कर्ज़ और उससे जुड़े ख़तरे!

कर्ज़ देने की प्रक्रिया का उदार होना उसके प्रभावशाली होने के लिए ज़रूरी है, लेकिन निजी क्रेडिटर्स के हिस्से में बढ़त के कारण उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के कर्ज़दाताओं के पेरिस क्लब का दबदबा घट सा गया है.
ASHIMA GOYAL

 

वैश्विक मोर्चे पर एक के बाद एक झटकों की प्रतिक्रिया में सरकारों का ख़र्च बढ़ता जा रहा है. नतीजतन, सार्वजनिक कर्ज़ में ख़तरनाक रूप से बढ़ोतरी हो रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि इस बोझ को कैसे कम किया जा सकता है?  

पिछले संकटों से सबक़

2000 के दशक के आख़िर में आए वैश्विक आर्थिक संकट के बाद G20 ने समन्वित राजकोषीय प्रोत्साहनों की व्यवस्था लागू की थी. ये प्रणाली ज़्यादा प्रभावी है क्योंकि किसी एक देश की ओर से दिए गए राजकोषीय प्रोत्साहन का कुछ ना कुछ हिस्सा अन्य देशों तक भी पहुंच जाता है. आयातों में बढ़ोतरी के चलते ऐसा होता है.   

हालांकि. बुनियादी रूप से ये क़वायद असमानताओं से भरी है. मसलन, अमेरिका अपना राजकोषीय घाटा पूरा करने के लिए डॉलर छाप सकता है, उन्नत अर्थव्यवस्थाएं निम्न दरों पर कर्ज़ जुटा सकती हैं, लेकिन उभरते बाज़ारों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है. उन्हें रेटिंग में गिरावट का सामना करना पड़ता है. वैश्विक स्तर पर जोख़िम भरे वातावरण के चलते इन देशों से पूंजी बाहर निकलने लगती है. उन्हें उधार जुटाने के लिए ज़्यादा क़ीमत अदा करनी पड़ती है, नतीजतन उनके कर्ज़ का बोझ काफ़ी बढ़ जाता है.  

 

अमेरिका अपना राजकोषीय घाटा पूरा करने के लिए डॉलर छाप सकता है, उन्नत अर्थव्यवस्थाएं निम्न दरों पर कर्ज़ जुटा सकती हैं, लेकिन उभरते बाज़ारों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है. 

दोहरे घाटों के साथ भारत नाज़ुक स्थिति में था. 1970 के दशक के तेल संकट के बाद से सरकार कर्ज़ लेती आ रही थी, जबकि 1980 के दशक से उपभोग के मक़सद से भी कर्ज़ का सहारा लिया जाने लगा. आर्थिक सुधारों की लहरों के बावजूद ब्याज़ भुगतानों और सब्सिडियों के बोझ के चलते राजस्व घाटा लगातार बढ़ता रहा. ऊंची आर्थिक वृद्धि वाले 2000 के दशक तक ये सिलसिला जारी रहा. बहरहाल, वैश्विक आर्थिक संकट के दौरान दिए गए प्रोत्साहनों ने सभी सुधारों पर पानी फेर दिया. देर से किए गए सुधारात्मक उपाय, वृद्धि दर में आ रही गिरावट के चलते कम असरदार साबित हुए. व्यापक रूप से नकारात्मक वृद्धि के चलते महामारी के दौरान इसका सर्वोच्च स्तर देखा गया, लेकिन इस दफ़ा अगले ही साल इसकी चाल उलटी पड़ गई.  

कर्ज़ की अपेक्षित चाल

2023 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ताज़ा बैठक में कर्ज़ अनुपात को लेकर प्रत्याशित रूपरेखा प्रस्तुत की गई. अमेरिकी अनुपात में एक बार फिर 2020 के शिखर जैसी बढ़त होने की उम्मीद की जा रही है. 2027 तक ये सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के मुक़ाबले 134 के स्तर पर पहुंच सकता है. चीन की दर भी 100 के ऊपर बढ़ती जाएगी. अन्य देशों के कर्ज़ अनुपात में 2-5 प्रतिशत की गिरावट होगी. इस तरह वैश्विक सार्वजनिक वित्त, GDP के 100 प्रतिशत के स्तर पर स्थिर बना रहेगा. उन्नत अर्थव्यवस्थाएं इस पैमाने पर उभरते बाज़ारों और निम्न आय वाले देशों से काफ़ी ऊपर बनी रहेंगी. बहरहाल, कर्ज़ का ऊंचा अनुपात बरक़रार रहने से जोख़िम का स्तर भी ऊंचा रहता है.

