ों से निजात मिल सकेगी.
संचार की तात्कालिकता और बीमे की संस्कृति विकसित करना
GCCRI से जुड़े उपकरणों को असरदार बनाने के लिए इसको जल्द अपनाने की प्रवृति को बढ़ावा देना बेहद ज़रूरी है. बहरहाल, लोग ऐसी बीमा पॉलिसियों की ख़रीद को टालने का रुख़ दिखा सकते हैं. मुमकिन है कि उन्हें जलवायु परिवर्तन के चलते ख़ुद के लिए पैदा होने ख़तरे दूर की कौड़ी दिखाई दें. वैसे भी आम तौर पर अल्प विकसित देशों और निम्न-आय वाली अर्थव्यवस्थों में बीमे का प्रचलन कम होता है. ऐसे में बीमे के लिए भुगतान करने की संस्कृति पैदा करना मुश्किल सबब बन जाता है. ख़ासतौर से आबादी के सबसे नाज़ुक वर्गों के साथ इस तरह की दिक़्क़त पेश आती है.
लोगों को पुनर्वास बीमा पॉलिसियां ख़रीदने के बारे जानकारी देने और शिक्षित करने के लिए जन-जागरूकता अभियानों का आयोजन किया जाना चाहिए. लोगों को ऐसी बीमा पॉलिसी की अहमियत और तात्कालिकता (urgency) समझाकर शुरुआती दौर में और व्यापक रूप से इनको अपनाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है. सरकारों और बहुपक्षीय एजेंसियों द्वारा मुहैया कराई गई सब्सिडियों और प्रोत्साहनों से भी लोगों को बीमा पॉलिसी अपनाने के लिए प्रेरित किया जा सकेगा.
सौ बात की एक बात
ग्लोबल जलवायु परिवर्तन पुनर्वास बीमा यानी GCCRI विस्थापन से जुड़ी समस्या से सक्रिय रूप से निपटने की पहली क़वायद है. ये लोगों को जलवायु परिवर्तन के चलते बेसहारा शरणार्थी वाली ज़िंदगी से ऊपर उठने की ताक़त देगी. जलवायु परिवर्तन के अनेक प्रभावों से निपटने को लेकर प्रस्तावित समाधानों के मौजूदा समूह में कई तरह की ख़ामियां हैं. GCCRI इन्हीं कमियों को दूर करेगी. GCCRI की व्यवस्था स्थापित कर और उसको बढ़ावा देकर G20 समूह, जलवायु परिवर्तन के चलते सामने आने वाली चुनौतियों और नाज़ुक आबादी पर उसके बेतहाशा प्रभावों के निपटारे में अपनी प्रतिबद्धता का इज़हार कर सकता है. धरती की जलवायु में परिवर्तन से पड़ोसी देशों पर होने वाले संभावित प्रभावों का G20 देशों (ख़ासतौर से भारत) पर ख़ासा असर होने वाला है. इन तमाम देशों के सामने अपनी अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर बेक़ाबू तरीक़े से शरणार्थियों के पहुंचने का संकट खड़ा हो सकता है. राष्ट्रीय और आर्थिक सुरक्षा पर इस संभावित ख़तरे को टालने के लिए ग्लोबल रूप से मंज़ूर किया गया GCCRI का ढांचा अहम रोल निभा सकता है.
आपदाओं और संघर्षों के चलते लोगों का बड़ी तादाद में होने वाला विस्थापन अक्सर बेतरतीब, असंगठित और ज़बरदस्त प्रभाव वाली घटना होती है. बीमे का प्रस्तावित ढांचा ग्लोबल स्तर पर बड़ी तादाद में लोगों को दोबारा बसाने का एक क़ानूनी और सुरक्षित तौर-तरीक़ा पेश करेगा. जलवायु-संबंधित आपदा की सूरत में बीमे की इस व्यवस्था से पहले से ज़्यादा बेहतर और योजनाबद्ध रूप से प्रवास और पलायन से जुड़ी गतिविधियों का संचालन किया जा सकेगा. शरणार्थियों की मेज़बानी करने वाले देश भी अपने नागरिकों के कल्याण के साथ-साथ मानवतावादी चिंताओं का बेहतर संतुलन क़ायम कर सकेंगे.
G20 के लिए सिफ़ारिशें
ऊपर के विश्लेषण के आधार पर इस पॉलिसी ब्रीफ़ में G20 द्वारा कुछ ज़रूरी क़दम उठाए जाने की सिफ़ारिश की जाती है, जिनका ब्योरा नीचे दिया गया है: