2023 में भारत की G20 अध्यक्षता ‘वसुधैव कुटुंबकम’ (एक धरती-एक परिवार-एक भविष्य) के विचार पर आधारित है. भारत की G20 अध्यक्षता की कुल छह प्राथमिकताओं में से एक है, “संशोधित बहुपक्षीयवाद के लिए लगातार दबाव बनाते रहना, जो पहले से ज़्यादा जवाबदेह, समावेशी, न्यायपूर्ण, न्यायसंगत और प्रतिनिधित्वकारी बहुध्रुवीय अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तैयार करती है. यही व्यवस्था 21वीं सदी की चुनौतियों के निपटारे के लिए उपयुक्त है.”[i] ये पॉलिसी ब्रीफ़ इसी प्राथमिकता का जवाब तलाशता है. इसमें संशोधित बहुपक्षीयवाद की ज़रूरत और इस संदर्भ में G20 और उसके एक-एक सदस्य के ज़रिए निभाई जा सकने वाली भूमिका की पड़ताल की गई है. आगे इसमें संयुक्त राष्ट्र में कार्रवाई के लिए दो विशिष्ट सिफ़ारिशें प्रस्तुत की गई हैं: संयुक्त राष्ट्र संसदीय सभा का निर्माण, और वैश्विक नागरिक के संयुक्त राष्ट्र कार्यक्रमों से जुड़ा उपकरण.
अंतरराष्ट्रीय सहयोग या बहुपक्षीयवाद का एक अहम उद्देश्य है “समान लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अपने दीर्घकालिक, प्रबुद्ध राष्ट्रीय हितों का तालमेल बनाने को लेकर राज्यसत्ताओं के लिए उपकरण” के तौर पर काम करना.[ii] इनमें से कुछ लक्ष्य वैश्विक सार्वजनिक वस्तुओं से जुड़े हैं. इनमें प्राथमिकतापूर्ण आवश्यकताएं, जैसे संक्रामक बीमारियों के उभार और प्रसार की रोकथाम, जलवायु परिवर्तन से निपटना, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय स्थिरता को बढ़ाना, वैश्विक कारोबार प्रणाली को मज़बूत करना, शांति और सुरक्षा हासिल करना, और ज्ञान के निर्माण और उन्हें साझा करने से जुड़े तमाम मसले शामिल हैं.[iii] हालांकि, ये सूची यहीं तक सीमित नहीं है. राज्यसत्ताओं और उनके नागरिकों के फलने-फूलने के लिए इन वैश्विक वस्तुओं के प्रावधान आवश्यक हैं. संयुक्त राष्ट्र (UN) महासचिव की रिपोर्ट ‘हमारा साझा एजेंडा’ के मुताबिक वैश्विक तौर पर साझा मसलों (जो “राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार से परे हैं”) के साझा प्रबंधन और बचाव की अतिरिक्त रूप से आवश्यकता है. इनमें “गहरे समंदर, वातावरण, अंटार्कटिका और बाहरी अंतरिक्ष” शामिल हैं.[iv] उन्होंने आगे बताया कि वैश्विक सार्वजनिक वस्तुओं का प्रावधान और साझा वैश्विक मसलों का बचाव “धीरे-धीरे एक तात्कालिक कार्य बन गया है, जिसे हम मिलकर अंजाम दे सकते हैं. इसके बावजूद बहुपक्षीय व्यवस्था रणनीतियों, निवेशों या इसके लिए ज़रूरी सद्भाव को लेकर कमर कसकर तैयार नहीं है, जिससे हममें से हरेक संकटों के प्रति असुरक्षित रह जाते हैं.”[v] दो परिदृश्यों- ‘ब्रेकडाउन’ और ‘ब्रेकथ्रू’ के संदर्भ में वो ऐसी टिप्पणी करते हैं, जो मोटे तौर पर सरकारों के नीतिगत विकल्पों पर निर्भर करता है. पहली श्रेणी की ख़ासियत- बढ़ते भूराजनीतिक तनावों, अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के लचर प्रदर्शनों, सद्भाव की बजाए एकपक्षीयवाद की प्राथमिकता और कुल मिलाकर एक ऐसे संसार के तौर पर है जो रहने के लायक़ ना हो. जबकि दूसरी श्रेणी “बहुपक्षीयवाद के नए युग” का सूत्रधार बनती है, यानी एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय प्रणाली जो प्रभावपूर्ण रूप से और तेज़ी के साथ काम करती है, जिसमें हरेक किरदार की जवाबदेही और धरती की समृद्धि शामिल है.[vi]
सैद्धांतिक रूप से वैश्विक सार्वजनिक वस्तुओं के प्रावधान और वैश्विक तौर पर साझा मसलों का बचाव अंतिम तौर पर सबको फ़ायदा पहुंचाता है. इस तथ्य के बावजूद कई मसलों की वजह से “मांग, आपूर्ति से आगे निकलने की ताक में रहेगी”. इन वजहों में: वैधानिक रूप से बाध्यकारी नियमों की बजाए स्वैच्छिक प्रतिबद्धताओं को वरीयता देने की सरकारों की प्रवृति, अलग-अलग प्रकार के अल्प-कालिक हितों के बीच के तनाव और साझा दीर्घकालिक लक्ष्य शामिल हैं. इनके अलावा- सुस्त बैठने और दूसरों द्वारा मुहैया कराई जा रही वस्तुओं की “मुफ़्तख़ोरी करने वालों” के रूप में काम करने का प्रोत्साहन, इकलौती “कमज़ोर कड़ी” द्वारा कुछ वस्तुओं के प्रावधानों में अड़चनें डालने के जोख़िम, और पर्याप्त और वैधानिक प्रशासकीय व्यवस्थाओं का अभाव, भी इस सूची में शामिल हैं. ऐसे में मुख्य चुनौती है ‘संशोधित बहुपक्षीयवाद’ को संदर्भित करना और जीवंत बनाना, जो इन कमज़ोरियों के निपटारे की ताक़त रखती है.
