मध्य यूरोप के देश ‘स्लोवेनिया’ ने अनजाने में मिशन LiFE के संदेश को प्रतिध्वनित किया

स्लोवेनिया के पीएम ने सतत रहन-सहन और ऊर्जा आत्मनिर्भरता की वक़ालत की है. ऐसा करके उन्होंने पीएम मोदी के मिशन लाइफ़ के जैसी भावना को दोहराया है.
Aljaž Pengov Bitenc

पिछले दिनों मांस की खपत को लेकर एक सांख्यिकीय विश्लेषण स्लोवेनिया में सतत रहन-सहन और खाद्य उत्पादन को लेकर लोगों के बीच एक ज़ोरदार बहस का कारण बना. राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय के अनुसार स्लोवेनिया का प्रति व्यक्ति औसतन हर साल 90 किलोग्राम मांस की खपत करते हैं. ये यूरोपीय संघ (EU) के 70 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष के औसत से काफ़ी ज़्यादा है.

चुनाव के ज़रिये खान-पान की बहस में बदलाव

निष्पक्षता से कहें तो स्लोवेनिया में मांस की खपत के आंकड़े में किसी साल बहुत ज़्यादा बदलाव नहीं आया है लेकिन जो थोड़ा-बहुत बदलाव आया भी है वो मांस आधारित भोजन की संरचना में आया है. पोल्ट्री लोगों की पहली पसंद के रूप में पोर्क से मुक़ाबला कर रही है जबकि बीफ काफ़ी पीछे तीसरे नंबर पर बना हुआ है.
ध्यान देने की एक और बात ये है कि स्लोवेनिया आख़िरी बार 2001 में मांस उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बना था. उस वक़्त से स्लोवेनिया में मांस के उत्पादन में लगातार कमी आई है. 2016 में तो स्लोवेनिया के पशुधन और मांस उत्पादक मांस के लिए देश की मांग के केवल 76 प्रतिशत हिस्से की आपूर्ति कर पाए थे. उसके बाद से उत्पादन बढ़ा तो है लेकिन 2021 में भी ये आंकड़ा सिर्फ़ 85 प्रतिशत तक ही पहुंच पाया.
ये पूरी तरह से हैरान करने वाली बात तो नहीं है लेकिन सबसे कम आत्मनिर्भरता की दर पोर्क मीट (केवल 43 प्रतिशत) के साथ देखी गई है जबकि बीफ और पोल्ट्री का उत्पादन देश की मांग से ज़्यादा है.

ध्यान देने की एक और बात ये है कि स्लोवेनिया आख़िरी बार 2001 में मांस उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बना था. उस वक़्त से स्लोवेनिया में मांस के उत्पादन में लगातार कमी आई है.

हालांकि, 2022 तक मांस का उत्पादन खेती की नीतियों और कृषि अर्थव्यवस्था के मामले में काफ़ी हद तक एक चिंता का विषय था. इनके अलावा भी पशुधन और मांस की खपत को लेकर बहस ज़्यादातर एक जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दे के रूप में देखा जाता था. विकसित देशों की तरह गोजातीय उत्पन्न मीथेन (जिसे मीडिया की भाषा में “गाय का पेट फूलना” कहा जाता है) को कम करना और इस तरह पर्यावरण को बचाना कम मांस खाने की अपील के पीछे एक व्यापक प्रेरणा थी.
कम-से-कम स्लोवेनिया में बहस का स्वरूप 2022 के चुनाव अभियान में काफ़ी बदल गया. मांस की खपत पर्यावरण और निरंतरता से जुड़ा एक मुद्दा होते हुए भी ऊर्जा की खपत और आत्मनिर्भरता को लेकर एक व्यापक बहस का हिस्सा बन गई. हालांकि लोगों की बातचीत में इस बदलाव के पीछे का कारण जितना अनोखा है, उतना ही अलग-अलग भी.
शाकाहारवाद से ऊर्जा आत्मनिर्भरता का सफर
लंबी कहानी को अगर संक्षेप में कहें तो सुपर-इलेक्शन साल (2022 में स्लोवेनिया के लोगों ने आठ बार मतदान किया), राजनीतिक दिशा में एक बड़ा बदलाव, यूक्रेन पर रूस के हमले और नये उदारवादी प्रधानमंत्री रॉबर्ट गोलोब के एक ख़ास हुनर- इन सभी बातों ने मांस की खपत को लेकर बहस को “गाय के पेट फूलने” से लेकर “ऊर्जा सुरक्षा” के मुद्दे की तरफ़ मोड़ने में योगदान दिया.
ख़ास तौर पर आख़िरी दो बातों, यूक्रेन में युद्ध और नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में गोलोब के अनुभव, ने इस बहस की दिशा को वास्तव में बदल दिया है. स्लोवेनिया में 2022 के संसदीय चुनाव का अभियान रूस के द्वारा यूक्रेन पर हमले के पहले चरण के समय चलाया गया. उस वक़्त दुनिया यूक्रेन के अनाज के विश्वसनीय निर्यात में अचानक नुक़सान से जूझ रही थी और रूस की गैस न मिलने के दूरगामी असर को महसूस करना शुरू ही किया था. इसके साथ-साथ दक्षिणपंथी लोकप्रिय प्रधानमंत्री जैनेज़ जानसा को चुनौती देने वाले वामपंथी-उदारवादी रॉबर्ट गोलोब ऊर्जा की मांग को घटाने के तरीक़े के रूप में मांस की खपत को कम करने के विषय की चर्चा करने में सक्षम रहे.
महत्वपूर्ण बात ये है कि स्लोवेनिया की सबसे बड़ी नवीकरणीय ऊर्जा कंपनी के CEO के रूप में गोलोब ने जो समय बिताया उससे इस मुद्दे पर उनकी विश्वसनीयता स्थापित हो गई. इसका नतीजा ये हुआ कि उनकी बातों को पेड़ से लिपटने वाले किसी शाकाहारी पर्यावरणविद की तरह मज़ाक़ के रूप में नहीं उड़ाया जा सका. इसके बदले वो अप्रैल में हुए संसदीय चुनाव को जीतने में सफल रहे और जून में प्रधानमंत्री बन गए. इसके साथ ही स्लोवेनिया के एक औसत नागरिक के रोज़ाना के भोजन में मांस की खपत को घटाना किसी चुनावी अभियान के बदले सरकार की एक नीति की तरह हो गया.

