टास्क फोर्स 7 टूवर्ड्स रिफॉर्म्ड मल्टीलेटरिज्म: ट्रांसफॉर्मिंग ग्लोबल इंस्टीट्यूशंस एंड फ्रेमवर्क
विश्व व्यापार संगठन (WTO) की स्थापना करने वाले समझौते की प्रस्तावना में विकासशील देशों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता को पहचाना गया है कि वे “अपने आर्थिक विकास की आवश्यकताओं के अनुरूप अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में हिस्सेदारी सुरक्षित कर सकते हैं.” WTO का अंतर्निहित एजेंडा इस पृष्ठभूमि में डिजाइन किया गया था. लेकिन, इस एजेंडा की आंशिक और असंतोषजनक पूर्ति ने विकासशील देशों में निराशा को बढ़ाया है.
विकासशील देशों में व्यापार और विकास की संभावनाओं को अवरुद्ध करने वाले WTO के नियम बनाने, उनके कार्यान्वयन और विवाद-निपटान कार्यों को प्रभावित करने वाले प्रणालीगत मुद्दों की पहचान कर उनकी व्यापक समीक्षा करना बेहद अहम हो गया है. ऐसा होने पर WTO के कामकाज में साक्ष्य-आधारित और व्यावहारिक समझौते वाले एक विकासोन्मुखी दृष्टिकोण को पुनर्जीवित करने और संभवतः संस्थागत बनाना संभव हो सकेगा.
भारत की G20 अध्यक्षता एक विकास-अनुकूल WTO के लिए सुधारात्मक हस्तक्षेप करने का अवसर प्रदान करती है. ऐसा होने पर ही विकासशील देशों को उनके लिए आवश्यक विशेष और अलग-अलग प्रावधानों से और ठोस लाभ प्राप्त करने का मौका मिल सकेगा.
WTO के पहले जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ्स एंड ट्रेड्स (GATT) एक दूसरे के सहारे आश्रित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बहाल करने की ज़रूरत के कारण उत्प्रेरित हुआ था. इसके परिणामस्वरूप, इसके उद्देश्यों को मुख्य रूप से आर्थिक दृष्टिकोण रखकर स्वीकार किया गया था. [a] लेकिन, GATT के विपरीत, WTO (मारकेश एग्रीमेंट) की स्थापना के समझौते की प्रस्तावना आर्थिक लाभ की प्राप्ति से आगे आर्थिक लाभ के वास्तविक वितरण तक जाती है. WTO के अंतर्निहित एजेंडे की पृष्ठभूमि के रूप में, यह विकासशील देशों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता को पहचानता है कि वे “अपने आर्थिक विकास की आवश्यकताओं के अनुरूप अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में हिस्सेदारी सुरक्षित कर सकते हैं.”
हालांकि, इसके अंतर्निहित एजेंडे पर हुआ असंतोषजनक अमल और WTO के उद्देश्यों और उनकी उपलब्धि के बीच की खाई ने विकासशील दुनिया में अनेक लोगों को निराश किया है. इसके अलावा, भले ही विकासशील देश WTO के विभिन्न समझौतों के तहत दायित्वों को लागू करने और व्यापार से लाभ प्राप्त करने के लिए आवश्यक क्षमता के साथ संघर्ष करते नज़र आते हैं, इसके बावजूद इस सदी की मांगों के अनुसार उन्हें अद्यतन करने में विफ़लता से विभिन्न नियमों की वज़ह से पैदा होने वाली असमानता और बढ़ती दिखाई दे रही है.
उदाहरण के लिए, डिजिटल व्यापार पर बहुपक्षीय मार्गदर्शन की कमी ने डिजिटल गवर्नेंस के व्यापक टुकड़े करने में योगदान दिया है. इसके चलते डिजिटल विभाजन बढ़ा है और इसने उभरती तकनीक को अपनाने और उनका लाभ उठाने की देशों की ‘कैचिंग अप’ यानी दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलने की संभावनाओं को प्रभावित किया है.