भारत: दो वर्षों में कर्ज़ अनुपात में पहले ही पाँच प्रतिशत (89.2 से 84.2) की गिरावट आ चुकी है. IMF के अनुमानों के मुताबिक ये 2027 तक स्थिर रहेगी. हालांकि, वैश्विक आर्थिक संकट से मिले सबक़ों के बाद भारतीय नीति अतिवादी रुख़ से परहेज़ करने में कामयाब रही है. मांग और आपूर्ति पक्ष में संतुलन, प्रतिचक्रीय (countercyclical) प्रभावों को सुचारू बनाने, मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों में बेहतर तालमेल रखने और सुधारों को जारी रखे जाने से उतार-चढ़ावों में कमी आती है. वास्तविक दरें भी सुचारू रूप से विकास दरों के नीचे बनी रहती हैं. इन तमाम क़वायदों के मिले-जुले प्रभाव के चलते कर्ज़ अनुपात नीचे रहता है. भले ही अल्पकालिक दरों में बढ़ोतरी हो, लेकिन विस्तारों में गिरावट के चलते 10 साल की सरकारी सिक्योरिटी यील्ड्स में कम बढ़त हो रही है. हालांकि, राजस्व में कर्ज़ अदायगी का हिस्सा 40 प्रतिशत रहने के कारण कर्ज़ में कटौती करने को लेकर मज़बूत प्रोत्साहन मिलते हैं. वृद्धि पर सकारात्मक असर छोड़ने वाले बुनियादी ढांचे में कुल व्यय का बड़ा हिस्सा ख़र्च होने से मिले प्रोत्साहनों के चलते राजकोषीय मोर्चे पर धीरे-धीरे मज़बूती आ रही है. 

अमेरिका: अमेरिका कई तरह की दुविधाओं का सामना कर रहा है. महामारी के वक़्त आपूर्ति पक्ष से जुड़ी बाधाओं को नज़रअंदाज़ करते हुए बहुत ज़्यादा राजकोषीय प्रोत्साहन दिए गए. आय सहायता की उदारवादी योजनाओं को रकम मुहैया कराने के लिए अमेरिकी डॉलर के दबदबे का इस्तेमाल किया गया. ऊंचे कर्ज़ के बीच राजकोषीय घाटे के दम पर कोष का पुनर्वितरण (redistribution) करना ख़तरनाक है. इसे करों से हासिल राजस्व के ज़रिए ही पूरा किया जाना चाहिए. बहरहाल, अमेरिकी नीतियों की वजह से जब वहां महंगाई बढ़ने लगी तब पहले तो मौद्रिक नीति का देर से प्रयोग किया गया और आगे चलकर ज़रूरत से ज़्यादा प्रतिक्रिया जताई गई. डॉलर के मूल्य को संभाले रखने के लिए महंगाई में कमी लाने को ज़रूरी समझा गया ताकि उसका दबदबा बना रहे. हालांकि दरों में बदलाव आंकड़ों पर निर्भर रहने चाहिए और पीछे छूट गए प्रभावों के कारगर रहने के लिए वक़्त दिया जाना चाहिए. तीखे बदलावों से पूंजी प्रवाहों और सभी देशों के विनिमय दरों (exchange rates) में ज़रूरत से ज़्यादा उतार-चढ़ाव आते हैं, जिससे डॉलर में भरोसा घटता है. ये छिपे वित्तीय जोख़िमों को भी बेपर्दा कर देते हैं. मौद्रिक नीतियों के चलते वित्तीय बाज़ारों में आई गड़बड़ियों को समझदारी भरे नियमन के ज़रिए दूर किया जा सकता है. हालांकि संकट काल में इनमें सख़्ती नहीं लाई जा सकती. संकट गहराने से पहले ही इसका बेहतरीन इस्तेमाल हो सकता है. बहरहाल, अमेरिका में ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों पर इस तरह का कोई नियमन नहीं लगाया गया, जबकि कुछ छोटे बैंकों के लिए इसमें नरमी लाई गई थी.