बहुपक्षीयवाद को पहले से ज़्यादा जवाबदेह, समावेशी, न्यायपूर्ण, न्यायसंगत और प्रतिनिधित्वकारी बनाने की क़वायद को भारत की G20 अध्यक्षता की प्राथमिकताओं के तौर पर रेखांकित किया गया है. कुल मिलाकर ये वैधानिकता से जुड़े तमाम मसलों से संबंधित है. वैधानिकता को बढ़ावा देने का लक्ष्य न्याय और लोकतंत्र के मूल्यों और सिद्धांतों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है, और इसको केवल इन्हीं मसलों के ज़रिए न्यायोचित ठहराया जा सकता है. हालांकि, वैधानिकता और प्रभावशीलता के बीच संबंधों की वजह से यहां एक महत्वपूर्ण कार्यकारी अहमियत भी है. कोई संस्थान अपने स्टेकहोल्डर्स से भरोसे, समर्थन और सहयोग का जो स्तर हासिल करता है, वो उसके वास्तविक या आभासी वैधानिकता के साथ क़रीब से जुड़ा होता है. बिना पर्याप्त वैधानिकता के किसी संस्था को प्रतिरोध, विरोध या ग़ैर-अनुपालना का सामना करना पड़ सकता है, जो उसके इरादों और उद्देश्यों को हासिल करने की क़वायद में प्रभावी रूप बाधा डालती है.[vii]
संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने वैश्विक स्तर पर ‘भरोसे के अभाव वाली समस्या’ देखी है, इसका एक हिस्सा ये है कि “जैसे-जैसे 21वीं सदी की चुनौतियां 20वीं सदी के संस्थानों और मानसिकताओं से आगे निकलती जा रही है, वैश्विक प्रशासन में भरोसा भी नाज़ुक होता चला गया है.”[viii] संयुक्त राष्ट्र के पास दुनिया भर की राज्यसत्ताओं की लगभग सार्वभौम सदस्यता है, साथ ही उसे वैश्विक चिंताओं से जुड़े तमाम मसलों पर चर्चा का अधिकार हासिल है. लिहाज़ा संयुक्त राष्ट्र बहुपक्षीयवाद की सबसे महत्वपूर्ण संस्था है. संयुक्त राष्ट्र के चार्टर का एलान ‘वी द पीपुल्स’ के नाम से किया गया था. ये राष्ट्रीय सरकारों का विशिष्ट संघ है. इसके प्राथमिक निकाय सदस्य राष्ट्रों की कार्यपालक शाखाओं के प्रतिनिधियों से तैयार हुए हैं.[ix] हालांकि इस बात को मोटे तौर पर स्वीकार किया गया है कि वैश्विक नीतियों के क्रियान्वयन के लिए तमाम किरदारों के व्यापक समूहों की सहभागिता की ज़रूरत होती है. यक़ीनन इस वजह से UN में सार्वजनिक विश्वास और उसकी आभासी वैधानिकता का वैश्विक प्रशासन की सकल प्रभावशीलता पर मज़बूत प्रभाव है. बहरहाल, अगर संयुक्त राष्ट्र ऐसे तमाम अल्पसंख्यक और विरोधी समूहों की पर्याप्त रूप से नुमाइंदगी नहीं करता, जिन्हें उनके देश की सरकारों द्वारा अस्थायी या स्थायी रूप से किनारे कर दिया गया है, तो संयुक्त राष्ट्र की सत्ता कमज़ोर पड़ती है. इतना ही नहीं आम नागरिकों को संयुक्त राष्ट्र के विचार-विमर्शों और निर्णय लेने की प्रक्रिया से जुड़ने का अवसर देने वाला कोई तंत्र नहीं है. संयुक्त राष्ट्र की वैधानिकता को बढ़ावा देने को लेकर ये चिंता के दो प्रमुख क्षेत्र हैं.[x]
G20 और यूरोपीय संघ (EU) मिलकर दुनिया की दो-तिहाई आबादी की नुमाइंदगी करते हैं. ये समूह विश्व की कुल GDP में तक़रीबन 80 प्रतिशत और दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन और विश्व व्यापार में 75 प्रतिशत हिस्से का योगदान देता है.[xi] यूरोपीय संघ को छोड़कर (जिसका क्षेत्रीय संगठन के तौर पर विशेष दर्जा है), G20 के सभी देश संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं. प्रमुख रूप से G20 का ध्यान वैश्विक आर्थिक और वित्तीय प्रशासन का समन्वय बिठाने पर है. इस क्षेत्र और अन्य नीतिगत क्षेत्रों के बीच के अंतर-संपर्कों को ये समूह स्वीकार करता है और उसकी विशिष्ट अंतरराष्ट्रीय ज़िम्मेदारी की पहचान करता है. लिहाज़ा G20 का दायरा व्यापक हो गया है. इसमें जलवायु परिवर्तन की रोकथाम, आतंकवाद से जंग, संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों को आगे बढ़ाना, खाद्य सुरक्षा और वैश्विक स्वास्थ्य जैसे विषय शामिल हैं.