WTO के नेतृत्व में व्यापार उदारीकरण की गति – एक बहुपक्षीय और गैर-भेदभावपूर्ण प्रकृति वाली – में आयी मंदी और राजनीतिक और भू-राजनीतिक विचारों का व्यापार संबंधी नीति में बढ़ने वाला प्रभाव साथ-साथ और तेजी से बढ़ने लगे थे. व्यापार संबंधी नीतियों को लेकर चले इस दुष्चक्र ने भू-राजनीति को व्यापार के मुकाबले तवज़्जो देने के विभिन्न देशों के फ़ैसलों ने बहुपक्षीय सहमति-निर्माण को बाधित किया है. इसके कुछ उदाहरण के रूप में चीन-US के बीच चल रहे व्यापार युद्ध के कारण रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप अथवा इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क जैसे विवादास्पद रूप से विरोधी व्यापार समूहों या समूहों के निर्माण को देखा जा सकता है. इसके अलावा, COVID-19 महामारी, यूक्रेन संघर्ष, और जलवायु संकट के जवाब में एकतरफा नीतिगत उपायों से परिलक्षित अधिक आर्थिक अनिश्चितता जोख़िम से बचने की प्रवृत्ति को बढ़ाती है, जिसके परिणामस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वाणिज्य में अधिक संरक्षणवाद और विखंडन देखने को मिलता है.
इस पर विचार करें: सरकार के अगुवाई वाली और उदार पूंजीवाद की अलग-अलग आर्थिक व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए मौजूदा बहुपक्षीय नियमों की उपयुक्तता की धारणा में अंतर के कारण WTO के विभिन्न सदस्य इसकी शिकायत कर रहे हैं. विभिन्न क्षेत्रों में सरकारी स्वामित्व वाले उद्यमों को सरकार की ओर से दिए जा रहे उच्च स्तरीय समर्थन और संरक्षण के चलते उच्च स्तर के प्रतिस्पर्धा-रोधी प्रभावों पर वैध चिंताओं के जवाब में, कुछ सदस्य बराबरी का मुकाबला करने करने के लिए सब्सिडी जैसे मसलों पर WTO के दायरे से बाहर तीखे नियम बना रहे हैं. [b]
वैश्विक डेवलपमेंट उद्देश्यों को बेहतर ढंग से प्राप्त करने के लिए WTO में सुधार पर आम सहमति बनाने के लिए G20 को एक मंच बनना चाहिए. इसके सदस्यों के रूप में प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं (व्यापक भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक विविधता के साथ) के साथ, G20 को व्यापार और विकास पर बहस में सबसे आगे रहना ज़रूरी है. इसी प्रकार, सदस्य देश भी WTO में अपने से संबंधित वार्ता गठबंधन को भी प्रभावित कर सकते हैं.
यह प्रस्तावित है कि संबंधित WTO समितियों और कार्य समूहों के एजेंडे को G20 के भीतर, एक बेहतर संस्थागत तरीके से पूरक किया जाना चाहिए. WTO की समितियों और कार्य समूहों विशेष रूप से व्यापार, ऋण और वित्त, और व्यापार और तकनीक के हस्तांतरण से संबंधित कार्य, G20 समूहों के एजेंडे को निर्देशित करने में प्रासंगिक हो सकता है. WTO के सदस्यों को G20 कार्यकारी समूह तकनीकी सहायता प्रदान करने में भी सहयोग कर सकते हैं, जिससे उन्हें व्यापार और डेवलपमेंट सहित WTO की समितियों में अधिक प्रभावी ढंग से शामिल होने का अवसर मिलेगा. इसमें क्रॉस-कटिंग एजेंडा के रूप में डेवलपमेंट के साथ समझौता वार्ता, संस्थागत सुधार और विवाद निपटान से जुड़े इनपुट शामिल हो सकते हैं.
इसके अलावा, WTO के सुधारों के लिए समर्थन और वैधता बढ़ाने के लिए विभिन्न हितधारकों के बीच जागरूकता और जुड़ाव में इज़ाफ़ा होना भी अहम है. यह जागरूकता और जुड़ाव विशेषत: घरेलू नागरिकों के बीच होना चाहिए, जो व्यापार उदारीकरण को संदेह की दृष्टि से देखा करते हैं.
G20 इंगेजमेंट ग्रुप (जैसे कि Think20, Business20, और Civil20) निजी क्षेत्र, नागरिक समाज संगठनों और अन्य गैर-सरकारी हितधारकों में क्षमता निर्माण के लिए योजनाएं तैयार कर सकते हैं. इसी प्रकार वे इन हितधारकों से हुई बातचीत के आधार पर ऐसी चुनौतियों की पहचान करने और उनका समाधान ख़ोजने की कोशिश कर सकते हैं, जो संभवत: आमतौर पर नीति निर्माताओं की दृष्टि में स्पष्ट रूप से नहीं आ सकती हैं.
