विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई और आपदा-रोधी बुनियादी ढांचे के लिए वित्त का जुगाड़

ANITA YADAV | HIMANSHI SHARMA | VIVEK VENKATARAMANI

टास्क फोर्स 3 LiFE, रेज़िलिएंस, एंड वैल्यूज़ फॉर वेलबींग


उत्सर्जनों के निम्न स्तर और जलवायु के हिसाब से लचीले भविष्य के रास्ते पर आगे बढ़ रहे सभी नगरों (ख़ासतौर से विकासशील देशों में) को एक बुनियादी अड़चन को दूर करना होगा. वो बाधा है- पूंजी और वित्त तक पहुंच का अभाव. विकासशील देशों में अंतरराष्ट्रीय अनुकूलन वित्त (adaptation finance) का प्रवाह अब भी अनुमानित आवश्यकताओं से पांच से दस गुना नीचे है और ये खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है.[i] जलवायु परिवर्तन के प्रभाव गंभीर होते जा रहे हैं. ऐसे में विकासशील दुनिया को धन जुटाने में मददगार वित्तीय तंत्र की तत्काल आवश्यकता है. असुरक्षित देशों और समुदायों में अनुकूलन से जुड़े उपायों और आपदा का मुक़ाबला कर पाने में सक्षम बुनियादी ढांचे के निर्माण को लेकर इस रकम के ज़रिए मदद पहुंचानी होगी.

G20 इस चुनौती से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. ये समूह विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई की दिशा में वित्त में रफ़्तार भरने में मदद कर सकता है. ये पॉलिसी ब्रीफ विकासशील देशों के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण का प्रस्ताव करता है. इसकी मदद से ऐसे देश, अनुकूलन, रोकथाम और लचीलापन लाने की कार्रवाइयों के लिए धन जुटा सकते हैं. इसके लिए (a) वित्त के स्रोतों तक पहुंच, (b) टैगिंग के ज़रिए मौजूदा विकास बजट का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग, और (c) अनुकूलन कार्रवाइयों की फंडिंग को लेकर मिश्रित फाइनेंसिंग तंत्रों की संरचना और शुरुआत की सुविधा के लिए प्रशासन के सबसे प्रासंगिक स्तर (राष्ट्रीय/उप-राष्ट्रीय) पर लचीलेपन से जुड़ी प्रयोगशाला तैयार करना होगा.

1.चुनौती

दरअसल दुनिया के ज़्यादातर विकासशील देशों का जलवायु परिवर्तन से जुड़े संकट में ऐतिहासिक रूप से काफ़ी कम योगदान रहा है, लेकिन वे इसके कुप्रभावों की मार झेलने को मजबूर हैं. ऐसे विकासशील देश अपने सीमित वित्तीय संसाधनों के मद्देनज़र आर्थिक वृद्धि और सतत विकास के बीच संतुलन बिठाने की जद्दोजहद कर रहे हैं.[ii] यही वजह है कि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC), क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस समझौते में विकसित देशों से ऐसे विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करने का आह्वान किया गया, जिनके जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों के प्रति ज़्यादा असुरक्षित होने की आशंका है.[iii] साल 2009 में UNFCCC के 15वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (COP15) में विकसित देशों ने विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई को लेकर 2020 तक सालाना 100 अरब अमेरिकी डॉलर संग्रहित करने की प्रतिबद्धता जताई थी. इस लक्ष्य को 2010 में COP16 के दौरान औपचारिक रूप दिया गया और 2015 में COP21 में इसे दोहराते हुए साल 2025 तक बढ़ा दिया गया था. हालांकि इस दिशा में वित्त जुटाने का पैमाना और रफ़्तार अब भी सुस्त और नाकाफ़ी है.[iv]