मिशन लाइफ़ की गूंज

इस बात की ज़्यादा उम्मीद है कि ये अनजाने में हुआ लेकिन गोलोब ने मिशन लाइफ (LiFe यानी लाइफ़स्टाइल फॉर एनवायरमेंट) को दोहराया जो कि 2023 में भारत की G20 की अध्यक्षता के स्तंभों में से एक है.
विशेष रूप से मिशन लाइफ़ हर किसी को उसकी योग्यताओं एवं क्षमताओं के अनुसार योगदान के लिए कहकर जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई को लोकतांत्रिक रूप देता है. चाहे खपत को कम करना हो, आपूर्ति को अनुकूल बनाना या नीतियों में संशोधन हो- छोटे-छोटे क़दमों को अगर मिलाया जाए तो इससे बड़ा बदलाव हो सकता है.
20 लाख लोगों और 52.2 अरब यूरो (56.6 अरब अमेरिकी डॉलर) की GDP वाले देश स्लोवेनिया के पास न तो ताक़त है, न ही ऐसी अर्थव्यवस्था कि वो G20 की सदस्यता हासिल कर सके. लेकिन यूरोपीय संघ, जो कि G20 का एक महत्वपूर्ण सदस्य है, के एक सदस्य के रूप में उसकी आवाज़ को अप्रत्यक्ष रूप में सुना जा सकता है.
EU के भीतर स्लोवेनिया के नये प्रधानमंत्री के पास वो हुनर है जो उन्हें वर्तमान की चुनौतियों का जवाब देने में अनोखे ढंग से माहिर बनाता है. यानी रॉबर्ट गोलोब ऊर्जा बाज़ार एवं नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में अपने अनुभव का शानदार इस्तेमाल कर रहे हैं. उनका अनुभव इतना ज़्यादा है कि EU के लंबे कार्यकाल वाले नेताओं के बीच भी वार्ताकार के रूप में उनकी बहुत ज़्यादा पूछ है.

स्लोवेनिया में 2022 के संसदीय चुनाव का अभियान रूस के द्वारा यूक्रेन पर हमले के पहले चरण के समय चलाया गया. उस वक़्त दुनिया यूक्रेन के अनाज के विश्वसनीय निर्यात में अचानक नुक़सान से जूझ रही थी और रूस की गैस न मिलने के दूरगामी असर को महसूस करना शुरू ही किया था.