वैश्विक व्यापार नियमों के प्रमुख मॉनिटर और मध्यस्थ के रूप में WTO की भूमिका महत्वपूर्ण बनी हुई है. अत: 12वें WTO मंत्रिस्तरीय सम्मेलन, और G20 की बाली घोषणा द्वारा इसे मज़बूती प्रदान करने से उत्पन्न गति को आगे बढ़ाने के लिए, G20 सदस्यों को संगठन के कामकाज को सीमित करने वाले विभिन्न प्रणालीगत मुद्दों पर आम सहमति बनानी चाहिए.
तथाकथित ‘ट्रैफिक-लाइट’ दृष्टिकोण से प्रेरित, अनुशंसित हस्तक्षेप WTO के कुछ मूलभूत सिद्धांतों, या ‘रेड लाइट’ मुद्दों की ओर इशारा करते हैं, जिन्हें संस्थागत कार्यक्षमता के लिए फिर से देखा जाना चाहिए. इसमें सभी सदस्य देशों को और विशेषतः विकासशील देशों को प्रभावित करने वाले अन्य सुधारों पर बातचीत की अनिवार्य शर्त शामिल होनी चाहिए. इसके परिणामस्वरूप, स्पेशल एंड डिफरेंशियल ट्रीटमेंट (S&DT) प्रावधानों को “सटीक, प्रभावी और ऑपरेशनल” बनाने के लिए ‘एम्बर-‘ और ‘ग्रीन-लाइट’ जैसे मुद्दों पर विभिन्न सिफ़ारिशें की गई हैं.
मारकेश समझौते के अनुसार, सदस्यों को GATT के तहत स्वीकृत आम सहमति से निर्णय लेने की प्रथा को जारी रखना चाहिए. तदनुसार, यदि बैठक में उपस्थित कोई सदस्य औपचारिक रूप से प्रस्तावित निर्णय पर आपत्ति नहीं करता है, तो सर्वसम्मति से निर्णय लिया जाता है.
आम सहमति संबंधी यह नियम अनेक फ़ायदे प्रदान करता है. महत्वपूर्ण रूप से, निर्णयों की वैधता को बढ़ाकर उनकी निष्पादन क्षमता में इज़ाफ़ा करता है. यह सभी सदस्यों के हाथों में वीटो के रूप में काफ़ी शक्ति भी प्रदान करता है. यह आश्चर्य की बात नहीं है कि एक बड़ी सदस्यता, जटिल नियम और आसानी से प्रयोग योग्य वीटो के साथ आम सहमति बनाने की संभावना काफ़ी कम ही होती है.
फिर भी, सर्वसम्मति के अभाव की सभी को भारी कीमत चुकानी पड़ती है. और इस कीमत में लगातार वृद्धि हो रही है. उदाहरण के लिए, एक निष्क्रिय विवाद निपटान तंत्र के कारण WTO के विवादों में बंद व्यापार का मूल्य, दोहा डेवलपमेंट एजेंडा के गैर-निष्कर्ष से जुड़ी अवसर लागत, और सब्सिडी जैसे मामलों में सब-ऑप्टिमल यानी उप-इष्टतम द्विपक्षीय या क्षेत्रीय व्यवस्थाओं को आगे बढ़ाने के कल्याण से जुड़ी लागत, जहां बात हाथ से निकलने लगे तो बहुपक्षीय मानदंडों का उपयोग करते हुए इससे बेहतर अंदाज में निपटा जा सकता है. इन मुद्दों को हल करने के लिए सर्वसम्मति के नियम के पुनर्मूल्यांकन की ज़रूरी है.
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए सदस्यों को मारकेश समझौते के आर्ट IX में प्रदान किए गए मतदान के अब तक के निष्क्रिय विकल्प का उपयोग करने पर पुनर्विचार करना चाहिए. सदस्य अब तक एक ऐसी कोई भी मिसाल कायम करने के ख़िलाफ़ रहे हैं जो निर्णय लेने के एकमात्र तरीके के रूप में आम सहमति का उपयोग करने की मौजूदा प्रथा को नष्ट कर सकती है. हालांकि, WTO के वार्ता, विवाद निपटान और निगरानी के तीन स्तंभों की पवित्रता पर असर डालने वाले मामलों में सदस्यों को “सर्वसम्मति नियम” के दायरे से ऐसे निर्णयों को अलग कर देना चाहिए . इसके साथ ही सदस्यों को इस स्थिति का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांतों की ख़ोज करनी चाहिए.मतदान की आवश्यकता के लिए एक सिचुएशन बेस्ड यानी स्थिति-आधारित तथा टाइम-बाउंड यानी समयबद्ध ट्रिगर यह सुनिश्चित करेगा कि कोई भी सदस्य अकेले, व्यक्तिगत रूप से, उस स्थिति को अपनाने से रोक नहीं पाएगा, जिस स्थिति ने अपीलेट बॉडी क्राइसिस को उत्पन्न किया था.