विकासशील देश, एक के बाद एक जलवायु ख़तरों का सामना कर रहे हैं और ऐसे जोख़िमों का आकार लगातार बढ़ता जा रहा है. बदक़िस्मती से अधिकांश राष्ट्रीय सरकारों के पास जलवायु अनुकूलन और लचीलेपन से जुड़ी कार्रवाइयों के लिए पर्याप्त और समर्पित बजट नहीं है. मिसाल के तौर पर, भारत ने 2015-16 में जलवायु परिवर्तन के लिए अपना राष्ट्रीय अनुकूलन कोष लॉन्च किया था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस कोष के लिए किए गए आवंटनों में लगातार कमी आई है. हालत ये है कि अब इस कोष में पहले की स्वीकृत परियोजनाओं को पूरा करने लायक़ ही रकम बची है. विकासशील देशों के पास ना तो जलवायु जोख़िमों को विकास परियोजनाओं में एकीकृत करने की ताक़त है और ना ही उनके पास ऐसे प्रयासों के लिए ख़ासतौर से वित्त की सुविधा मौजूद है. लिहाज़ा राष्ट्रीय बजटों के लिए विकास बजटों के साथ जलवायु कार्यों को मुख्यधारा में लाना अनिवार्य हो गया है. जलवायु बजट टैगिंग तंत्र के ज़रिए इनका पायलट-परीक्षण किया जा सकता है.

लचीले बुनियादी ढांचे के निर्माण और महत्वाकांक्षी जलवायु कार्रवाई में रफ़्तार भरने के लिए विकासशील देशों को निवेश की दरकार है. इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वित्त के अलग-अलग स्रोतों की पूरक शक्तियों का उपयोग किया जाना चाहिए. इसके अलावा जलवायु वित्त का झुकाव रोकथाम की ओर रहता है. इसका प्रवाह भी बैंकिंग के योग्य परियोजनाओं की ओर ही होता है. अनुकूलन से जुड़ी कार्रवाइयां में निजी फाइनेंसरों के लिए व्यावसायिक रूप से लाभदायक अवसर प्रदान करने के आसार ना के बराबर होते हैं, जो इस दिशा में किए जाने वाले प्रयासों को सीमित कर देते हैं.[v] 2022 में COP27 में दुनिया के देश ‘नुक़सान और क्षतिपूर्ति कोष’ की स्थापना पर सहमत हुए थे. जलवायु से जुड़ी आपदाओं से दुनिया के सबसे असुरक्षित देशों को होने वाले नुक़सान की भरपाई के लिए इस क़वायद को अंजाम दिया गया.[vi] सबसे पहले इस कोष में विकसित देशों और अन्य निजी और सार्वजनिक स्रोतों से योगदान दिया जाना है, लेकिन अब भी इस बात पर स्पष्टता का अभाव है कि दुनिया के कौन-कौन से देश धन प्राप्त करने के पात्र होंगे.[vii]

ज़्यादातर विकासशील देश, गुणवत्तापूर्ण परियोजनाओं की पहचान, मूल्यांकन और चयन करने में सक्षम नहीं होते. वो प्रासंगिक वित्तीय जोख़िमों का प्रबंधन भी नहीं कर पाते. इसके अलावा विकासशील देशों के उप-राष्ट्रीय और राज्यसत्ता से इतर कार्य करने वाले किरदारों में जलवायु के हिसाब से लचीलापन तैयार करने के लिए वित्त जुटाने की क्षमता सीमित होती है. उच्च-गुणवत्तापूर्ण और विश्वसनीय डेटा का अभाव, इसके तमाम कारणों में से एक है. जलवायु सूचना ढांचे में मज़बूती लाने के लिए क्षमता का विकास अहम है. ये पूंजी बाज़ारों के विकास को बढ़ावा देने और परियोजनाओं की व्यवहार्यता को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