यही वजह है कि पिछले दिनों यूरोपीय संसद में उनका संबोधन इतना महत्वपूर्ण है. उन्होंने अपने भाषण का एक बड़ा हिस्सा जहां ऊर्जा सुरक्षा एवं आत्मनिर्भरता को समर्पित किया, वहीं लोगों से अपने भोजन की आदत बदलने और स्वस्थ खान-पान तक बेहतर पहुंच सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया. इसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से मांस की खपत कम करने और विकल्प के रूप में पौधों से पैदा खाद्य की खपत को बढ़ाने की अपील की. गोलोब के अनुसार ऐसा करने से EU का हरित परिवर्तन तेज़ होने के साथ-साथ ऊर्जा की मांग का दबाव कम होगा. इसके अलावा नवीकरणीय ऊर्जा के संसाधनों की तरफ़ बदलाव भी तेज़ होगा.
यूरोपीय संसद में अपने भाषण के दौरान गोलोब ने इस बात पर ज़ोर दिया कि उन्होंने जहां कम मांस की खपत की वक़ालत की है, वहीं वो इस बात की सलाह नहीं दे रहे हैं कि मांस की खपत पूरी तरह ख़त्म हो जाए. उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि इस प्रकार के बदलाव निश्चित रूप से व्यक्तिगत आधार पर होने चाहिए और वो स्वैच्छिक एवं धीरे-धीरे हों.
इन सभी बातों को एक साथ लें तो प्रधानमंत्री गोलोब ने भारत के प्रधानमंत्री मोदी के मिशन लाइफ़ को दोहराया है. वो मांस की खपत को लेकर छोटे-छोटे व्यक्तिगत क़दम उठाने की वक़ालत करते हैं, ऊर्जा उत्पादन एवं आपूर्ति में बदलाव पर ज़ोर देते हैं और उपर्युक्त बातों का समर्थन करने के लिए नीतियों का मसौदा तैयार कर रहे हैं.

तीखी प्रतिक्रिया

ये बढ़ा-चढ़ाकर कहना नहीं होगा कि स्लोवेनिया की नई सरकार की प्राथमिकताएं भारत की G20 की अध्यक्षता की प्राथमिकताओं से व्यापक तौर पर मेल खाती हैं. दोनों में जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करने के तरीक़े के रूप में सौर ऊर्जा पर ध्यान दिया गया है. साथ ही ये समझ भी है कि हरित परिवर्तन का मतलब ऊर्जा के एक स्रोत से दूसरे स्वच्छ स्रोत की तरफ़ बदलाव से बहुत ज़्यादा है.
हरित परिवर्तन का मतलब जान-बूझकर सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूप को बदलना है, जहां एक समय में एक क़दम उठाया जाता है.
इस बात को ध्यान में रखते हुए ये मामूली बात नहीं है कि स्लोवेनिया की नई राष्ट्रपति ने हफ़्ते में कम-से-कम एक दिन अपने खान-पान से मांस को हटाकर एक उदाहरण पेश करने का फ़ैसला लिया है. मांस खाना पसंद करने वाली वाली राष्ट्रपति नताशा पर्क मूसर ने पिछले दिनों एक इंटरव्यू में गोलोब की पहल का समर्थन किया और ये कहा कि इस क़दम से वो अपनी मांस की खपत को हर हफ़्ते 10 प्रतिशत से ज़्यादा कम करेंगी.
लेकिन जिस वक़्त प्रधानमंत्री गोलोब “कम मांस यानी ज़्यादा ऊर्जा की बचत” के अपने दृष्टिकोण को परिभाषित कर रहे थे, उन्हें तुरंत तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा.
इससे ये पता चला कि आज की दुनिया में भी सबसे अच्छे और विज्ञान पर आधारित मूल्यांकन को सांस्कृतिक युद्ध के मुद्दे में बदला जा सकता है. वो भी तब जब शुरुआती नीतिगत क़दमों को शानदार ढंग से लागू नहीं किया गया है.
गहरी साज़िश
रॉबर्ट गोलोब के साथ ठीक यही हुआ. यूरोपीय संसद में उनके संबोधन से कुछ दिन पहले उनकी सरकार ने पोषण पर एक रणनीतिक परिषद की शुरुआत की जिसका काम खान-पान से जुड़ी राष्ट्रीय गाइडलाइन को अपडेट करना है. लेकिन इस परिषद में नियुक्त ज़्यादातर सदस्यों के खुले रूप से शाकाहारवाद का समर्थक होने के कारण प्रधानमंत्री के राजनीतिक विरोधियों ने तुरंत ही दावा करना शुरू कर दिया कि “उदारवादी आपका मांस छीनने के लिए आ रहे हैं.”
हालांकि, कृषि विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने इस बात पर दुख जताया कि परिषद में पशु पालने वाले किसानों और मांस उत्पादकों के किसी भी प्रतिनिधि को शामिल नहीं किया गया है. इससे परिषद का रूप विशेषज्ञों के एक समूह की जगह किसी लॉबिंग ग्रुप की तरह हो गया है.
कुछ दिनों के बाद गोलोब की सरकार ने इस ग़लती को ठीक कर लिया और अब रणनीतिक परिषद में अलग-अलग क्षेत्रों के लोग मौजूद हैं. लेकिन तब तक नुक़सान हो चुका था. यहां तक कि ख़ुद प्रधानमंत्री ने पौधों से पैदा खाद्य को लेकर जल्दबाज़ी की वजह से परिषद से अलग विशेषज्ञों को प्रभावित नहीं किया. कृषि अर्थशास्त्रियों के अनुसार पोषण को लेकर प्रधानमंत्री का सहज ज्ञान सही है लेकिन स्लोवेनिया में केवल मांस या पौधे को लेकर अलग-अलग राय के अलावा सामान्य तौर पर खाने-पीने के सामान की बर्बादी की बड़ी समस्या है
स्लोवेनिया के लोग अभी भी बहुत ज़्यादा खाने-पीने के सामान की बर्बादी करते हैं और ये बर्बादी बढ़ती ही जा रही है. विशेषज्ञों का मानना है कि ये ऊर्जा एवं अन्य संसाधनों की बर्बादी का एक महत्वपूर्ण, दीर्घकालीन और इसके बावजूद अपेक्षाकृत रूप से आसानी से ठीक किया जाने वाला कारण पेश करता है. अगर स्लोवेनिया के लोग कम खाना बर्बाद होने देते हैं और ज़्यादा पोषक एवं कम प्रसंस्कृत आहार को चुनते हैं तो इससे न केवल इस विशेष क्षेत्र में ऊर्जा की मांग में कमी आएगी बल्कि इससे आत्मनिर्भरता और खाद्य सुरक्षा भी बढ़ेगी.
संचार और सहयोग
स्लोवेनिया की अस्थिर खाद्य सुरक्षा में योगदान देने वाले प्रमुख कारणों में से एक है संसाधनों की अस्थिरता. फसल को उपजाने के मुक़ाबले पशुओं की देखभाल में न केवल पानी एवं दूसरे संसाधनों का काफ़ी ज़्यादा इस्तेमाल होता है बल्कि ये भी पता चला है कि स्लोवेनिया के पशुपालक पशुओं को खिलाये जाने वाले आहार का एक-तिहाई हिस्सा आयात करते हैं जो कि ज़्यादातर ब्राज़ील में पैदा सोया है. इसका मतलब ये है कि कुल मिलाकर स्लोवेनिया में पशुओं को पालना पहली नज़र के मुक़ाबले कम टिकाऊ और कम आत्मनिर्भर है.
वैसे तो ये बात रॉबर्ट गोलोब के पक्ष में दलील की तरह लग सकती है लेकिन विशेषज्ञ नीति में तुरंत किसी बदलाव के ख़िलाफ़ चेतावनी देते हैं क्योंकि पशुपालन स्लोवेनिया में न केवल घरेलू खाद्य सुरक्षा की प्रणाली में एक भूमिका अदा करता है बल्कि इसका एक सांस्कृतिक महत्व भी है.