सबसे अहम बात यह है कि किसी सदस्य द्वारा की गई किसी भी आपत्ति में कम से कम वह कानूनी और तथ्यात्मक आधार होना चाहिए जिस पर यह आपत्ति आधारित है. ऐसा होने पर ही WTO में पारदर्शिता और पूर्वानुमेयता को बढ़ाते हुए आम सहमति की आवश्यकता के दुरुपयोग को रोका जा सकेगा.
यहां उल्लेखनीय है कि GATT के दौरान 1947 और 1994 के बीच आठ दौर की वार्ता हुई थी. उस वक़्त नियम पुस्तिका को आम सहमति की आवश्यकता के बावजूद लगातार अपडेट किया गया था. यह आंशिक रूप से इसलिए संभव हुआ था क्योंकि उस वक़्त भले ही विकासशील देशों को मोस्ट फेवर्ड यानी सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र के आधार पर विभिन्न प्रतिबद्धताओं में किए गए विस्तार का लाभ मिला था, लेकिन इस विस्तार से लाभान्वित होने वाले देशों पर समान रियायतें देने को लेकर कोई बाध्यता नहीं थी. एक निश्चित सामान्य उद्देश्य-अधिक कानूनी निश्चितता के साथ मुक़्त व्यापार-और लचीलेपन के बीच इस संतुलन ने WTO की स्थापना और उसे मिली प्रारंभिक सफ़लता के लिए पर्याप्त गति पैदा की थी. इस प्रकार, भले ही WTO के अंतर्निहित एजेंडे के वादे को दोहा डेवलपमेंट एजेंडा पूरा करना चाहता है, लेकिन इस तथ्य को देखते हुए कि यह महत्वाकांक्षाओं के मामले में अभूतपूर्व उरुग्वे दौर से आगे निकल गया है, ऐसा समझौता करने की ज़रूरत है जो इन बाधाओं को दूर करने का काम कर सके.
वर्तमान में, WTO के सदस्य बहुपक्षीय वार्ता करके एक समान संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं – एक ऐसा दृष्टिकोण जिसमें पूर्ण सदस्य शामिल नहीं होते. स्थिरता, ई-कॉमर्स, निवेश सुविधा और यहां तक कि विवाद निपटान (मल्टी-पार्टी इंटरिम अपील आर्बिट्रेशन अरेंजमेंट) के मुद्दों को कवर करने के लिए ऐसी अनेक पहल शुरू की गई है.
कुछ सदस्य इन संयुक्त वक़्तव्य पहलों को व्यवस्था को उदार करने के वाले साधन के रूप में देखते हैं. जबकि अन्य सदस्य उन्हें WTO के बहुपक्षीय आधार से की जा रही गैर कानूनी छेड़छाड़ मानते हैं. हालांकि, प्रक्रिया और परिणाम के बीच अंतर किया जाना चाहिए. नए नियम बनाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए आम सहमति एक पूर्व शर्त नहीं है. कोई भी सदस्य केवल परिणाम को ही स्वीकार या उसका विरोध सकता है. इस अंतर को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए ये ज़रुरी है कि WTO सदस्य दूसरों द्वारा वांछित प्रगति को अवरुद्ध न करें, और इसके साथ ही ये भी देखा जाए कि वह अपनी इच्छा के विरुद्ध नए दायित्वों से बंधा हुआ न रहे.
इसके परिणामस्वरुप, यदि सदस्य चाहे तो वे परिणामों के लिए प्रक्रिया और इसके परिणाम दोनों को अधिक समावेशी बनाकर बहुपक्षीय समझौतों के बहुपक्षीयकरण के रास्ते को सुगम बनाकर इसे सभी की नज़रों में वैधता दिलवा सकते हैं. उस हद तक सिद्धांतों का एक समूह या आचार संहिता तैयार की जा सकती है. अन्य बातों के अलावा, संहिता में यह आवश्यक होना चाहिए कि इस मामले में महत्वपूर्ण रुचि वाले सदस्यों द्वारा बहुपक्षीय समझौतों का समर्थन किया जाए. इसी प्रकार अगर कोई इसमें बाद के चरण में शामिल होने के इच्छुक हो तो सभी सदस्यों के लिए इसके दरवाजा खुले रहें.