2.G20 की भूमिका

G20 के तमाम मंच विकसित और विकासशील देशों को उन विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए एक साथ लाते हैं जो विकास को बढ़ावा देते हैं, विकास रणनीतियों की नई संरचना बनाते हैं और सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) के उद्देश्यों को पूरा करते हैं. इसके अलावा समूह के कई सदस्य देशों के पास आपदाओं के हिसाब से लचीले शहरों और समाजों को लेकर निवेश को प्रेरित करने के लिए आवश्यक ज्ञान, कौशल और वित्तीय संसाधन मौजूद हैं. G20 समूह, सदस्य देशों को विकासशील राष्ट्रों में जलवायु वित्त के प्रति अपनी नीतियों और दृष्टिकोणों के समन्वय के लिए एक मंच भी उपलब्ध करा सकता है. समन्वय से जुड़ी ऐसी क़वायद, प्रयासों का तालमेल बनाने, बेहतरीन तौर-तरीक़ों को साझा करने और जलवायु वित्त तक पहुंच के लिए अधिक अनुकूल वातावरण बनाने में मदद कर सकता है.

इस प्रकार G20, स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओं में जलवायु वित्त और निवेश मुहैया कराने में मदद कर सकता है. साथ ही विकासशील देशों में क्षमता निर्माण पहल को सहारा भी दे सकता है. ये पॉलिसी ब्रीफ़ ऐसे चार तरीक़ों का प्रस्ताव करता है, जिससे G20 विकासशील देशों को ऐसी मदद मुहैया करा सकता है.

3.G20 के लिए सिफ़ारिशें

 * जलवायु वित्त की पहुंच और उपलब्धता सुधारने के लिए बहुपक्षीय बैंकों में सुधार करना

स्वच्छ ऊर्जा की दिशा में परिवर्तनकारी क़वायदों के लिए विकसित देशों ने विकासशील देशों को पर्याप्त वित्तीय सहायता उपलब्ध नहीं कराई है.[viii] बहुपक्षीय बैंकों को इन प्रयासों की अगुवाई करते हुए फंडिंग अंतर को पाटने के लिए एक माध्यम के रूप में काम करना चाहिए. G20 के सदस्य देश बहुपक्षीय बैंकों के प्रमुख शेयरधारकों में शामिल हैं. लिहाज़ा, उनके पास जलवायु वित्त को प्राथमिकता देने और SDGs के साथ उनका तालमेल बिठाने के लिए इन तमाम बैंकों के प्रशासनिक ढांचे, पूंजीकरण और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को प्रभावित करने की शक्ति है.[ix]

इस दिशा में जलवायु-संबंधित परियोजनाओं के लिए धन के आवंटन को बढ़ाना और लक्षित जलवायु वित्त रणनीतियों की स्थापना करना ही मक़सद है. ऐसी रणनीतियां विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की रोकथाम, अनुकूलन और लचीलेपन के निर्माण पर केंद्रित प्रयासों के लिए फाइनेंसिंग को प्राथमिकता देती हैं. बहुपक्षीय संगठनों को विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त तक पहुंच बनाने की प्रक्रिया को आसान और सुचारू बनाने का प्रयास करना चाहिए. इन क़वायदों में प्रशासनिक बोझ घटाने, सूचना की पहुंच बढ़ाने और फाइनेंसिंग प्रक्रिया के हरेक चरण पर उपयोगकर्ता के अनुकूल मार्गदर्शन और सहायता प्रदान करने जैसे प्रयास शामिल हैं.