कुल मिलाकर G20 को एक बहुपक्षीय मंच के तौर पर चित्रित किया जा सकता है, जिसका लक्ष्य स्वैच्छिक नीतिगत समन्वय के ज़रिए वैश्विक सार्वजनिक वस्तुओं के प्रावधान को मज़बूत करना है. हालांकि, सरकारों के एक स्व-चयनित समूह का कोई स्थायी औपचारिक ढांचा नहीं है, ऐसे में G20 निरंतर आलोचनाओं के प्रवाहों का सामना करता आ रहा है. इसकी वैधानिकता और कार्यकुशलता अनेक प्रकारों से विवादास्पद रही है और आलोचकों ने दलील दी है कि “वैधानिकता और कार्यकुशलता में अदला-बदली के कोई सबूत नहीं हैं.”[xii]
G20 कैसे बहुपक्षीय सहभागिता की वैधानिकता बढ़ा सकता है, इसको लेकर भी तमाम विकल्प मौजूद हैं. पहला, ये समूह अपनी क्रियाओं की समीक्षा कर सकता है. ख़ासतौर से किन सरकारों और अन्य स्टेकहोल्डर्स को ये शामिल करता है और वो अपनी केंद्रीय सदस्यता से परे किसके साथ संवाद करता है. इतना ही नहीं, ये औपचारिक ढांचों और प्रणालियों की स्थापना के विकल्प भी तलाश सकता है. इनमें स्थायी सचिवालय का गठन करने और संयुक्त राष्ट्र के साथ समन्वय में सुधार करने की क़वायद शामिल है.[xiii] इस संदर्भ में कुछ प्रासंगिक क़दम उठाए भी गए हैं. इस कड़ी में लगभग 10 जुड़ाव समूहों का निर्माण शामिल है. इनमें सिविल20, पार्लियामेंट20, थिंक20 प्रमुख हैं. साथ ही केंद्रीय मुद्दों के हिसाब से शिखर सम्मेलनों के न्योतों के विस्तार का चक्रीय समूह भी इस क़वायद का हिस्सा है.
हालांकि, प्रारूप में आमूल-चूल बदलाव लाए बिना G20 सिर्फ़ इतनी ही दूरी तय कर सकता है. भले ही इस तरह के मौलिक बदलाव की निश्चित रूप से ज़रूरत है, लेकिन भारत की G20 वरीयता “संशोधित बहुपक्षीयवाद के लिए दबाव” डालने की है. ये एक ऐसी भूमिका की ओर इशारा करती है जिसमें ये समूह अपनी व्यवस्थाओं की समीक्षा से परे जाकर कार्रवाइयों को अंजाम दे सकता है. समान विचार वाले सदस्य देश G20 के प्रारूप का इस्तेमाल करके संयुक्त राष्ट्र में वैधानिकता से जुड़े बदलावों के लक्ष्य की ओर विचार मंथन कर सकते हैं और अपने क़दमों में तालमेल क़ायम कर सकते हैं. ये G20 के लिए एक ऐसे क्षेत्र में नेतृत्व और प्रभाव दिखाने का मौक़ा है, जिसकी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अनदेखी की गई है. तमाम क्षेत्रों में समन्वित नीतियों के क्रियान्वयन के लिए G20 संयुक्त राष्ट्र पर निर्भर करता है. लिहाज़ा इस संदर्भ में भी G20 को पहले से ज़्यादा वैधानिक (साथ ही अधिक प्रभावी) UN से फ़ायदा पहुंचेगा.