US, कनाडा और EU जैसे विकसित देशों और क्षेत्रों ने S&DT का लाभ उठाने के लिए विकासशील देशों द्वारा सेल्फ- डेज़िग्नेशन की प्रथा में संशोधन का उन्नत प्रस्ताव रखा है. ये देश इनके बदले में वस्तुनिष्ठ मानदंडों को लागू करना चाहते हैं, जो कम से कम विकसित देशों (LDC) पर लागू होते है. इसके जवाब में, अनेक विकासशील देश पात्रता संबंधी इस तरह के स्तरीकरण का विरोध करते हुए इस बात पर बल देते हैं कि S&DT एक बिना शर्त और संधि-अंतर्निहित अधिकार का गठन करता है जो उन्हें वैश्विक व्यापार प्रणाली में सार्थक रूप से एकीकृत करने के लिए महत्वपूर्ण है. विकास को बढ़ावा देने और समग्रता सुनिश्चित करने के लिए S&DT की निरंतर प्रासंगिकता पर विकासशील देशों द्वारा जारी हालिया बयान में विभिन्न मात्रात्मक और गुणात्मक संकेतकों के संदर्भ में महत्वपूर्ण और बढ़ती असमानताओं को उजागर किया है. [c]
फिर भी, विकासशील देशों को एकीकृत करने और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने पर S&DT के प्रभाव पर विचार करते समय, इन देशों, सूरीनाम जैसे बहुत कम प्रति व्यक्ति आय वाले देशों से लेकर बहुत अधिक आय वाले देशों जैसे सिंगापुर, के बीच विविधता की विस्तृत श्रृंखला को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है. इन सभी देशों को तकनीकी रूप से S&D प्रावधानों तक पहुंचने का समान अधिकार है, लेकिन उनके आर्थिक प्रदर्शन, ज़रूरतें और क्षमताएं काफ़ी भिन्न हैं. S&DT पात्रता के किसी भी संशोधन का विरोध करके, विकासशील देश बहस में बारीकियों और निष्पक्षता को पेश करने के अवसरों को भी छोड़ रहे हैं.
एक स्तर पर, WTO पहले से ही इसे स्वीकारते हुए LDC को विशेष रियायत देता है. अब, मौजूदा वन-साइज-फिट्स-ऑल वाले दृष्टिकोण का विकल्प ख़ोजने के लिए समान तर्क को विविध रूप से स्थित विकासशील देशों के बड़े पूल तक बढ़ाया जाना चाहिए.
WTO में लचीलेपन के एक और प्रदर्शन की जांच की जा सकती है. WTO ट्रेड फेसिलिटेशन एग्रीमेंट विकासशील देशों और LDC को उनकी प्रतिबद्धताओं और कार्यान्वयन कार्यक्रम को निर्धारित करने की अनुमति देता है. ऐसा दृष्टिकोण भविष्य के समझौतों के आधार के रूप में काम कर सकता है. बहुपक्षीय समझौते भी जहां तक इस तरह के लचीलेपन को शामिल कर करेंगे, तब तक ऐसे समझौतों के आर्थिक विकास के विभिन्न स्तरों के साथ असंगत होने संबंधी वैध शिकायत पर ध्यान देकर उनका हल निकाला जा सकता है.
कुल मिलाकर, विभिन्न आवश्यकताओं और क्षमताओं को सर्वोत्तम रूप से पूरा करने के लिए एक अनुबंध-से-समझौता-आधारित मानदंड- और यहां तक कि जब आवश्यक हो, प्रावधान-से-प्रावधान-आधारित मानदंड- का उपयोग किया जाना चाहिए. उदाहरण के लिए, ऐसे विकासशील देश, जो शिकायत करते हैं कि संक्रमणकालीन अवधि उनकी विशेष विकास आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त है, इन देशों के लिए उनकी घरेलू क्षमता और विनियामक विचलन के वस्तुनिष्ठ आकलन के आधार पर स्तरीय समय-सीमा कार्यान्वयन या विस्तार पर विचार किया जा सकता है.