‘बहुपक्षीय विकास बैंकों यानी MDBs को मज़बूत करने’ को लेकर एक विशेषज्ञ समूह की स्थापना करके भारतीय अध्यक्षता में G20 ने पहले ही इस दिशा में एक मज़बूत कदम उठा लिया है. विशेषज्ञ समूह, बहुपक्षीय विकास बैंकों के उभार के हरेक पहलू की व्यापक रूप से पड़ताल करेगा. इन क़वायदों में परिकल्पना, प्रोत्साहन ढांचा, परिचालन दृष्टिकोण और वित्तीय क्षमताओं की गहन जांच शामिल हैं. इनका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि MDB विभिन्न प्रकार के सतत विकास लक्ष्यों के लिए कोष उपलब्ध कराने और जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य जैसे मसलों (जिनका दायरा राष्ट्रीय सीमाओं से परे है) के निपटारे के लिए पर्याप्त रूप से तैयार रहें![x]

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की रोकथाम और अनुकूलन गतिविधियों को सहारा देने के लिए वित्त के विभिन्न स्रोतों (अंतरराष्ट्रीय, सार्वजनिक, निजी और घरेलू) को मिश्रित वित्त के नाम से जाना जाता है. मिश्रित वित्त के पीछे उद्देश्य, अतिरिक्त निजी निवेश जुटाने के लिए सार्वजनिक कोषों का भरपूर लाभ उठाना और उस निवेश को जलवायु के मोर्चे पर विशिष्टता वाली परियोजनाओं की ओर निर्देशित करना है.[xi]

विकासशील देशों के शहरों में जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने और विकास प्रक्रिया को जलवायु परिवर्तनों से संरक्षित करने को लेकर आवश्यक निवेश जुटाने के लिए मिश्रित वित्त तंत्र का तेज़ी से उपयोग किया जा रहा है. मिसाल के तौर पर इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति बेहद संवेदनशील और असुरक्षित है. जकार्ता में जलवायु के हिसाब से अनुकूल और चतुराई भरी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं (जैसे, बाढ़ रोकने वाली संरचनाओं का निर्माण और हरित क्षेत्रों का विकास) के क्रियान्वयन की क़वायद को सरकारी कोषों, निजी निवेशों और अंतरराष्ट्रीय दाताओं के मिले-जुले समूह के ज़रिए रकम मुहैया कराई गई है. इनमें एशियाई विकास बैंक और हरित जलवायु कोष जैसे संगठन शामिल हैं.[xii]

G20 को विकासशील देशों के शहरों में ऐसे वित्तीय उपकरणों के विस्तार को बढ़ावा देना चाहिए. इस सिलसिले में शहरों की विशिष्ट सीमाओं की पहचान करना और उनका निपटारा करना ज़रूरी है. इससे जलवायु के जुड़ी ख़ास कार्रवाइयों को लेकर वित्त जुटाने की उनकी क्षमताओं को तैयार करने में मदद मिल सकती है. इसके अलावा G20, ज्ञान साझा करने के लिए एक समन्वयकारी मंच के रूप में भी कार्य कर सकता है. इन क़वायदों में तमाम सदस्य देशों से मिश्रित वित्त तंत्र से संबंधित बेहतरीन तौर-तरीक़े जुटाना और उनका आदान-प्रदान शामिल हैं.

प्रस्तावित ‘नुक़सान और क्षति कोष’, विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के एजेंडे को आगे बढ़ाने का अवसर देगा. वित्तीय संसाधनों के उचित आवंटन के ज़रिए इन क़वायदों को अंजाम दिया जा सकेगा. ऐसे कोष का निर्माण जलवायु फाइनेंसिंग की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम है. हालांकि संसाधनों का संचालन और लचीले विकास को प्रोत्साहन देना बेहद अहम है.[xiii] एक ऐसे मंच के रूप में जिसमें भारत (मौजूदा अध्यक्ष) और इंडोनेशिया (पूर्व अध्यक्ष) समेत कई बड़े विकासशील देश शामिल हैं, G20 इस लक्ष्य को और आगे बढ़ा सकता है.

जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाले नुक़सान और क्षति का अनुमान लगाने की क़वायदों को मौद्रिक नुक़सान के सरल मूल्यांकन से परे जाना चाहिए. ये बात काफ़ी अहम है. मसलन बुनियादी ढांचे की बर्बादी (जैसे तटबंधों और घरों) के कारण हुए नुक़सान के आकलन की प्रक्रिया व्यापक होनी चाहिए. इकोसिस्टम सेवाओं को पहुंच रहे नुक़सान पर विचार करना भी समान रूप से महत्वपूर्ण है. नुक़सान और क्षति से जुड़े जोख़िमों की जटिलता का राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर निपटारा किया जाना चाहिए. इस कड़ी में सरकारों द्वारा विभिन्न “स्तरों” वाले वित्तीय उपकरणों का उपयोग किया जाना चाहिए. स्तरीयता भरी क़वायदों से अत्यंत संवेदनशील समूह जलवायु परिवर्तन के चलते लगने वाले हरेक झटके के बाद ख़ुद को पतन की ओर जाने से रोक सकेंगे और उनकी गतिविधियों में लचीलेपन की बढ़ोतरी सुनिश्चित की जा सकेगी. इसका मतलब है सही समय और स्थान पर, सही पहल के लिए, सही प्रकार की फंडिंग उपलब्ध कराना. आसानी से उपलब्ध, अनुकूलनीय और स्थानीय स्तर पर लक्षित तरीकों का उपयोग करके इन क़वायदों को अंजाम दिया जाना चाहिए.[xiv] राष्ट्रीय स्तर की लचीलापन प्रयोगशाला के माध्यम से ऐसा किया जा सकता है. ऐसी प्रयोगशाला संसाधनों की पहचान करने के साथ-साथ फंड से आवंटन कर सकती है.

लचीलापन प्रयोगशाला में देश के असुरक्षित समूहों, केंद्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रों (जैसे वित्त, बीमा, इंजीनियरिंग और मानवतावादी और विकास) के विशेषज्ञों को शामिल किया जाना चाहिए. इससे क्रियान्वयन के प्रमुख मुद्दों की पहचान करने और इन चुनौतियों के समाधान प्रस्तावित करने के लिए पहले ‘स्ट्रॉमैन समाधान’ का निर्माण करने में मदद मिल सकेगी. आपदा जोख़िमों को समझना, चिन्हित करना और उनका आकलन किया जाना भी आवश्यक है. डोमेन एक्सपर्ट्स द्वारा डिज़ाइन किए गए जोख़िम हस्तांतरण उपकरणों के ज़रिए ऐसा किया जा सकता है. प्रयोगशाला को टेक्नोलॉजियों, समाधानों, पायलट परीक्षण मॉडलों और नीतियों की पड़ताल करनी चाहिए. इस कड़ी में हरेक उदाहरण में लचीलेपन के लाभों को समझने के लिए वास्तविक दुनिया के मामलों का अध्ययन किया जाना चाहिए. प्रयोगशाला को आपदा से पहले और बाद की स्थितियों के प्रबंधन, फंडिंग और उनसे जुड़े वित्त पर जागरूकता पैदा करने की दिशा में काम करना चाहिए. इससे कमज़ोर समूहों के बीच आपदा के दौरान लचीलापन पैदा करने में मदद मिलेगी. बुनियादी ढांचा वित्त पर मौजूद साहित्य की ब्योरेवार समीक्षा, और वर्तमान में उपयोग में आ रहे वित्तीय उपकरणों के विश्लेषण की क़वायद, इस प्रयोगशाला की बुनियाद के तौर पर काम करेगी. ऐसी प्रक्रिया लचीलेपन से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होगी.

प्रयोगशाला का मक़सद आपदा कोष के उपयोग, प्रोत्साहनों और बीमा के साथ-साथ नए-नए तौर-तरीक़ों और तकनीकों पर पारदर्शिता को प्रोत्साहित करना होगा. आपदा के प्रति लचीलेपन के लिए निवेशों में रफ़्तार भरने को लेकर शोध के ज़रिए इसे अंजाम दिया जाएगा. यह कमज़ोर समूहों और अन्य लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने पर भी ध्यान केंद्रित करेगा. आपदा प्रबंधन और जलवायु अनुकूलन के साथ-साथ रोकथाम से जुड़ी रणनीतियों पर प्रशिक्षणों, कार्यशालाओं और गोष्ठियों के ज़रिए इसे आगे बढ़ाया जाएगा.