समावेशी वैश्विक प्रशासन को लेकर सिविल सोसाइटी के बयान को दुनिया के तमाम इलाक़ों के तक़रीबन 200 सिविल सोसाइटी संगठनों, समूहों और नेटवर्कों का समर्थन हासिल है.[xiv] इसी बयान के अनुरूप इस पॉलिसी ब्रीफ़ में G20 और G20 के समान विचार वाले सदस्यों से अंतर-सरकारी वार्ताएं शुरू करने की सिफ़ारिश की जाती है. इस क़वायद को 2024 में होने वाले संयुक्त राष्ट्र ‘भविष्य के लिए शिखर सम्मेलन’ के हिसाब से तालमेल बिठाते हुए अंजाम दिया जाना चाहिए. इस सिलसिले में (1) संयुक्त राष्ट्र संसदीय सभा (UNPA), और (2) विश्व नागरिकों के संयुक्त राष्ट्र कार्यक्रम (UNWCI) का निर्माण किया जाना चाहिए.
संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के अनुसार, एक “न्यायसंगत अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था” के लिए “आंतरिक और वैश्विक निर्णय प्रक्रिया में बिना किसी भेदभाव के सबकी हिस्सेदारी” की ज़रूरत होती है.[xv] ऊपर जिन दो संस्थानों के गठन की पेशकश की गई है, वो औपचारिक रूप से ऐसे अधिकार की स्थापना करेंगे. संयुक्त राष्ट्र का चार्टर इन दोनों संस्थानों के गठन की इजाज़त देता है और महासभा में बहुसंख्यक मतदान के ज़रिए सहायक निकायों के रूप में इनकी स्थापना की जा सकती है.
इन प्रस्तावों को और संशोधित करने और समान रुख़ों के विकास के लिए G20 के समान विचार वाले सदस्य, संयुक्त राष्ट्र के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र में ‘समावेशी वैश्विक प्रशासन के लिए मित्र समूह’ का निर्माण कर सकते हैं. इस क़वायद में सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों, सांसदों और विशेषज्ञों को नज़दीकी से जोड़ा जा सकता है.[xvi]
UNPA एक औपचारिक निकाय के तौर पर काम करेगा. ये संस्था संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के चुने हुए प्रतिनिधियों को संयुक्त राष्ट्र के मसलों पर विचार-विमर्श करने और उसमें शामिल होने का अधिकार देगी. ये प्रतिनिधि अपने स्थानीय निर्वाचकों की चिंताओं पर विचार करते हुए संयुक्त राष्ट्र में उनके लिए आवाज़ बुलंद करेंगे. हालांकि, इन प्रतिनिधियों से किसी ख़ास देश या समुदाय के हितों की वक़ालत करने की बजाए मानवता के हितों को बढ़ावा देने का आह्वान किया जाना चाहिए. इस मानसिकता को प्रोत्साहित करने के लिए UNPA के कार्यों को सियासी और प्रक्रियात्मक रूप से ऐसे अंतरराष्ट्रीय समूहों पर आधारित किया जाना चाहिए जिनकी स्थापना इसके सदस्यों ने साझा दृष्टिकोणों के हिसाब से की है. ये भूराजनीतिक क्षेत्रीय समूहों के आधार पर संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं के अंतर-सरकारी स्वरूप को ऊंचा उठाएगा और उसके पूरक के तौर पर काम करेगा.[xvii]
UNPA को हर उस मसले पर परिचर्चा का अधिकार होना चाहिए जिसे वो प्रासंगिक मानता हो. उसे संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक आबादी के सामने अपने विचार रखने चाहिए. ये अलग-अलग नज़रियों को वैश्विक मंच प्रदान करेगा, साथ ही सांसदों और नागरिकों के बीच UN की गतिविधियों के बारे में बेहतर समझ भी विकसित करेगा. इस तरह संयुक्त राष्ट्र के लिए राजनीतिक और जन समर्थन में भी मज़बूती आ सकेगी. दक्षिणी अमेरिकी देशों के संगठन मर्कोसुर की संसद पार्लासुर के मुताबिक UNPA “संयुक्त राष्ट्र, उसकी संस्थाओं, सरकारों, राष्ट्रीय संसदों, और सिविल सोसाइटी के बीच एक अहम कड़ी” के तौर पर काम कर सकता है.[xviii]
सदस्य राष्ट्रों की इच्छा के आधार पर UNPA को अनेक प्रकार की शक्तियां और गतिविधियां सौंपी जा सकती हैं. संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा सहायक संस्था के तौर पर स्थापित इस निकाय की संभावित शक्तियां ख़ुद UNGA की शक्तियों और गतिविधियों के दायरों से ही परिभाषित हो जाती हैं. UNGA के समान ही UNPA, सदस्य राष्ट्रों के आंतरिक मामलों में दख़ल नहीं देगा. यूरोपीय संसद का विचार है कि ऐसी संस्था को संयुक्त राष्ट्र की तरह ही “सूचना, हिस्सेदारी और नियंत्रण से जुड़े वास्तविक अधिकारों” से लैस होना चाहिए.[xix] पैन-अफ़्रीकी संसद के मुताबिक, इस संस्था के पास अंतर-सरकारी वार्ताओं में “हिस्सेदारी और निगरानी, ख़ासतौर से पूरी तरह से प्रतिभागी संसदीय शिष्टमंडलों को भेजने, के अधिकार होना चाहिए” और “संयुक्त राष्ट्र से संबंधित मसलों के आकलन के लिए जांच समितियों, उसके कर्मियों और उसके विशिष्ट कार्यक्रमों की स्थापना” का हक़ भी होना चाहिए.[xx]