दोहा घोषणा के अनुच्छेद 44 में WTO के सदस्यों ने WTO के समझौतों में S&DT प्रावधानों को मज़बूती प्रदान कर उन्हें प्रभावी बनाकर संचालित करने को लेकर अपनी प्रतिबद्धतता की पुष्टि की थी. WTO नियम पुस्तिका के भीतर S&DT संबंधी प्रावधानों के मुद्दों में उनकी “सर्वश्रेष्ठ प्रयास” प्रकृति के साथ-साथ उनके अपर्याप्त दायरे और गहराई भी शामिल हैं, जहां ये प्रावधान लागू होते हैं. जब विकसित देशों को समग्र रूप से बेहतर उपचार प्राप्त होता है, तब ऐसे कुछ मामलों में, “रिर्वर्सड् S&DT” या घोर अनुचितता उत्पन्न होती है. उदाहरण के लिए, कृषि पर WTO समझौते में, जो ऐतिहासिक उपयोग के आधार पर व्यापार-विकृत सब्सिडी को सीमित करता है. ऐसे में एक ओर जहां इसका लाभ उठाने से विकासशील देशों को वंचित रखा जाता है, वहीं उनके विकसित समकक्षों को इस नीति में मौजूद ख़ामी अथवा स्पेस का लाभ उठाने का अवसर मिल जाता है. तदनुसार, S&DT प्रावधानों को सटीक, प्रभावी और ऑपरेशनल बनाने के लिए कुछ सिफ़ारिशें निम्नलिखित हैं.
WTO नियम पुस्तिका में प्रतिबद्धताओं का लचीलापन महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह WTO सदस्यों के बीच क्षमता और प्राथमिकता में विविधता को समायोजित करता है. उदाहरण के लिए, सेवाओं में जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड इन सर्विसेज (GTAS) द्वारा प्रदान किया गया लचीलापन विकासशील देशों को उनकी विशिष्ट विकासात्मक आवश्यकताओं के लिए अपनी प्रतिबद्धताओं को अनुकूलित करने का अवसर प्रदान करता है. इसमें विदेशी प्रतिस्पर्धा के लिए कुछ क्षेत्रों को खोलना, कुछ प्रकार के लेन-देन को उदार बनाना और धीरे-धीरे बाज़ार तक पहुंच बढ़ाना शामिल है. यह लचीलापन विकासशील देशों को विदेशी सेवा आपूर्तिकर्ताओं पर ऐसी शर्त लगाने की भी अनुमति देता है जो GATS के अनुच्छेद IV में उल्लिखित उनके विकासात्मक उद्देश्यों के अनुरूप हों.
WTO के भीतर दोष रेखाओं को पैदा करने वाले भू-राजनीतिक तनावों को कम करने के लिए विकासात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से घरेलू नीतियों का आकलन करते समय लचीलेपन के उपयोग को बढ़ाना एक व्यावहारिक विकल्प है. विशेष रूप से, चीन की WTO सदस्यता ने उस बाज़ार उन्मुख आर्थिक मॉडल को चुनौती दी है जिस पर WTO के नियम आधारित हैं. इस संबंध में, नॉन-वायोलेशन क्लॉज यानी गैर-उल्लंघन खंड (एक ऐसा प्रावधान जो एक सदस्य देश को किसी अन्य सदस्य देश को अपनी प्रतिबद्धताओं के कथित गैर-अनुपालन के कारण अनुचित लाभ प्राप्त करने से रोकने के लिए कार्रवाई करने की अनुमति देता है) इस गतिरोध का समाधान प्रदान कर सकता है. यह एक ऐसे समझौते की सुविधा प्रदान करता है जहां सदस्यों को स्पष्ट रूप से WTO-अनुरूप व्यापार नीतियों को निर्धारित करने की आवश्यकता नहीं होती है और फिर भी वे चीन के कथित प्रणालीगत उल्लंघनों का हल हासिल कर सकते हैं. इस बीच, चीन के पास अपने बाज़ारों तक पहुंच के वादे के स्तर की गारंटी देने के सर्वोत्तम तरीके का निर्धारण करने की स्वायत्तता बनी रहेगी.
