De-globalisation यानी आपस में कटती दुनिया के समय में ‘प्रचुर अर्थव्यवस्था’ की व्याख्या!

'बीच का रास्ता' या संतुलन की दो दार्शनिक धारणाओं- प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था और 'वसुधैव कुटुंबकम' को फिर से मज़बूत करना चाहिए और इनका इस्तेमाल बेहतर दुनिया के निर्माण में करना चाहिए.
Suthikorn Kingkaew

एक-दूसरे से जुड़ी और एक-दूसरे से कटी दुनिया

 

कई दशकों से वैश्वीकरण यानी एक-दूसरे से जुड़ी दुनिया को पूरे विश्व के विकास और आधुनिकीकरण की तरफ़ ले जाने का एकमात्र तरीक़ा माना जाता था. जैसे-जैसे देश की सीमाएं कम होती गईं, वैसे-वैसे हमने वैश्वीकरण के अनुरूप सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संरचना की उम्मीद की. लेकिन कई बार के आर्थिक संकटों और हाल के दिनों में दुनिया को एक-दूसरे से अलग करने वाली घटनाओं जैसे कि रूस-यूक्रेन युद्ध, कोविड-19 महामारी और अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध के बाद वैश्विक समाज अब वैश्वीकरण की प्रवृत्ति को लेकर अधिक-से-अधिक सावधान हो गया है.   

कई विकासशील देश वैश्वीकरण की ताक़त का सामना नहीं कर पाए और आख़िर में इसका नतीजा उनकी अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना की बर्बादी के रूप में निकल सकता है.

अतीत में कई विकासशील देशों, जिन्होंने वैश्वीकरण के रुझान को अपनाया, ने पाया कि वैश्वीकरण एक दोधारी तलवार है. इससे भी ख़राब बात ये रही कि कई विकासशील देश वैश्वीकरण की ताक़त का सामना नहीं कर पाए और आख़िर में इसका नतीजा उनकी अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना की बर्बादी के रूप में निकल सकता है. इसके अलावा, हाल के दिनों में भी कई ख़तरे सामने आए हैं जैसे कि चीन और अमेरिका के बीच व्यापार युद्ध, वैश्विक महामारी और यूरोप में राजनीतिक तनाव. कई देश अनेक चुनौतियों जैसे कि लंबे समय तक सप्लाई चेन में रुकावट, आसमान छूती खाद्य एवं ऊर्जा की क़ीमत और सार्वजनिक स्वास्थ्य की अव्यवस्था का सामना कर रहे हैं. साथ ही, कोविड महामारी के दौरान कई देशों के लिए ये स्पष्ट हो गया कि मदद के लिए दूसरी महाशक्तियों या अन्य देशों पर भरोसा करने की क़ीमत काफ़ी थी और इसमें लाखों लोगों की जान जा सकती थी. इसलिए, उन्हें अन्य देशों के साथ आर्थिक एकीकरण को कम करना पड़ा और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं निवेश में अपनी भागीदारी कम करनी पड़ी. इस घटना को “डि-ग्लोबलाइज़ेशन यानी एक-दूसरे से कटी दुनिया” कहा जाता है. ये प्रवृत्ति 2008 में हैमबर्गर संकट के दौरान उभरी लेकिन वैश्विक महामारी के बाद स्पष्ट रुप से दिखने लगी. 2020 में विश्व व्यापार संगठन (WTO) ने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में गिरावट वैश्विक GDP में कमी से ज़्यादा हुई है. उस साल व्यापार से जुड़ी ज़्यादा पाबंदियां थीं जैसे कि फेस मास्क और चिकित्सा उपकरणों के निर्यात पर प्रतिबंध. कुछ आर्थिक महाशक्तियों ने हाल के दिनों में अपने नागरिकों की मांग के अनुसार मुक्त व्यापार के मुक़ाबले घरेलू संप्रभुता पर भी ज़ोर दिया है. 

कुछ ख़तरों के बावजूद अगर अलग-अलग देश वैश्वीकरण को सही ढंग से अपनाएं तो इससे होने वाले फ़ायदे, जोखिम के मुक़ाबले ज़्यादा हैं. वैश्वीकरण की धारणा भारत की अध्यक्षता के तहत वर्तमान G20 के सूत्र वाक्य ‘वसुधैव कुटुंबकम’, जिसका अर्थ पूरा विश्व एक परिवार है, के साथ मेल खाती है. लेकिन ये महत्वपूर्ण है कि एक तौर-तरीका बनाना चाहिए ताकि अलग-अलग देशों के सामर्थ्य में बढ़ोतरी और अंतर्राष्ट्रीय जोखिम को कम किया जा सके. ऐसा होने पर वैश्वीकरण की लहर में विश्व भर के देश समृद्ध होंगे. एक मॉडल जिसका फ़ायदा उठाया जा सकता है वो है प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था. इस लेख में मुख्य रूप से किसी देश के आगे बढ़ने की स्थिति में नागरिकों के कल्याण और संतुलन पर ध्यान दिया गया है. 