बढ़ती ब्याज़ दरें सरकारी कर्ज़ के लिए भी समस्या हैं. अमेरिका का सार्वजनिक कर्ज़ 2002 की पहली तिमाही में GDP का 55.7 प्रतिशत था, जो महामारी के बाद 2021 की पहली तिमाही में दोगुने से भी ज़्यादा बढ़कर 126.1 प्रतिशत तक पहुंच गया. हालांकि ब्याज़ दरें काफ़ी कम रहने के चलते ब्याज़ की अदायगी, GDP के 1.5 प्रतिशत के स्तर पर बनी रही. 10 साल की अवधि वाली अमेरिकी सरकारी सिक्योरिटी की दरें महामारी से पहले 1 प्रतिशत थी जो अक्टूबर 2022 में 4.25 प्रतिशत तक पहुंच गईं. 1981 में ये दर अपने अब तक के सर्वोच्च स्तर (15.4 प्रतिशत) पर पहुंची थीं. नतीजतन 1991 की पहली तिमाही में ब्याज़ अदायगियां बढ़कर GDP के 3.16 प्रतिशत तक पहुंच गईं. 1980 के दशक में राजस्व प्राप्तियों का 25 प्रतिशत हिस्सा कर्ज़ पर ब्याज़ चुकाने में ख़र्च होने लगा था. ये हालात हरगिज़ गवारा नहीं हो सकता, लिहाज़ा इसने बजट एनफ़ोर्समेंट एक्ट का रास्ता साफ़ कर दिया. इसके तहत व्यय और PAYGO सिस्टम्स पर अंकुश लगाए गए. इसके तहत कोई नई योजना सिर्फ़ तभी चालू की जा सकेगी जब उसके लिए फ़ंडिंग की व्यवस्था हो. इसके अलावा, एलेन ग्रीनस्पैन ने राजकोषीय सख़्ती को सहारा देने के लिए जैसे ही दरों में कटौती की, राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यकाल में कर्ज़ का स्तर नीचे आ गया. इसके उलट, फ़ेडरल रिज़र्व के चेयरमैन पॉल वॉल्कर के कार्यकाल में इसमें बढ़ोतरी हुई थी.

 

अमेरिका का सार्वजनिक कर्ज़ 2002 की पहली तिमाही में GDP का 55.7 प्रतिशत था, जो महामारी के बाद 2021 की पहली तिमाही में दोगुने से भी ज़्यादा बढ़कर 126.1 प्रतिशत तक पहुंच गया. 

 

मौजूदा नज़रिया वास्तविक दरों के नीचे बने रहने का है लेकिन ये निश्चित नहीं है. अगर ऐसा महंगाई के चलते होता है तो ये डॉलर के लिए अच्छा नहीं होगा, क्योंकि सांकेतिक दरें मुद्रास्फीति के हिसाब से सामंजस्य बिठाती हैं. कर्ज़ के ऊंचे स्तरों के बीच अगर ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी हो तो ब्याज़ अदायगियां तेज़ी से बढ़ सकती हैं. अगर उभरते बाज़ारों वाली अर्थव्यवस्थाएं डॉलर परिसंपत्तियों की होल्डिंग्स में कटौती शुरू कर दें, तो भी इनमें इज़ाफ़ा हो सकता है. कोई भी दूसरी मुद्रा डॉलर जितनी मज़बूत नहीं है लेकिन भुगतान से जुड़े नवाचार (केंद्रीय बैंकों में नेटिंग की मंज़ूरी देना) और भूराजनीति, डॉलर के इस्तेमाल में कमी ला सकते हैं. नियम-आधारित लोकतंत्र होने के नाते वैश्विक स्थिरता के लिए अमेरिका बेहद महत्वपूर्ण है. बहरहाल, अपना दबदबा बरक़रार रखने के साथ-साथ दूसरों और ख़ुद को नकारात्मक प्रभावों से बचाने के लिए मौद्रिक-राजकोषीय नीति में अतिवादी रुख़ों से परहेज़ करना ज़रूरी गया है. इसके अलावा नियमों का सम्मान करना और एकतरफ़ा कार्रवाइयों का त्याग करना भी आवश्यक है. उम्मीद है कि ज़्यादा प्रतिस्पर्धा से अनुशासन का भाव आएगा, जिससे नीति में सुधार के साथ-साथ अमेरिकी कर्ज़ में कमी आएगी. 

