विकासशील देशों के ‘विकास’ के लिए पैसों का जुगाड़ करो!

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) पैसों के एक पूल या फिर लेन-देन की ऐसी व्यवस्था कर सकता है, जो जलवायु परिवर्तन की घटनाओं या वैश्विक जोख़िम से जुड़े हों. रेटिंग एजेंसियों को भी इस बात के प्रति संवेदनशील बनाना होगा कि ये उत्पाद किस तरह उभरते हुए बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (EMDE) का जोख़िम कम कर सकते हैं.
Ashima Goyal

विकास के लिए आवश्यक वित्त को लेकर लगाए गए अनुमान बहुत विशाल हैं. ख़ासतौर से तब और जब हम जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ढालने और जोख़िम कम करने के प्रयासों को भी उसमें जोड़ लेते हैं. इन कामों के लिए उपलब्ध वैश्विक पूंजी तो ऊंट के मुंह में ज़ीरे से भी कम है. और, इसमें से भी 80 प्रतिशत रक़म विकसित अर्थव्यवस्थाओं (AEs) के खाते में चली जाती है. और, जो छोटा सा हिस्सा उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (EMDEs) के हिस्से में आता भी है, वो चार गुना अधिक महंगा होता है.

अगर हम सही समय पर ठोस क़दम नहीं उठाते हैं, तो सारे देशों को कष्ट सहना पड़ेगा, क्योंकि समय बड़ी तेज़ी से बीतता जा रहा है. तो EMDE देशों के लिए मदद की पूंजी की मात्रा बढ़ाना और उसकी लागत घटाना और ये सुनिश्चित करना कि कार्रवाई हो रही है, वो वैश्विक जनहित की सबसे फौरी ज़रूरत है.

अगर हम सही समय पर ठोस क़दम नहीं उठाते हैं, तो सारे देशों को कष्ट सहना पड़ेगा, क्योंकि समय बड़ी तेज़ी से बीतता जा रहा है. तो EMDE देशों के लिए मदद की पूंजी की मात्रा बढ़ाना और उसकी लागत घटाना और ये सुनिश्चित करना कि कार्रवाई हो रही है, वो वैश्विक जनहित की सबसे फौरी ज़रूरत है. वातावरण में मौजूद ज़्यादातर कार्बन उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की देन है. निष्पक्षता और इन देशों के पास अधिक संसाधन होने को देखते हुए चाहिए कि वो दरियादिली से इसमें योगदान दें. लेकिन, हर साल विकासशील देशों को एक ख़रब डॉलर की रक़म उपलब्ध कराने का बुनियादी वादा तक पूरा नहीं किया जा रहा है. इसे याद दिलाते रहना ज़रूरी है. लेकिन, दिक़्क़त ये है कि कोविड-19 महामारी से निपटने और अपने नागरिकों की सहायता के लिए विकसित देशों ने भारी तादाद में क़र्ज़ ले रखा है. इससे विकासशील देशों को किया गया मदद का वादा पूरा होने की उम्मीद और भी कम हो जाती है. संसाधन जुटाने के लिए वैश्विक वित्तीय लेन-देन कर की चर्चा तो बहुत दिनों से हो रही है. हो सकता है कि वित्त क्षेत्र धरती को बचाने में योगदान देने के लिए तैयार हो जाए.

मात्रा

इस वक़्त दुनिया का ध्यान विश्व बैंक जैसे बहुपक्षीय विकास बैंकों (MDBs) पर टिक गया है, जिनका काम ही विकास के लिए पूंजी उपलब्ध कराना है. समस्या की विशालता और त्वरित आवश्यकता को देखते हुए, ये संगठन बहुत कम ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं. अधिक कुशल पूंजी उपयोग (जिसमें IMF के स्पेशल ड्रॉइंग राइट्स शामिल हैं), आविष्कार, सूचना के इस्तेमाल, निजी पूंजी हासिल करने के लिए जोख़िम कम करने और पूंजी में वृद्धि करने जैसे कई विचार हैं, जिससे ये संगठन, विकासशील देशों को पूंजी उपलब्ध कराने में बढ़ोत्तरी कर सकते हैं. मिसाल के तौर पर G20 को पिछले साल सौंपी गई MDB पूंजी पर्याप्तता की रूपरेखा पर एक रिपोर्ट ने ये निष्कर्ष निकाला था कि अगर बहुपक्षीय विकास बैंक अपनी अनूठी शक्तियों जैसे कि वरीयता प्राप्त क़र्ज़दाता के दर्जे और जुटाई जा सकने वाली पूंजी को ध्यान में रखें, तो पूंजी के इस्तेमाल और इसकी लागत को बढ़ाने से जुड़े जोख़िम 14 गुना कम हो जाते हैं.

