पूरी दुनिया जिस प्रकार के तमाम तरह के संकटों में घिरी हुई है और उनसे जूझ रही है, उनका स्वभाव और स्वरूप पहले के संकटों को मुक़ाबले मूलभूत रूप से दो तरीक़ों से अलग है. पहला, जलवायु परिवर्तन की वजह से सामने आने वाले, परस्पर प्रभाव डालने वाले और आपस में जुड़े हुए संकटों का एक साथ घटित होना. ऐसे संकटों ने एक नई गतिशीलता को जन्म दिया है, जो कि बहुत चुनौतीपूर्ण है. दूसरा, मानव द्वारा पैदा किए गए संकट हैं, जो कि संसाधनों के अत्यधिक उपयोग के ज़रिए आर्थिक वृद्धि हासिल की मंशा के कारण सामने आए हैं. इसकी वजह से असमानता, पर्यावरणीय विनाश और सामाजिक विघटन एवं अशांति पैदा हुई है. इस सबने एक प्रकार से विश्व को तबाही के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है, ऐसे में हम ‘जो जैसा चल रहा है, वैसा चलने देते हैं’ की विचारधारा के साथ आगे नहीं बढ़ सकते हैं. विकास के इस असमान और गैर-टिकाऊ रास्ते से खुद को बाहर निकालने के लिए प्रगति के अधिक निष्पक्ष, न्याय सम्मत, स्थाई और टिकाऊ मार्ग को अपनाना बेहद ज़रूरी है. भारत ने अपनी मौज़ूदा G20 अध्यक्षता के लिए एक थीम के तौर पर ‘पर्यावरण के लिए जीवन शैली, लचीलापन और सुख-समृद्धि के लिए मूल्यों’ का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है. इस उद्देश्य के लिए थिंक टैंक 20 (T20) के अंतर्गत टास्क फोर्स 3 का गठन किया गया है. ज़ाहिर है कि लोगों के व्यक्तिगत व्यवहार और बर्ताव में परिवर्तन लाने के लिए टास्क फोर्स के दिशा-निर्देशों को वैश्विक स्तर पर बहुपक्षीय एजेंसियों एवं संस्थाओं की नीतियों एवं कार्य पद्धति में बदलाव के साथ एकीकृत करने की आवश्यकता होगी. टी20 द्वारा इस लिहाज़ से विचार हेतु निम्नलिखित तीन प्रस्ताव या कहा जाए कि सुझाव पेश किए गए हैं.
बर्बादी और तबाही की कगार पर पहुंच गई दुनिया को बचाने के लिए देशों की सरकारों को कोविड महामारी के पश्चात अपनाए गए नीतिगत उपायों के दीर्घकालिक प्रभाव को सुनिश्चित करने के लिए केवल रिकवरी हासिल करने हेतु बदलाव की कोशिशों से आगे बढ़ना चाहिए. इसके लिए तत्काल ज़रूरत इस बात की है कि एक ऐसे विकास मॉडल की तरफ परिवर्तन को बढ़ाया जाए, जो न केवल निष्पक्षता, तटस्थता, समानता और स्थिरता के बुनियादी मूल्यों का सम्मान करता हो, बल्कि जो आर्थिक विकास को लोगों की सुख-समृद्धि और कल्याण सुनिश्चित करने की दिशा में एक माध्यम के रूप में देखता हो. मानव विकास मॉडल समानता और टिकाऊपन को मूलभूत मूल्य मानता है. निष्पक्षता या समानता में विकल्प के तौर पर स्वतंत्रता और अवसरों के दायरे में पीढ़ियों के भीतर और पीढ़ियों के बीच, दोनों तरह की समानता शामिल हैं. जहां तक स्थिरता या टिकाऊपन की बात है तो यह पर्यावरण से जुड़े आयामों से परे हैं और इसमें आर्थिक व सामाजिक आयाम भी शामिल हैं. इसके अतिरिक्त, यह ठोस और मज़बूत स्थिरता के विचार का अनुसरण करता है, जो ‘महत्वपूर्ण प्राकृतिक पूंजी’ के संरक्षण को बेहद ज़रूरी मानता है. यह कमज़ोर स्थिरता के विचार के बिल्कुल उलट है, जिसमें प्राकृतिक और भौतिक पूंजी को एक दूसरे के विकल्प के तौर पर माना जाता है.