यह देखते हुए कि बाज़ार तक पहुंच और आर्थिक विकास के बीच के संबंध को सहक्रियात्मक माना जाता है, यह अक्सर अपने एंड्स यानी लक्ष्य (विकास) के साथ मीन्स यानी साधनों (व्यापार उदारीकरण) का संगम ही करवाता है. इसलिए, मल्टीलेटरल ट्रेडिंग सिस्टम और WTO के लक्ष्यों को पुष्टि करना महत्वपूर्ण है, ताकि निर्यात-आधारित विकास के लिए व्यापार उदारीकरण का एक साधन के रूप में उपयोग करते हुए विकासात्मक लक्ष्यों तक पहुंचा जा सके.
इसलिए, इसमें विकासशील देशों में विनिर्माण और निर्यात को बढ़ावा देने के लिए विकसित देशों द्वारा टैरिफ और औद्योगिक उपकरणों पर विचार करना शामिल है. मसलन, विकासशील देशों को व्यापार से लाभ प्राप्त करने के लिए, उन देशों को रिवर्स-टैरिफ एस्कलेशन प्रोसेस द्वारा मूल्यवर्धन के लिए पुरस्कृत किया जाना चाहिए. [d]
इसके अलावा, S&DT जुड़े उपकरणों- द जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रेफरेंस (GSP) और एड फॉर ट्रेड (AFT) का भी आकलन किया जाना चाहिए और उनके निर्माण और कार्यान्वयन से जुड़ी सर्वोत्तम प्रथाओं को G20 देशों द्वारा अपनाने के लिए साझा किया जाना चाहिए ताकि उनकी प्रभावशीलता में वृद्धि हो सके. उदाहरण के लिए, जैसा कि जापानी GSP योजना के लाभार्थियों के अनुभव से अनुमान लगाया गया है कि ऐसे कार्यक्रम सबसे ज़्यादा प्रभावी तब होते हैं जब वे ट्रान्सपेरेन्ट एक्सक्लूजन के माध्यम से कवरेज में सरलता और स्थिरता प्रदान करते हैं और एकतरफा रूप से वापस लेने या संशोधित करने की गारंटी देते हैं. तदनुसार, नियमों में बदलाव के बारे में पर्याप्त नोटिस, अनुपालन के बोझ को कम करके प्रक्रियाओं को अधिक सुलभ बनाना, उत्पत्ति के नियमों को सरल बनाकर नियामक प्रभाव आकलन जैसे साक्ष्य-समर्थित निगरानी की व्यवस्था को लागू किया जा सकता है.
AFT के संबंध में, हितधारकों के बीच प्रभावी समन्वय सुनिश्चित करते हुए स्थानीय स्वामित्व और विश्वास का निर्माण करने वाली – उदाहरण के लिए, जहां संभव हो, गैर-बाज़ार संस्थानों जैसे कि नागरिक समाज और विश्वास-आधारित संगठनों के साथ जुड़कर- जैसी अच्छी नियामक प्रथाओं [e] की वकालत की जानी चाहिए. महत्वपूर्ण रूप से, निवेश को कवर करने के लिए AFT के दायरे का विस्तार करके और इस तरह के निवेश संबंधी निर्णय लेने के लिए साक्ष्य-आधारित ढांचे की एंकरिंग करके, G20 देश निरंतर, समावेशी और स्थायी आर्थिक विकास, पूर्ण और उत्पादक रोज़गार के लक्ष्यों और सभी के लिए अच्छा काम को बढ़ावा दे सकते हैं.
एट्रीब्यूशन : प्रदीप एस. मेहता et al., “इस्टैब्लिशिंग अ कंसेंसस ऑन डेवलपमेंट: ऑन G20-लेड WTO रिफॉर्म्स,” T20 पॉलिसी ब्रीफ, मई 2023.
[a] The preamble of the GATT 1947 states: “Recognizing that their relations in the field of trade and economic endeavour should be conducted with a view to raising standards of living, ensuring full employment and a large and steadily growing volume of real income and effective demand, developing the full use of the resources of the world and expanding the production and exchange of goods, Being desirous of contributing to these objectives by entering into reciprocal and mutually advantageous arrangements directed to the substantial reduction of tariffs and other barriers to trade and to the elimination of discriminatory treatment in international commerce…”
[b] For example, the EU, the US, and Japan agree on new ways to strengthen global rules on industrial subsidies. However, the EU and the US have been criticised for relying on similar policy instruments and discriminatory strategies such as industrial subsidies and friend-shoring to increase competitiveness. For instance, the US Inflation Reduction Act and the EU Green Deal Industrial Plan have set apart massive green incentives, subsidies, and grants for businesses.