निम्न आय वाले देश और उभरते बाज़ार: विश्व बैंक के आकलन के मुताबिक निम्न आय वाले 15-60 प्रतिशत देश या तो कर्ज़ संकट से घिरे हैं या संकट की ओर बढ़ रहे हैं. उभरते बाज़ारों के सॉवरिन बॉन्ड्स यील्ड्स तक़रीबन पांच प्रतिशत से बढ़कर लगभग 8 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं. कर्ज़ के बोझ तले सबसे ज़्यादा दबे 25 प्रतिशत उभरते बाज़ारों की कर्ज़ लागत काफ़ी ऊंची है. उधर, कर्ज़ में कटौती के लिए G20 की 2020 साझा रूपरेखा असरदार साबित नहीं हुई है.

कर्ज़ के नवीनीकरण या पुनर्संरचना (debt restructuring) के कारगर होने के लिए उसका उदार होना ज़रूरी है; लेकिन निजी क्रेडिटर्स और द्विपक्षीय कर्ज़ का हिस्सा ज़्यादा होने के चलते उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के कर्ज़दाताओं का पेरिस क्लब अब उतना प्रभावशाली नहीं रह गया है. ऐसे में किसी भी तरह के क़रार मुश्किल हो गए हैं. चीन ज़ोर देकर कह रहा है कि ब्रेटन वूड्स संस्थानों को भी अब कांट-छांट की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए. इसका एक वैकल्पिक तरीक़ा तो ये हो सकता है कि क्षेत्रीय विकास बैंकों तक भी कांट-छांट से रियायत की सुविधा का विस्तार कर दिया जाए. हालांकि कर्ज़ के विस्तार के लिए पूंजी के पहले से ज़्यादा प्रभावी प्रयोग की शर्त पूरी होने पर ही इन संस्थाओं को ऐसी छूट दी जानी चाहिए. कर्ज़दार ख़ुद भी बहुपक्षीय बैंकों को कर्ज़ की अदायगी करना पसंद करते हैं क्योंकि ऐसी संस्थाएं कर्ज़ की ब्याज़ दरें नीची रखते हैं और अन्य कर्ज़ों की क़ीमत भी बहुपक्षीय कर्ज़ों के समान रखे जाते हैं.

क्रेडिट डेटाबेसों में निजी भागीदारी को अनिवार्य बनाने और नवीनीकरण के तहत परिसंपत्तियों की ज़ब्ती की रोकथाम करने से भी मदद मिल सकती है.

 

क्रेडिट डेटाबेसों में निजी भागीदारी को अनिवार्य बनाने और नवीनीकरण के तहत परिसंपत्तियों की ज़ब्ती की रोकथाम करने से भी मदद मिल सकती है. जलवायु से जुड़ी सामूहिक कार्रवाई वाले कर्ज़ प्रावधानों से भी कर्ज़ के जख़ीरे में गिरावट आ सकती है. जलवायु वित्त (जो एक सार्वजनिक वस्तु है) की उदारवादी नीति भी उभरते बाज़ारों के राजकोषीय संकट में कमी ला सकते हैं. उभरते बाज़ारों के वित्त-पोषण यानी फ़ाइनेंसिंग की ऊंची लागत मोटे तौर पर करेंसी से जुड़े जोख़िमों के चलते आगे बढ़ती है. हालांकि अक्सर ऐसे जोख़िम सामने नहीं आते हैं. पोर्टफ़ोलियो इंश्योरेंस और रिइंश्योरेंस या केंद्रीय बैंक के स्वैप्स पर आधारित नवाचार भरे दीर्घकालिक नक़दी बचाव उपाय तैयार किए जा सकते हैं. इनसे किसी देश के डेटा को IMF के साथ जोड़कर साख की लागतों में कमी लाई जा सकती है. 


ये लेख मूल रूप से बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित हुआ है.