देखा जाए तो देशों की राष्ट्रीय सरकारों द्वारा मानव विकास के नज़रिए से जुड़े विभिन्न अवयवों को पहले से ही सामाजिक क्षेत्रों को लेकर अपने दृष्टिकोण में या फिर ग़रीबी उन्मूलन और ‘कल्याणकारी’ उपायों को कार्यान्वित करने में इस्तेमाल किया जा रहा है. हालांकि, ये पहले से ही मौज़ूद विकास मॉडल को उलटने के उनके अप्रत्यक्ष प्रभावों को संबोधित करने का काम करते हैं. इस आधे-अधूरे और दुविधा से भरे नज़रिए को निश्चित तौर पर बदलना होगा, क्योंकि कल्याणकारी उपाय तब तक सफलता हासिल नहीं कर सकते हैं, जब तक व्यापक आर्थिक नीतियां नव-उदारवादी ढांचे में ढलती रहेंगी और असमानताओं एवं गैर-टिकाऊ या अस्थिर नतीज़ों को सामने लाना जारी रखेंगी. ऐसे में ज़रूरत सभी तरह की नीतियों को नियंत्रित करने और उन्हें लागू करने में समानता व स्थिरता के बुनियादी मूल्यों को अपनाने की है, फिर चाहे वो नीतियां मौद्रिक हों, वित्तीय हों या फिर इनकम आदि से जुड़ी हुई हों. ऐसा करना इसलिए भी आवश्यक है ताकि नीतियों में न केवल पीढ़ियों के भीतर, बल्कि पीढ़ियों के बीच विचारों सहित ‘पुनर्वितरण संबंधी लोक नीति’ की विशेषता शामिल हो. यह सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) और एजेंडा 2030 की उपलब्धि को सक्षम बना सकता है, जो कि मौज़ूदा वक़्त में तमाम तरह के संकटों की वजह से डांवाडोल हो रहा है और कमज़ोर हो गया है.
उपरोक्त बातों का अनुसरण करते हुए, LiFE की अनिवार्यताओं के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि प्राकृतिक पूंजी का संरक्षण पहली प्राथमिकता हो. इसे वास्तविकता में ढालने के लिए ऑपरेशन के स्तर पर, ऐसी मानदंडों और मूल्यांकन की प्रणाली को अपनाना आवश्यक है, जो प्राकृतिक पूंजी के संरक्षण और उसे बहाल करने को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है. मौज़ूदा वक़्त में ज़्यादातर डोनर्स एवं अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों द्वारा लागत और लाभ के विश्लेषण में उपयोग किए जाने वाले मानदंड, जिन्हें परियोजना के चयन और मूल्यांकन के लिए एक ‘वैज्ञानिक’ तरीक़ा माना जाता है, उन मानदंडों में 3-7 प्रतिशत के बीच छूट दरों का उपयोग करते हैं, ताकि या तो पूंजी की अवसर लागत या फिर छूट की सामाजिक दर को प्रदर्शित किया जा सके. यह लंबी अवधि की परियोजनाओं को लेकर एक प्रणालीगत पूर्वाग्रह को सामने लाने का काम करता है, ज़ाहिर है कि पर्यावरण और पारिस्थितिक बहाली की प्रक्रिया आम तौर पर 50 साल या उससे भी ज़्यादा वक़्त तक चलने वाली प्रक्रिया है. इसलिए यह अनिवार्य है कि पर्यावरण की बहाली और LiFE को प्रभावित करने वाले पहलुओं से संबंधित परियोजनाओं के लिए नेट ज़ीरो ग्रीन हाउस उत्सर्जन की ओर बढ़ने के लिए ज़ीरो छूट या लगभग ज़ीरो छूट दरों को अपनाने के लिए व्यापक स्तर पर सहमति बनाई जाए और इसके लिए समुचित क़दम उठाए जाएं.
व्यक्तियों से अलग, समाज पर भावी पीढ़ियों के हितों का पालन-पोषण करने की प्रमुख ज़िम्मेदारी होती है. लगभग-ज़ीरो छूट दरों को अपनाने से, भावी पीढ़ियों के हितों के प्रति व्यवस्थापरक और सुनियोजित पूर्वाग्रह बेअसर हो जाता है. इसके अलावा, लागत-लाभ विश्लेषण एक ऐसा साधन है, जो हाशिए के लोगों से संबंधित निर्णयों के लिए तो उचित है, लेकिन पूरी सोसाइटी से संबंधित निर्णयों के लिए प्रासंगिक नहीं है. यही वजह है कि मौज़ूदा अस्तित्व संकट के संदर्भ में इस पर एक बार फिर से मंथन किए जाने की ज़रूरत है.