यूरोपीय परिषद की संसदीय सभा की मिसाल के आधार पर सलाहकारी UNPA के निर्माण का प्रस्ताव सबसे पहले 1949 में किया गया था. आज कई अन्य अंतरराष्ट्रीय संसदीय संस्थानों के उदाहरणों से सबक़ लेने और उनके मूल्यांकन की क़वायद मुमकिन हो गई है. इनमें यूरोपीय संसद, पैन-अफ़्रीकी संसद, और पारलैटिनो (लैटिन अमेरिकी संसद) के साथ-साथ उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन, यूरोपीय और भूमध्यसागरीय सुरक्षा और सहयोग संगठन की संसदीय सभाएं शामिल हैं. इनके अलावा निर्गुट आंदोलन और ब्रिक्स के संसदीय नेटवर्कों के भी उदाहरण दिए जा सकते हैं. ऐसे संसदीय निकायों की उपयोगिता को सरकारों ने व्यापक रूप से पहचाना है और वो “अंतरराष्ट्रीय राजनीति की स्थापित विशिष्टताएं बन गई हैं.”[xxi] अंतर-सरकारी संगठनों की सत्ता और अधिकार को जायज़ बनाने में मदद करना इनके प्रमुख उद्देश्यों में से एक है. इस सिलसिले में UN अंतर-संसदीय संघ (IPU) के साथ सहभागिता कर रहा है, जिससे अंतरराष्ट्रीय मामलों में संसदीय आयाम मुहैया कराए जाने की उम्मीद जगी है. हालांकि IPU संयुक्त राष्ट्र की संस्था नहीं है, लिहाज़ा वो UN की वैधानिकता या जवाबदेही को आगे बढ़ाने में योगदान नहीं दे सकता. IPU और UNPA की क्रियाएं आपस में पूरक हैं, इसलिए वो आपसी तालमेल से बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं.[xxii]
UNPA के सदस्य सरकारों द्वारा नियुक्त नहीं होंगे और ना ही उन्हें सरकारों से निर्देश लेने की छूट दी जाएगी. UNPA को प्रोत्साहन देने की क़वायद में मदद के लिए 2007 में एक अंतरराष्ट्रीय सिविल सोसाइटी अभियान का गठन किया गया था.[xxiii] डेमोक्रेसी विदाउट बॉर्डर्स इस अभियान का समन्वय करने का काम करती है. उसका सुझाव है कि UNPA के प्रतिनिधियों को “सदस्य देशों की संसदों द्वारा या अगर मुमकिन हो तो उनके क्षेत्रीय संसदों द्वारा भेजा जाना चाहिए. प्रत्यक्ष चुनावों के क्रियान्वयन की क़वायद किसी भी समय संभव होनी चाहिए.”[xxiv]
एक-एक देश को आवंटित होने वाले सीटों की सटीक संख्या का निर्धारण अंतर-सरकारी वार्ताओं का विषय होगा. हालांकि इस कड़ी में घटते क्रम वाले अनुपात के सिद्धांत (principle of degressive proportionality) पर नज़र रखने की सिफ़ारिश की जाती है. इसके मुताबिक अधिक आबादी वाले देशों को कम आबादी वाले देशों के मुक़ाबले ज़्यादा सीटें हासिल होंगी, हालांकि प्रति व्यक्ति सीटों का अनुपात उल्टा होगा. अन्य मसलों के साथ-साथ ये सिद्धांत नागरिकों के प्रतिनिधित्व के संदर्भ में ज़्यादा वैधानिकता मुहैया कराता है. साथ ही निष्पक्ष रूप से छोटी और बड़ी राज्यसत्ताओं के भार को संतुलित कर पाना भी मुमकिन बन जाता है. G20 के बड़ी आबादी वाले देशों के नज़रिए से घटते क्रम वाले अनुपात पर आधारित मॉडल्स छोटे राज्यों के दबदबे वाले मसले का निपटारा करते हैं. संयुक्त राष्ट्र के निकायों (जैसे महासभा) में वोटिंग के भार और प्रतिनिधित्व के संदर्भ में ऐसा देखने को मिलेगा. जनसंख्या के आकार से परे संयुक्त राष्ट्र के हरेक सदस्य के पास 0.51 प्रतिशत का वोट शेयर है. इस तरह G20 के देशों के वोट की कुल ताक़त 9.84 प्रतिशत होती है. UNPA में G20 के सीटों का हिस्सा और वोटिंग की ताक़त और ज़्यादा होगी. टेबल 1 में दो संभावित मॉडल्स के ज़रिए G20 के सदस्य राष्ट्रों को आवंटित सीटों की संख्या दर्शाई गई है.[xxv] मॉडल A में संयुक्त राष्ट्र के हरेक सदस्य राष्ट्र को दो सीटें आवंटित की जाती हैं, इसके साथ जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से 414 अतिरिक्त सीटें नियत की गई हैं, इसमें तक़रीबन कुल 800 सीटें रखी गई हैं. मॉडल B में किसी देश के सीटों की संख्या प्रति 10 लाख के हिसाब से उसकी आबादी का स्क्वॉयर रूट यानी वर्गमूल होता है. इस सिलसिले में कम से कम दो सीटें आवंटित करने का नियम तय है. दोनों ही मॉडलों को पूर्ण किए जाने की ज़रूरत होती है. कुल मिलाकर मॉडल B समतल वितरण की ओर ले जाती है, लिहाज़ा वो ज़्यादा संतुलित लगते हैं. ये G20 के सभी सदस्य राष्ट्रों को UNGA के मुक़ाबले ज़्यादा मज़बूती वाले वोटिंग भार मुहैया कराते हैं.