[c] For instance, GDP per capita, poverty levels, levels of under-nourishment, production and employment in the agriculture sector, trade in services, receipts from IPR, share of trade in value-added under GVCs, energy use per capita, financial infrastructure, R&D capacity, company profits, and a range of institutional and capacity constraints.
[d] The phenomenon wherein the applicable tariff on final products is lower than those on intermediary goods, thus incentivising the exporting nation to invest more in processing and exporting finished goods.
[e] Good regulatory practices are tools, processes, and strategic approaches that can help governments identify and evaluate the trade impacts of their regulatory action. For more, see: Robert Basedow and Céline Kauffmann, International Trade and Good Regulatory Practices: Assessing the Trade Impacts of Regulation (Organisation for Economic Cooperation and Development [OECD], 2016).
[1] WTO Agreement: Marrakesh Agreement Establishing the World Trade Organization, Apr. 15, 1994, 1867 U.N.T.S. 154, 33 I.L.M. 1144 (1994)
[2] Patrick Low, “The WTO in Crisis: Closing the Gap between Conversation and Action or Shutting Down the Conversation?”, World Trade Review 21, no. 3, (July 2022):274
[3] Faizel Ismail, WTO reform and the crisis of multilateralism: A Developing Country Perspective (South Centre, 2020); Faizel Ismail, Reforming the World Trade Organization: Developing Countries in the Doha Round, (CUTS International, 2009)
[4] Simon J. Evenett and Johannes Fritz, Emergent Digital Fragmentation: The Perils of Unilateralism (CEPR Press, 2022)
[5] Fangfei Jiang, “An Analysis of the Indo-Pacific Economic Framework (IPEF): Essence, Impacts and Prospects,” (Institute of World Economics and Politics, Chinese Academy of Social Sciences, April 2023)
[6] “Ministerial Statement on WTO Reforms”, Ministerial Conference: Twelfth Session, World Trade Organization, last modified June 14, 2022.
[7] “Ministerial Declaration“, Ministerial Conference: Fourth Session, World Trade Organization, last modified November 20, 2001.
[8] Pradeep Mehta and Sneha Singh, “Back to the drawing board: WTO reform requires a reassessment of its fundamentals“, The Economic Times, July 20, 2022.
[9] Pradeep Mehta and Sneha Singh, “Back to the drawing board: WTO reform requires a reassessment of its fundamentals“, The Economic Times, July 20, 2022.
[10] Hamid Mamdouh, “Plurilateral Negotiations and Outcomes in the WTO“, Friends of Multilateralism, April 16, 2021.
[11] Peter Draper and Memory Dube, Plurilaterals and the Multilateral Trading System (International Centre for Trade and Sustainable Development (ICTSD) and World Economic Forum, 2013)
[12] “An Undifferentiated WTO- Self-Declared Development Status Risks Institutional Relevance: Communication from the United States“, General Council, World Trade Organization, last modified January 16, 2019.
[13] “The Continued Relevance of S&DT in Favour of Developing Members to Promote Development and Ensure Inclusiveness“, General Council, World Trade Organization, last modified March 4, 2019.
[15] “The Continued Relevance of S&DT in Favour of Developing Members to Promote Development and Ensure Inclusiveness“, General Council, World Trade Organization, last modified March 4, 2019.
[16] Hearing on U.S Tools to Address Chinese Market Distortions, Before the U.S.-China Economic and Review Security Commission, WTO General Council, (2018) (Jennifer Hillman, Professor from Practice, Georgetown University Law Center)
[17] Robert W. Staiger, A World Trading System for the Twenty-First Century, (National Bureau of Economic Research (NBER), 2021)
[18] “Making trade a tool for poverty amelioration in the 21st Century”, Documents, CUTS International, last modified September 9, 2012,
https://cuts-citee.org/pdf/Making_trade_a_tool_for_poverty_amelioration_in_the_21st_Century.pdf
[19] Sam Laird, A Review of Trade Preference Schemes for the World’s Poorest Countries (International Centre for Trade and Sustainable Development, 2012)
[20] Simon N’gona and Cornelius Dube, Aid for Trade and Economic Development: A Case Study of Zambia (CUTS International, 2012).
[21] “Prioritizing SPS Investments for Market Access (P-IMA),” Prioritizing SPS Investments for Market Access (P-IMA), Standards and Trade Development Facility, last modified on 2016.