कृषि विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने इस बात पर दुख जताया कि परिषद में पशु पालने वाले किसानों और मांस उत्पादकों के किसी भी प्रतिनिधि को शामिल नहीं किया गया है. इससे परिषद का रूप विशेषज्ञों के एक समूह की जगह किसी लॉबिंग ग्रुप की तरह हो गया है.

इसकी वजह से बदलाव लाना और भी ज़रूरी हो जाता है. यही कारण है कि कुछ अनुसंधानकर्ता मानते हैं कि व्यापक पहुंच वाला सूचना अभियान, जो देश में उगाए गए और मौसमी खाद्य का समर्थन करता है, किसी भी नीतिगत बदलाव के लिए एक पूर्व शर्त है. इसके अतिरिक्त, चूंकि इस तरह के नीतिगत बदलाव को उपभोक्ताओं के साथ-साथ उत्पादकों के दिल और दिमाग़ को जीतने की ज़रूरत है, इसलिए विशेषज्ञ आराम से और धीरे-धीरे खाने-पीने के सामान की बर्बादी एवं मांस की खपत को कम करने की ओर दृष्टिकोण का तर्क देते हैं.
ये हमें आख़िरी बिंदु तक ले जाता है: बदलाव की गति कुछ भी हो, संचार और सहयोग प्रमुख होगा. अगर स्लोवेनिया वास्तव में अपने लोगों के खान-पान की आदत को बदलना चाहता है, ऊर्जा की खपत कम करना चाहता है और लोगों को स्वस्थ रखना चाहता है तो सभी भागीदारों को मांस की खपत कम करने के लाभ को समझना होगा और एक साझा लक्ष्य के लिए काम करना होगा.
अगर ऐसा होता है तो ये भारत की G20 की अध्यक्षता के लिए भी प्रमुख सिद्धांत है.
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(ये लेख G20- थिंक20 टास्क फोर्स 3: सुख के लिए जीवन, लचीलापन और मूल्य पर समीक्षा श्रृंखला का एक हिस्सा है)