ख़ासतौर से विकासशील देशों में आपदा के हिसाब से लचीले बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए वित्त जुटाने की क़वायद में अनेक ख़ामियां रहती हैं. अक्सर ऐसे देशों में वित्तीय उपकरणों पर केंद्रित कोई दिशानिर्देश या नीतियां नहीं होती हैं. लचीलापन प्रयोगशालाएं इन अंतरों को पाटने में मदद कर सकती हैं. ये प्रयोगशालाएं लचीलापन बनाने के लिए विभिन्न तकनीकी नवाचारों के ज़रिए डिजिटल और भागीदारी उपकरणों के प्रयोग, GIS-आधारित मॉडलिंग और वास्तविक समय में निगरानी रखने की क़वायदों को प्रोत्साहित कर सकती हैं.

नुक़सान और क्षति कोष के जल्द ही चालू होने की उम्मीद है, और G20 सदस्यों समेत कई देशों से इस दिशा में योगदान देने की उम्मीद है. यह G20 को फंड से जुड़ी परिचर्चाओं के लिए एक मंच के रूप में काम करने और समूह के सभी सदस्य देशों के लिए आवश्यक फंडिंग के वितरण में तेज़ी लाने का अवसर देता है. लचीलापन प्रयोगशालाएं स्थापित करने में इन योगदानों का उपयोग किया जा सकता है. नुक़सान और क्षति कोष के साथ-साथ अनुकूलन फाइनेंसिंग का स्तर बढ़ाना भी एक शीर्ष लक्ष्य होना चाहिए. G20 को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि COP27 में घोषित अनुकूलन वित्त से जुड़ी नई प्रतिबद्धताएं पूरी हों!

अनेक उद्देश्य-आधारित रूपरेखाओं को विश्व स्तर पर अपनाया गया है. ये जलवायु कार्रवाइयों के प्रति उनके स्पष्ट और घोषित इरादे के आधार पर ख़र्च को टैग करती हैं.[xv] इनमें जलवायु सार्वजनिक व्यय और संस्थागत समीक्षा, रियो मार्कर्स और संयुक्त MDB गणना-प्रणाली शामिल हैं. अतीत में भारत ने चरणबद्ध जलवायु परिवर्तन प्रभाव मूल्यांकन ढांचे, जैसे मुनाफ़ों पर आधारित दृष्टिकोणों का भी परीक्षण किया है. इसमें ज़मीन पर सार्वजनिक व्यय के संभावित प्रभाव के दस्तावेज़ तैयार करने का प्रयास किया गया है. साथ ही उन्हें जलवायु को लेकर उनकी प्रासंगिकता और संवेदनशीलता के आधार पर टैग भी किया गया है.[xvi] जलवायु बजट टैगिंग, सार्वजनिक व्यय (राष्ट्रीय बजटीय व्यय) के जलवायु सह-लाभों (अनुकूलन और रोकथाम) का बुनियादी अनुमान भी उपलब्ध कराएगी. यह क़वायद वार्षिक आधार पर बजटीय आवंटन को प्राथमिकता देने में भी मदद करेगी. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की रोकथाम और अनुकूलन सह-लाभों के परिप्रेक्ष्य में ऐसा किया जा सकेगा. मिसाल के तौर पर, भारत के ओडिशा राज्य ने इस दृष्टिकोण को अपनाया है. अब राज्य विधानसभा में वार्षिक बजट चर्चा के साथ जलवायु बजट प्रक्रिया को एकीकृत कर दिया गया है. जलवायु से जुड़ी बजटीय चर्चाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए राष्ट्रीय सरकार को भी ऐसा ही लक्ष्य रखना चाहिए. सभी देशों को जलवायु बजट टैगिंग और बजटिंग को लेकर एक मानकीकृत ढांचे को अपनाने में मदद करने के लिए G20 समूह दिशानिर्देश तय कर सकता है. इससे राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु व्ययों के लिए पारदर्शिता और लेखांकन (accounting) में बढ़ोतरी होगी. साथ ही विकसित और विकासशील, दोनों प्रकार के देशों को उनके जलवायु वित्त अंतर के आधार पर जलवायु वित्त की आपूर्ति और मांग में मदद मिलेगी. जलवायु बजटिंग को लेकर पहले से ज़्यादा बारीक़ तौर-तरीक़ों के ज़रिए इनका आकलन किया जा सकता है. इससे जलवायु वित्त का योगदान करने वाले और उन्हें हासिल करने वाले, दोनों प्रकार के देशों के बीच जलवायु वित्त के वितरण से जुड़ी क़वायद में पहले से अधिक समानता भी सुनिश्चित हो जाएगी.