वैश्विक पूंजीवाद की बुनियाद पर दार्शनिक विचार: प्रचुर अर्थव्यवस्था के संदर्भ में धन एवं कल्याण

 

दुर्भाग्य से, 1997 के एशियाई वित्तीय संकट ने थाईलैंड के दशक भर के आर्थिक चमत्कार को ख़त्म कर दिया. थाईलैंड ने इस अनुभव से सीखा और ये स्वीकार किया कि पिछले दशक के विकास ने ज़रूरत से ज़्यादा आर्थिक विस्तार के ज़रिए धन को बढ़ाने पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया है. थाईलैंड ने साफ़ तौर पर ज़रूरत से ज़्यादा ख़पत एवं निवेश को बढ़ावा देकर संतुलन को नज़रअंदाज़ किया. इसकी वजह से बचत की मात्रा में कमी आई और विदेशी कर्ज़ पर निर्भरता में बढ़ोतरी हुई. इसलिए थाईलैंड ने अपने रास्ते पर फिर से विचार एवं बदलाव शुरू कर दिया और आवश्यकता से अधिक विकास के मुक़ाबले आंतरिक मूल्यों पर निर्भरता में बढ़ोतरी एवं मैत्रीपूर्ण सतत विकास को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. 

प्रचुर या यथेष्ट या यथेष्ट अर्थव्यवस्था परंपरागत अर्थशास्त्र के सिद्धांत के साथ बेमेल नहीं थी क्योंकि ये मुख्य रूप से व्यापार एवं वैश्वीकरण पर ज़ोर देती है और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इसने परिस्थिति के सबसे अच्छे उपयोग की धारणा को अपनाया है.

 

4 दिसंबर 1997 को राजा भूमिबोल ने अपने भाषण में कहा कि “आर्थिक रूप से मज़बूत होना महत्वपूर्ण नहीं है. ये बात मायने रखती है कि हमारे पास खाने और जिंदा रहने के लिए पर्याप्त साधन होना चाहिए. एक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था हमें ये चीज़ प्रदान करेगी. ये हमें अपने पांव पर खड़े रहने में मदद करती है.”

थाईलैंड के राजा भूमिबोल और थाईलैंड के कई अर्थशास्त्रियों ने प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था का ज़िक्र तेज़ वैश्विक बदलाव का सामना करने में समाधान के तौर पर किया है. इस जीवन दर्शन का उपयोग वर्तमान के असमान विकास की समस्या से निपटने में किया जा सकता है. प्रचुर या यथेष्ट या यथेष्ट अर्थव्यवस्था परंपरागत अर्थशास्त्र के सिद्धांत के साथ बेमेल नहीं थी क्योंकि ये मुख्य रूप से व्यापार एवं वैश्वीकरण पर ज़ोर देती है और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इसने परिस्थिति के सबसे अच्छे उपयोग की धारणा को अपनाया है. प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था थाईलैंड में 1997 के संकट के कारण का पता लगाने और भविष्य के लिए ज़्यादा ठीक नीतियों को बनाने के लिए आवश्यक है. 

एक प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था के संदर्भ में धन और कल्याण के बीच अंतर

 

अर्थशास्त्री बार-बार धन और आर्थिक प्रगति की धारणा का उपयोग करते हैं लेकिन वो पर्याप्त विश्लेषण के बिना ही ऐसा करते हैं. ज़्यादा धन को आम तौर पर एक सकारात्मक प्रवृत्ति के रूप में देखा जाता है क्योंकि पैसा लोगों की मदद करता है और अलग-अलग देशों में जीवन स्तर बेहतर होता है. बेहतर स्वास्थ्य सुविधा और एक बड़े मानव संसाधन आधार का एकीकरण भौतिक समृद्धि के कारण संभव हो पाया है. इसलिए सामान्य रूप से ये माना जाता है कि धन ने कल्याण में बढ़ोतरी की है. कल्याण में बढ़ोतरी के लक्ष्य को धन की प्राप्ति के अधीन होने के अतिरिक्त कुछ ख़ास लोगों के लिए फ़िज़ूलखर्ची के रूप में भी ग़लत अर्थ लगाया जा सकता है. 

निश्चित तौर पर ख़ुशी को तो छोड़ दीजिए, धन और कल्याण में भी अंतर है. आर्थिक विकास और धन इकट्ठा करने पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर नहीं देना चाहिए. रिचर्ड ईस्टर्लिन ने कहा था कि मूलभूत आवश्यकताओं का समाधान करने के बाद आर्थिक विस्तार महत्वपूर्ण रूप से ख़ुशी में बढ़ोतरी नहीं कर सकता है. इसलिए, ऐसे समाज में जहां बहुत ज़्यादा असमानता है, वहां आर्थिक विकास और आमदनी में बढ़ोतरी की इच्छा समाज के सदस्यों के बीच प्रतिस्पर्धा और जलन को प्रोत्साहन देती प्रतीत होती है. 