 

कार्यान्वयन

 

 

लागू करने का काम लटका हुआ है. लेकिन, इसकी संभावनाएं बेहतर हुई हैं. पहला तो बदलाव के लिए काफ़ी दबाव बनाया जा चुका है. फौरी ज़रूरत को भी महसूस किया जा रहा है. और ये बात भी सबकी समझ में आ गई है कि अगर बहुपक्षीय विकास बैंकों को प्रासंगिक रहना है तो उन्हें क़दम उठाने होंगे. अन्यथा वो क्षेत्रीय और राष्ट्रीय विकास बैंकों द्वारा किए जा रहे क्षेत्रीय आविष्कारों के आगे पस्त हो जाएंगे. कामयाब उदाहरण और केस स्टडी तो ख़ूब उपलब्ध हैं और उनकी मात्रा में वृद्धि करके अपनाया जा सकता है. इस मामले में भारत की G20 अध्यक्षता दबाव बढ़ाने में काफ़ी असरदार हो सकती है, जिससे कुछ नतीजे निकल सकें.

तक़नीक से सूचना और विकास के मानक सुधारे जा सकते हैं. और, तक़नीक ऐसे वित्त को बढ़ावा देने के जोख़िम कम कर सकती है. बहुपक्षीय विकास बैंकों की वारंटी के ज़रिए उनके हिसाब किताब को कई बार संतुलित किया जा सकता है.

दूसरा अब अधिक संसाधन जुटाने से ज़्यादा संसाधनों को अधिक प्रभावी ढंग से इस्तेमाल करने को लेकर राजनीतिक प्रतिरोध भी कम है. इसीलिए, G20 का पूंजी का कुशलता से इस्तेमाल करने का समझौता होने की संभावना अधिक है. कम से कम ये वित्तीय वादे पूरे करने की दिशा में उठने वाला एक छोटा क़दम तो होगा.

 

तीसरा बहुपक्षीय विकास बैंक (MDB) शेयरधारकों और बोर्ड द्वार चलाए जाते हैं. अगर G20 एक समझौते पर पहुंचता है तो शेयरधारक देशों के बीच भी समझौता हो जाएगा. अगर इसको बोर्ड का समर्थन भी मिल जाता है, तो बदलाव ज़रूर होंगे. छोटी अवधि में प्रक्रियाएं बदलने, उपयोग की प्रक्रिया आसान बनाने, प्रबंधन के प्रोत्साहन में सुधार करने और बोर्ड द्वारा नए लक्ष्यों की निगरानी जैसे छोटे मगर स्पष्ट रूप से परिभाषित सुधारों को आगे बढ़ाया जा सकता है.

 

प्रशासन में आवश्यक बदलाव और कोटे की हिस्सेदारी जैसे बड़े ज़रूरी सुधार लंबे समय से अटके पड़े हैं. इसके लिए लगातार प्रयास, धैर्य और EDME देशों के नज़रिए का इस्तेमाल करने को ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका की आने वाली G20 अध्यक्षता के दौरान भी आगे बढ़ाया जा सकता है.

 

चौथा वित्तीय क्षेत्र में तक़नीक नई संभावनाओं के द्वार खोलती है. भारत डिजिटल सार्वजनिक मूलभूत ढांचे से जुड़े अपने आविष्कारों को साझा करना चाहता है. ऐसे मानक स्थानीय परियोजनाओं की जानकारी दे सकते हैं, जो आंकड़ों को API के माध्यम से एक दूसरे से साझा करने और संवाद करने को सहज बनाते हों.