जबकि लगभग ज़ीरो छूट दरों को अपनाने की आवश्यकता लाज़िमी है, फिर चारे वो स्थानीय स्तर पर हो या क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तरों पर हो. ऐसे में हम वैश्विक वित्तीय संस्थानों पर ज़ोर देते हैं क्योंकि ऐसी दीर्घकालिक परियोजनाओं के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और ज़रूरी संसाधनों की आवश्यकता अक्सर स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर पर मौज़ूद नहीं होती हैं. देखा जाए तो, निचले स्तरों पर एक ‘सामूहिक अदूरदर्शिता’ भी है, जो चुनावी राजनीति की मज़बूरियों के चलते दीर्घकालिक परियोजनाओं के चयन के विरुद्ध एक व्यवस्थित पूर्वाग्रह की ओर ले जाती है, जो कि राजनीतिक दलों को लंबी अवधि के प्रोजेक्ट्स में निवेश करने के बजाए तत्काल लाभ फोकस करने के लिए प्रोत्साहित करती है.
इसके साथ ही यह भी एक सच्चाई है कि वैश्विक वित्तीय संस्थानों के लिए उचित लाभ अर्जित करना अनिवार्य है और उनके लिए सदस्य देशों के बीच साफ तौर पर सहमति के बगैर इस ज़रूरी उपाय को अपनाना बहुत कठिन होगा. ऐसे में दीर्घकालिक ज़ीरो-ब्याज वित्तपोषण के लिए फाइनेंसिंग के नए-नए विकल्पों को तलाशना ज़रूरी होगा. इस प्रकार से यह स्पष्ट हो जाता है कि देशों को समाज के लिहाज से भी और एक तरह से दुनिया के लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान परियोजनाओं को कार्यान्वित करना चाहिए.
स्टिग्लिट्ज़-फिटॉसी-सेन कमीशन का चर्चित वाक्य, ‘हम उन्हीं चीज़ों को आंकते हैं और तवज्जो देते हैं, जिन्हें हम महत्व देते हैं’, स्पष्ट तौर पर यह इशारा करता है कि चीज़ों का आकलन सही तरीक़े से नहीं किया जाता है और इसकी वजह से ऐसे नतीज़े सामने आते हैं, जो हमारी उम्मीद के मुताबिक़ नहीं होते हैं. जब तक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थान या एजेंसियां किसी देश की ‘प्रगति’ को मापने के लिए प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के मापदंड मानना जारी रखते हैं, तब तक विकास के तरीक़े में कोई बदलाव नहीं आएगा. इस तथ्य को ध्यान में हुए कि असमानता और पर्यावरणीय क्षरण अब तक अपनाए गए विकासोन्मुखी विकास मॉडल के प्रत्यक्ष बाई-प्रोडक्ट रहे हैं, यदि LiFE को एक सच्चाई बनाना है, तो उन उपायों की ओर बढ़ना बेहद आवश्यक है, जो इन मूल्यों को सीधे तौर पर प्रतिबिंबित करते हैं. ज़ाहिर है कि इसके लिए विकास को ‘हरित जीडीपी’ के संदर्भ में मापने की आवश्यकता होगी, साथ ही विकास को पृथ्वी पर पड़ने वाले दबावों और असमानता के लिहाज़ से अनुकूलित करने की भी ज़रूरत होगी. मानव विकास सूचकांक को पहले से ही इन दो आयामों के लिए समायोजित किया जा रहा है और ऐसे में यह भी बहुत ज़रूरी है कि आधारभूत GDP के माप को भी इनके मुताबिक़ अनुकूलित किया जाए. असमानता के अनुसार अनुकूलित प्रति व्यक्ति आय और पृथ्वी पर दबाव के मुताबिक़ समायोजित जीडीपी LiFE के विचार को वैश्विक स्तर पर आगे बढ़ाने में एक बड़ा क़दम साबित होगा.
ऊपर जिन बातों का सुझाव दिया गया है, उन्हें एक वास्तविकता में बदलने के लिए संस्थागत समर्थन बेहद ज़रूरी है. ज़ाहिर है कि भारत की जी20 की अध्यक्षता हर क्षेत्र, हर वर्ग और हर तबके के लिए एक सुख, स्वास्थ्य और समृद्धि वाले युग की शुरुआत करने के लिए इन अत्यधिक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी विचारों को आगे ले जाने का एक बड़ा अवसर है.