प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था के विचार का उपयोग करके एक बेहतर विकास के मॉडल की रचना की जा सकती है ताकि समाज के हर स्तर पर धन और कल्याण के बीच अंतर को लेकर जागरुकता पैदा की जा सके और संतुलन को बढ़ावा दिया जा सके.

 

प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था धन के मुक़ाबले ख़ुशी पर ज़्यादा ज़ोर देती है. ये लोगों को पैसा या संसाधन हासिल करने के लिए बाज़ार अर्थव्यवस्था का उपयोग करने से नहीं रोकती है. ज़रूरतमंद लोगों में बांटने के उद्देश्य से व्यवस्था में और ज़्यादा धन एवं संसाधन होने के लिए ये केवल लोगों को अपनी मांगों को संतुलित करने और बहुत ज़्यादा धन एवं संसाधनों को जमा न करने के लिए कहती है. 

संतुलन के माध्यम से प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था की सामान्य धारणा

 

प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था की व्याख्या आत्मनिर्भरता के तौर पर, वैश्वीकरण की प्रवृत्ति के ठीक विपरीत या बेहद साधारण जीवन की मृगतृष्णा की तरफ़ वापसी के रूप में नहीं करनी चाहिए. इसके बदले प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था वैश्वीकरण की अनिश्चितता से निपटने का रास्ता बताती है और हमें ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के लक्ष्य को हासिल करने की तरफ़ ले जाती है. प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था बाज़ार अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के साथ संतुलन बरकरार रखने के लिए व्यक्ति और राष्ट्र- दोनों के रूप में आत्मनिर्भरता के एक निश्चित स्तर की आवश्यकता पर ज़ोर देती है. इस संदर्भ में प्रचुर या यथेष्ट का अर्थ “न बहुत कम” और ‘न बहुत ज़्यादा” दोनों हैं. ये संतुलन की धारणा या बीच का रास्ता आंतरिक संसाधनों और बाहरी मांग के बीच, ज़मीनी स्तर पर समाज की मूलभूत आवश्यकताओं और एक-दूसरे से जुड़ी दुनिया के अपरिहार्य परिणामों के बीच संतुलन बनाने वाले पहिये के तौर पर काम कर सकता है. 

4 दिसंबर 1998 को राजा भूमिबोल ने अपने भाषण में कहा था कि “प्रचुर या यथेष्ट का मतलब संतुलन है. अगर कोई व्यक्ति अपनी इच्छा के मामले में संतुलित है तो उसे कम लालसा होगी. अगर किसी की लालसा कम है तो वो दूसरे का कम फ़ायदा उठाएगा. अगर सभी देशों की ये धारणा होगी तो अपनी इच्छा को लेकर अति या लालची हुए बिना ये दुनिया ज़्यादा ख़ुशी वाली जगह होगी.”

निष्कर्ष 

 

महाशक्तियों के बीच व्यापार युद्ध और वैश्विक महामारी की वजह से एक-दूसरे से कटी दुनिया ने ग़रीबों की स्थिति को और भी ख़राब किया है. वर्तमान मुद्दा अपर्याप्त आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप धन की कमी के बजाय आर्थिक विकास की दार्शनिक विचारधारा की कमी की हो सकती है जिसने समाज के लोगों के सामान्य कल्याण के बदले पैसा बनाने पर काफ़ी ध्यान दिया है. इसकी वजह से अलग-अलग देश एक-दूसरे पर कम विश्वास करते हैं और इस प्रकार एक-दूसरे से कटी दुनिया की ओर ले जाते हैं. इसका एकमात्र समाधान उस धारणा को अपनाना है जो सभी देशों को वैश्वीकृत दुनिया के बाहरी झटकों के असर से बचे रहने की अनुमति देती है. अंत में, प्रचुर या यथेष्ट अर्थव्यवस्था के विचार का उपयोग करके एक बेहतर विकास के मॉडल की रचना की जा सकती है ताकि समाज के हर स्तर पर धन और कल्याण के बीच अंतर को लेकर जागरुकता पैदा की जा सके और संतुलन को बढ़ावा दिया जा सके. ऐसा करके न केवल समस्या का समाधान किया जा सकेगा बल्कि ये हमें वैश्वीकरण को अपनाने और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के लक्ष्य को भी प्राप्त करने की तरफ़ ले जाएगा. 


ये लेख G20- थिंक20 टास्क फोर्स 3: सुख के लिए जीवन, लचीलापन और मूल्य पर समीक्षा श्रृंखला का एक हिस्सा है.