टेबल 1: घटते क्रम वाले अनुपात के सिद्धांत के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र में G20 के हरेक सदस्य के हिसाब से UN संसदीय सभा में सीटों के संभावित आवंटन
मॉडल A | मॉडल B | ||||
G20/UN सदस्य राष्ट्र | जनसंख्या का हिस्सा (%) | सीटों की संख्या | सीटों का हिस्सा (%) | सीटों की संख्या | सीटों का हिस्सा (%) |
अर्जेंटीना | 0.59 | 4 | 0.5 | 7 | 0.8 |
ऑस्ट्रेलिया | 0.33 | 3 | 0.4 | 5 | 0.6 |
ब्राज़ील | 2.77 | 13 | 1.6 | 14 | 1.6 |
कनाडा | 0.49 | 4 | 0.5 | 6 | 0.7 |
चीन | 18.44 | 78 | 9,8 | 37 | 4.3 |
फ़्रांस | 0.89 | 6 | 0.8 | 8 | 0.9 |
जर्मनी | 1.10 | 7 | 0.9 | 9 | 1.1 |
भारत | 17.91 | 76 | 9.6 | 37 | 4.3 |
इंडोनेशिया | |||||
इटली | 0.80 | 5 | 0.6 | 8 | 0.9 |
जापान | 1.68 | 9 | 1.1 | 11 | 1.3 |
दक्षिण कोरिया | 0.68 | 5 | 0.6 | 7 | 0.8 |
मेक्सिको | 1.67 | 9 | 1.1 | 11 | 1.3 |
रूस | 1.91 | 10 | 1.3 | 12 | 1.4 |
सऊदी अरब | 0.45 | 4 | 0.5 | 6 | 0.7 |
दक्षिण अफ़्रीका | 0.77 | 5 | 0.6 | 8 | 0.9 |
टर्की | 1.09 | 7 | 0.9 | 9 | 1.1 |
यूके | 0.88 | 6 | 0.8 | 8 | 0.9 |
संयुक्त राज्य अमेरिका | 4.33 | 35 | 4.4 | 18 | 2.1 |
G20 (EU |
अगर कुछ शर्तें पूरी हो जाती हैं तो UNWCI का उपकरण व्यक्तियों को संयुक्त राष्ट्र महासभा, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) (या अगर सचमुच UNPA की स्थापना हो जाती है तो उसके भी) के एजेंडे और निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित करने का औपचारिक तंत्र मुहैया कराएगा.[xxvi] दुनिया भर के कई देशों में नागरिकों से जुड़े पहल की सहभागिता से जुड़े उफकरण स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर अस्तित्व में हैं.[xxvii] यूरोपीय संघ के भीतर यूरोपीय नागरिकों की पहल को लिस्बन संधि में शामिल किया गया और ये 2012 में प्रचालन में आ गया. प्रस्तावित UNWCI एजेंडा तय करने वाला उपकरण होगा जो तीन प्रक्रियागत क़दमों का पालन करता है: (1) व्यक्तिगत पहल की शुरुआत, (2) हस्ताक्षरों का संग्रहण, और (3) प्रस्तुति और प्रतिक्रिया. वैसे तो इसके ब्योरों पर चर्चा अभी बाक़ी है, फिर भी ये उपकरण कैसे काम करेगा इसकी झलक नीचे दी गई है.[xxviii]
शुरुआती चरण में व्यक्तिगत कार्यक्रम शुरू करने के इच्छुक नागरिकों को निश्चित रूप से एक संगठन समिति की स्थापना करनी चाहिए. इसमें दुनिया के अलग-अलग इलाक़ों से कम से कम दस व्यक्तियों को शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि इस पहल को वैश्विक हित से जुड़े मसलों का प्रदर्शन करना होगा. संयुक्त राष्ट्र द्वारा सुरक्षा परिषद की 10 ग़ैर-स्थायी सीटों को क्षेत्रीय समूहों के बीच आवंटित किए जाने की प्रक्रिया के साथ भौगोलिक प्रतिनिधित्व की ज़रूरत का तालमेल स्थापित किया जा सकता है. संगठन समिति इसका मसौदा इस प्रकार तैयार करेगी ताकि सैद्धांतिक रूप से उसे उसी रूप में अपनाया जा सके. वो इसके बाद