एट्रीब्यूशन: अनिता यादव, हिमांशी शर्मा, विवेक वेंकटरमानी, “मोबिलाइज़िंग फाइनेंस फॉर क्लाइमेट एक्शन एंड डिज़ास्टर-रेज़िलिएंट इंफ्रास्ट्रक्चर इन डेवलपिंग कंट्रीज़,” T20 पॉलिसी ब्रीफ, मई 2023.


[i] United Nations Environment Programme, Adaptation Gap Report 2022: Too Little, Too Slow – Climate adaptation failure puts world at risk, November 2022, Nairobi, UNEP, 2022.

[ii] Amrita Goldar, Diya Dasgupta, and Sajal Jain, “Financing Climate Targets: A Study of Select G20 Countries,” Asian Development Bank Institute Policy Brief 4, (September 2022): 1-16.

[iii]Introduction to Climate Finance,” United Nations Framework Convention on Climate Change, accessed May 13, 2023.

[iv]Climate Finance and the USD 100 Billion Goal ,” Organization for Economic Cooperation and Development,  accessed May 13, 2023.

[v]Scaling up Climate Finance for Emerging Markets and Developing Economies,” International Monetary Fund, February 27, 2023, accessed May 13, 2023.

[vi]Sharm El-Sheikh COP27”, UNFCCC, accessed May 13, 2023.

[vii]Explained: What is ‘loss and damage’ fund, what is India’s take on it, Business Standard, November 23, 2022.

[viii] Liane Schalatek, “Broken Promises: Developed Countries Fail to Keep Their $100 Billion Dollar Climate Pledge,Heinrich Böell Foundation, October 25, 2021, accessed May 13, 2023.

[ix] OECD, Financial Markets and Climate Transition: Opportunities, Challenges and Policy Implications (Paris: OECD, 2021), accessed May 13, 2023.

[x] Ministry of Finance Government of India, “G20 Expert Group on Strengthening Multilateral Development Banks,PIB Delhi, March 28, 2023.

[xi]Blended Finance,” OECD, accessed May 13, 2023.

[xii] Salsabila I Syalianda and Ratih D Kusumastuti, “Implementation of smart city concept: A case of Jakarta smart city, Indonesia,IOP Conference Series: Earth and Environmental Science 716, no. 1, (2021): 1-10.

[xiii]G20 An Opportunity to Focus On Climate Finance By Developing Nations,Outlook Planet, January 21, 2023.

[xiv] Clara Gallagher and Simon Addison, “Financing loss and damage: four key challenges,” Climate Change; Policy and Planning Briefing, October 2022.

[xv] World Bank Group, Climate change budget tagging: a review of international experience (Washington DC: World Bank Group, 2021), 15-30.

[xvi] Forest and Environment Department, Government of Odisha, Climate change Budget Coding in Odisha, 2018, 1-8.