 

पूंजी के अधिकतम विस्तार और इस्तेमाल के बावजूद MDB अनुमानित ज़रूरत का एक मामूली हिस्सा भर पूरा कर पाएंगे. इसीलिए ये आवश्यक है कि निजी क्षेत्र और दानदाताओं के ज़रिए पूंजी जुटाई जाए. तक़नीक से सूचना और विकास के मानक सुधारे जा सकते हैं. और, तक़नीक ऐसे वित्त को बढ़ावा देने के जोख़िम कम कर सकती है. बहुपक्षीय विकास बैंकों की वारंटी के ज़रिए उनके हिसाब किताब को कई बार संतुलित किया जा सकता है. इसे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय विकास बैंकों द्वारा वैश्विक पहुंच को बढ़ाकर पूरा किया जा सकता है. इस वक़्त इन संस्थानों के बीच बहुत कम तालमेल है. नए वित्तीय संसाधन जैसे कि मिली जुली पूंजी, हाईब्रिड पूंजी, क़र्ज़ और शेयर बाज़ार की संरचनाएं, पोर्टफोलियो बीमा और मानक आधारित कार्बन बाज़ारों को प्रोत्साहन दिया जा सकता है. जलवायु परिवर्तन से निपटने में कई तरह के आविष्कारों ने सबसे अधिक प्रगति की है और इनमें आगे भी अच्छे नतीजे देने की काफ़ी संभावनाएं हैं.

 

लागत

 

 

लेकिन अगर वित्त की लागत बहुत अधिक है, तो इसका कोई ख़ास इस्तेमाल नहीं हो सकेगा.

 

मानक, वारंटी और EDME की परियोजनाओं से जुड़ी जानकारी सुधारने वाले समन्वय से लागत कम की जा सकती है. उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को अपने कॉरपोरेट प्रशासन, क़ानूनी और हिसाब किताब की व्यवस्थाओं को सुधारते हुए व्यापक आर्थिक जोख़िम कम करने होंगे. बहुत से EMDE ने ऐसा किया भी है, ख़ास तौर से 90 के दशक में पूर्वी एशियाई आर्थिक संकट के बाद से. लेकिन, अभी भी जोख़िम को लेकर सोच और रेटिंग एजेंसी के ग्रेड इन सुधारों के अनुपात में नहीं सुधरे हैं. कुछ उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को क़र्ज़ चुकाने में फौरन रियायत देने की ज़रूरत है. अघर भारत के राज्य बिजली के वितरण पर काम कर लें तो वो ऊर्जा क्षेत्र को लक्ष्य करके भारी मात्रा में हरित पूंजी हासिल कर सकते हैं.

.उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को अपने कॉरपोरेट प्रशासन, क़ानूनी और हिसाब किताब की व्यवस्थाओं को सुधारते हुए व्यापक आर्थिक जोख़िम कम करने होंगे. बहुत से EMDE ने ऐसा किया भी है, ख़ास तौर से 90 के दशक में पूर्वी एशियाई आर्थिक संकट के बाद से.

लागत की एक बड़ी वजह मुद्रा के विनिमय की दर का जोख़िम होती है. लेकिन, EDME देशों में विनिमय दर की ज़्यादातर उठा-पटक वैश्विक कारकों और उनके सीमा के आर-पार पूंजी प्रवाह पर प्रभाव की वजह से होती है. स्रोत देश द्वारा उचित नियमन से मुद्रा के विनिमय दर की उठा-पटक को शांत किया जा सकता है. गिरवी रखने को एक समाधान के तौर पर सुझाया ज़रूर जाता है. मगर ये आम तौर पर बहुत सीमित समय के लिए उपलब्ध होता है और महंगा विकल्प भी होता है. समस्या कुछ ख़ास देशों के जोख़िमों के हिसाब से मुद्रा की क्षमता में गिरावट को लेकर पैदा होती है. लेकिन, आंकड़ों में ये बात शायद ही कभी नज़र आती हो. इसके लिए पोर्टफोलियो बीमा जैसे उत्पाद तैयार करके आसानी से उपलब्ध कराए जाने चाहिए. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष स्वैप लाइन और पूलिंग को भी उपलब्ध करा सकता है जो स्वत: ही वैश्विक जोख़िम या जलवायु परिवर्तन की घटनाओँ से जुड़े हों. रेटिंग एजेंसियों को भी इस बात के प्रति अधिक संवेदनशील बनाने की ज़रूरत है कि किस तरह ये उत्पाद, EDME के जोख़िम को कम कर देते हैं.


लेखिका  वैश्विक वित्तीय ढांचे को नए सिरे से गढ़ने पर T20 टास्क फोर्स 5 की अध्यक्ष हैं.


ये लेख मूल रूप से इकोनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित हुआ था.