आधिकारिक मान्यता के लिए इसे संयुक्त राष्ट्र में जमा कराएगा. महासभा या सुरक्षा परिषद के कार्यक्षेत्र के तहत सभी मसले इसके योग्य होंगे. बहरहाल संयुक्त राष्ट्र के आम उद्देश्यों का उल्लंघन करने वाले प्रस्ताव इसमें शामिल नहीं होंगे. इन उद्देश्यों का ब्योरा UN चार्टर के आर्टिकल 1 में दिया गया है. इनमें अन्य बातों के साथ-साथ मानव अधिकारों का सम्मान करना भी शामिल है. अगर किसी प्रस्ताव को अयोग्य क़रार दे दिया जाता है तो संगठन समिति को उस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करने का अधिकार हासिल होगा.
अगले क़दम में ये पहल एक सुरक्षित ऑनलाइन मंच पर हस्ताक्षर के लिए खुली होगी, जिसे संयुक्त राष्ट्र के पक्ष से संचालित किया जाएगा. इसमें अनुमोदन के लिए सभी मौजूद कार्यक्रमों को सूचीबद्ध किया जाएगा. आधिकारिक वेबसाइट आदर्श रूप से हर भाषा में उपलब्ध होनी चाहिए. इसमें इस उपकरण के कामकाज को लेकर दिशानिर्देश दिए जाएंगे. साथ ही ये बताया जाएगा कि किसी कार्यक्रम को कैसे शुरू किया जाएगा. साथ ही लिखित में हस्ताक्षरों को संग्रहित करना और इस मंच से जोड़ना भी मुमकिन होना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र के राष्ट्रीय दफ़्तरों, सरकारों और सिविल सोसाइटी समूहों को संपर्क बिंदुओं की स्थापना करनी चाहिए ताकि नागरिक साक्षात रूप से भी सलाह प्राप्त कर सकें. हस्ताक्षरों की सत्यता प्रमाणित करने वाली प्रणाली स्थापित किए जाने की दरकार होगी. किसी पहल को तब कामयाब समझा जा सकता है जब वो अपनी समाप्ति से पहले दुनिया भर के लोगों से सापेक्षिक और पूर्ण तादाद में साक्षात्कार आकर्षित कर सके. ये प्रस्ताव किया गया है कि किसी कार्यक्रम को तभी कामयाब समझा जाना चाहिए जब, (1) 18 महीनों के भीतर ये (2) संयुक्त राष्ट्र के कम से कम दस सदस्य राष्ट्रों में से हरेक की 0.5 प्रतिशत आबादी का समर्थन हासिल कर ले. जैसा कि पहले ज़िक्र किया जा चुका है ये तमाम देश संयुक्त राष्ट्र के द्वारा परिभाषित क्षेत्रों में फैले होने चाहिए, और (3) कम से कम कुल 50 लाख लोगों के हस्ताक्षर जुटाए जाने चाहिए.[xxix]
एक बार जब कोई पहल कामयाब हो जाए तो उसके विषय के आधार पर तीन महीनों के भीतर उसे या तो महासभा या सुरक्षा परिषद के एजेंडे में जोड़ दिया जाएगा. संगठन समिति के प्रतिनिधियों को साक्षात रूप से ऐसे कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने का अधिकार हासिल होना चाहिए. आगे चलकर महासभा या सुरक्षा परिषद को तीन संभावित परिणामों से निपटना होगा: मसौदा प्रस्ताव को उसी स्वरूप में अपनाया जा सकता है, संशोधन के साथ स्वीकारा जा सकता है या ख़ारिज किया जा सकता है. UNWCI की इस प्रणाली के क्रियान्वयन और प्रबंधन के लिए संयुक्त राष्ट्र को एक प्रशासनिक कार्यालय की स्थापना करनी होगी.
एट्रीब्यूशन: एंड्रिएस बुमेल और थॉमस पोगे, “इनहैंसिंग द लेजिटिमेसी ऑफ़ मल्टीलैटरलिज़्म: टू इनोवेटिव प्रपोज़्ल्स फ़ॉर द यूएन,” T20 पॉलिसी ब्रीफ़, मई 2023.
ENDNOTES
[i] “Press Release of the Ministry of External Affairs,” Press Information Bureau, Government of India,
December 10, 2022, accessed May 11, 2023,
https://pib.gov.in/PressReleaseIframePage.aspx?PRID=1882356.
[ii] International Task Force on Global Public Goods, Meeting Global Challenges: International
Cooperation in the National Interest. Final Report (Stockholm, Sweden, 2006), x.
[iii] International Task Force, Meeting Global Challenges, x, xii–xxi.
[iv] United Nations, “Our Common Agenda: Report of the Secretary-General,” 2021, 48.
[v] United Nations, “Our Common Agenda” 48.
[vi] United Nations, “Our Common Agenda” 15–16.
[vii] International Task Force, Meeting Global Challenges, x–xi.
[viii] António Guterres, “Address to the General Assembly, New York,” September 25, 2018,
https://gadebate.un.org/sites/default/files/gastatements/73/unsg_en.pdf.
[ix] Andreas Bummel, “Representation and Participation of Citizens at the United Nations: The
Democratic Legitimacy of the UN and Ways to Improve It,” in How Democracy Survives, ed. Michael
Holm and R.S. Deese (London and New York: Routledge, 2023), 158–75.
[x] Clara Brandi, “Club Governance and Legitimacy: The Perspective of Old and Rising Powers on the
G7 and the G20,” South African Journal of International Affairs 26, no. 4 (October 2, 2019): 685–702.
[xi] Stefan A. Schirm, “The G20, Emerging Powers, and Transatlantic Relations” (German Marshall Fund
of the United States, May 2011).
[xii] Daniele Archibugi, “The G20 Ought to be Increased to 6 Billion,” openDemocracy, March 31, 2009,
https://www.opendemocracy.net/en/the-g20-ought-to-be-increased-to-6-billion/.
[xiii] Olivier Giscard d’Estaing, “A Role for Parliaments and Civil Society,” in The G20 Cannes Summit
2011: A New Way Forward, ed. John Kirton and Madeline Koch (Newsdesk Media Group and G20
Research Group, 2011), 258–59.
[xiv] For the statement and a full list of endorsing groups see: “Call for inclusive global governance”, We
The Peoples, Democracy Without Borders in collaboration with Democracy International, accessed
May 11, 2023, https://www.wethepeoples.org/.
[xv] United Nations, “Promotion of a Democratic and Equitable International Order” (UN Doc.
A/RES/77/215, December 15, 2022), para. 6 (h). See also A/RES/76/165 and A/RES/75/178 of
December 16, 2020, and previous resolutions.
[xvi] Bummel, “Representation and Participation”.
[xvii] Maja Brauer and Andreas Bummel, A United Nations Parliamentary Assembly: A Policy Review of
Democracy Without Borders (Berlin: Democracy Without Borders, 2020),
https://www.democracywithoutborders.org/files/DWB_UNPA_Policy_Review.pdf.
[xviii] Parlamento del Mercosur, “Apoyo al Establecimiento de Una Asamblea Parlamentaria de Las
Naciones Unidas” (MERCOSUR/PM/SP/DECL. 01/2011, December 2, 2011).
[xix] European Parliament, “European Parliament Resolution on the Reform of the United Nations”
(P6_TA(2005)0237, June 6, 2005).
[xx] Pan-African Parliament, “A United Nations Parliamentary Assembly” (Resolution adopted at the
8th Ordinary Session, Midrand, South Africa, October 24, 2007).
[xxi] Jofre Rocabert et al., “The Rise of International Parliamentary Institutions: Purpose and
Legitimation,” The Review of International Organizations 14, no. 4 (December 1, 2019): 607–31.
[xxii] Andreas Bummel, “The Case for a UN Parliamentary Assembly and the Inter-Parliamentary Union”
(Democracy Without Borders, 2019),
https://www.democracywithoutborders.org/files/DWBIPUAB.pdf.
[xxiii] “Campaign for a United Nations Parliamentary Assembly”, Democracy Without Borders, accessed
May 11, 2023, https://www.unpacampaign.org.
[xxiv] Brauer and Bummel, A United Nations Parliamentary Assembly, 5.
[xxv] Brauer and Bummel, A United Nations Parliamentary Assembly, 80–92.
[xxvi] James Organ and Ben Murphy, A Voice for Global Citizens: A UN World Citizens’ Initiative
(Democracy Without Borders, Democracy International, CIVICUS: World Alliance for Citizen
Participation, 2019), https://www.worldcitizensinitiative.org/files/unwci_study.pdf.
[xxvii] “Direct Democracy Navigator”, Legal Design Filter, Code Instrument ‘Citizen Initiative’,
Liechtenstein Institute, accessed May 11, 2023, https://direct-democracy-navigator.org/legal-
design-filter.
[xxviii] Organ and Murphy, A Voice for Global Citizens.
[xxix] Organ and Murphy, A Voice for Global Citizens, 53–55.