वैश्विक आबादी को सार्वभौमिक स्तर पर ‘खाना पकाने’ के लिये ‘स्वच्छ ईंधन’ जल्दी उपलब्ध कराना ज़रूरी!

भारत खाना बनाने के स्वच्छ ईंधन तक पहुंच को बढ़ाने की कोशिशों में मदद करने वाली जानकारी को तैयार करने और उसे लोगों तक पहुंचाने का दीर्घकालीन कार्यक्रम शुरू करके अलग-अलग देशों के गठबंधन का नेतृत्व कर सकता है.
Shonali Pachauri | Abhishek Kar

एक अनुमान के मुताबिक़ 2020 में भी 2.4 अरब लोग खाना बनाने के लिए मुख्य रूप से लकड़ी, चारकोल और कोयला जैसे प्रदूषण पैदा करने वाले ईंधन से चलने वाले स्टोव पर निर्भर थे. वहीं वैश्विक स्तर पर 69 प्रतिशत लोगों की पहुंच खाना बनाने के स्वच्छ ईंधन तक थी. 2030 तक हर व्यक्ति के पास स्वच्छ खाना बनाने के माध्यमों जैसे कि गैस और बिजली की पहुंच एजेंडा 21 के सतत विकास लक्ष्य 7 (SDG7) के तहत एक स्पष्ट लक्ष्य है. बाली में G20 के नेताओं के घोषणापत्र में भी “SDG 7 के लक्ष्यों को हासिल करने एवं ऊर्जा की पहुंच में अंतर को पाटने के लिए कोशिश और ऊर्जा के मामले में अभाव को ख़त्म करने की प्रतिबद्धता” को दोहराया गया है.

भारत की आकांक्षा “ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) की आवाज़” बनने की है और वो खाना बनाने के स्वच्छ ईंधन पर केंद्रित जानकारी तैयार करने और उसका प्रसार करने के लिए एक दीर्घकालीन कार्यक्रम बनाकर इन प्रयासों की शुरुआत कर सकता है.

स्वच्छ ऊर्जा के अभाव का सार्वजनिक स्वास्थ्य, पर्यावरण और लैंगिक विकास पर गंभीर असर होता है. इसका नतीजा हर साल 32 लाख मौत़ों के रूप में निकलता है जिन्हें रोका जा सकता है. साथ ही खाना बनाने में इस्तेमाल होने वाली लगभग 30 प्रतिशत लकड़ी इस तरह से आती है जिससे जंगल को नुक़सान होता है और हर साल 1 गीगाटन के बराबर कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है जो वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का क़रीब 2 प्रतिशत है. विकासशील देशों में महिलाएं और बच्चे हर हफ़्ते 20 घंटे तक का समय खाना बनाने के लिए ईंधन को इकट्ठा करने में बिताते हैं. ये हालात ख़ास तौर पर खाना बनाने के ईंधन में कमी वाले क्षेत्रों जैसे कि सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में स्थित अफ्रीका में गंभीर है जहां आबादी में बढ़ोतरी की रफ़्तार ईंधन तक पहुंच के मामले में सुधार से ज़्यादा है.
स्वच्छ खाना बनाने के ईंधन के मामले में प्रगति और अनुमान मिला-जुला है. 2010 से 2020 के दशक के दौरान पूरे विश्व में लगभग 60 करोड़ लोगों की पहुंच खाना बनाने के स्वच्छ ईंधन तक हुई. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) का अनुमान है कि जब तक विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) स्वच्छ ईंधन तक पहुंच की व्यवस्था को तेज़ नहीं करेगा तब तक 2030 तक इस मामले में लक्ष्य पूरा नहीं हो सकेगा. विश्व की कुल जनसंख्या के एक-चौथाई हिस्से की पहुंच स्वच्छ ईंधन तक नहीं होगी. साथ ही, अगर महामारी से आर्थिक रिकवरी की गति धीमी रही तो लगभग 47 करोड़ और लोग यानी अनुमानित जनसंख्या से 5.5 प्रतिशत अतिरिक्त लोग 2030 तक किफ़ायती स्वच्छ ईंधन हासिल करने में नाकाम रहेंगे. हाल में बढ़े भू-राजनीतिक तनाव और उसके बाद उथल-पुथल भरे वैश्विक ऊर्जा बाज़ार का नतीजा भी तेल और गैस की क़ीमत में बढ़ोतरी के रूप में निकला है. इसकी वजह से स्वच्छ ईंधन कई ग़रीब घरों से दूर हो गया है.

आंकड़ों की कमी

पिछले दिनों विश्व बैंक के द्वारा ऊर्जा क्षेत्र प्रबंधन सहायता कार्यक्रम (ESMAP)/मॉडर्न एनर्जी कुकिंग सर्विसेज़ (MECS) को लेकर कराए गए अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि हर किसी तक स्वच्छ ईंधन की पहुंच की कमी की आर्थिक क़ीमत 2.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है. इसके विपरीत हर साल सिर्फ़ 150 अरब अमेरिकी डॉलर (जिसमें सार्वजनिक क्षेत्रों के द्वारा 39 अरब अमेरिकी डॉलर शामिल है) का निवेश 2030 के लक्ष्य को हासिल करने के लिए चाहिए. हमारे क़दम नहीं उठाने की क़ीमत की तुलना निवेश के साथ करने से पता चलता है कि कई क्षेत्रों में निवेश का असाधारण फ़ायदा है लेकिन इसके बावजूद कुछ अपवादों को छोड़कर निजी निवेशकों और सरकारों के द्वारा स्वच्छ ईंधन को लेकर बहुत कम दिलचस्पी है. इसका पता 2018 में इस क्षेत्र में महज़ 131 मिलियन अमेरिकी डॉलर के सार्वजनिक और निजी निवेश से पता चलता है.

वैश्विक स्तर पर खाना बनाने के ईंधन को लेकर बड़े पैमाने पर बदलाव के एजेंडे को आगे बढ़ाने में एक प्रमुख बाधा स्वच्छ ईंधन की तरफ़ परिवर्तन लाने में मददगार आंकड़ों और जानकारी की भारी कमी है. इस तरह की जानकारी निवेश को प्रोत्साहित कर सकती है जिसकी इस क्षेत्र को सख़्त ज़रूरत है.

वैश्विक स्तर पर खाना बनाने के ईंधन को लेकर बड़े पैमाने पर बदलाव के एजेंडे को आगे बढ़ाने में एक प्रमुख बाधा स्वच्छ ईंधन की तरफ़ परिवर्तन लाने में मददगार आंकड़ों और जानकारी की भारी कमी है. इस तरह की जानकारी निवेश को प्रोत्साहित कर सकती है जिसकी इस क्षेत्र को सख़्त ज़रूरत है. जिन समुदायों तक बुनियादी ढांचा नहीं पहुंच पाया है, जहां ग़रीबी, पितृसत्ता और कम जागरुकता का स्तर है, वहां आधुनिक स्वच्छ ईंधन पहुंचाने का तरीक़ा, जिसमें बिज़नेस मॉडल और वित्त शामिल हैं, अभी भी एक चुनौती बनी हुई है. शुरुआती स्वीकार्यता या उसे अपनाना और उसके बाद लंबे समय तक स्वच्छ ईधन का इस्तेमाल- दोनों पर निगरानी रखने और उसे समझने की आवश्यकता है. इससे न केवल निवेश को बढ़ाने और नीति तैयार करने में बल्कि दूसरी जगह सफलता को दोहराने में भी मदद मिल सकती है. इसके लिए बार-बार के अध्ययन समेत प्रमाण आधारित विश्लेषण की आवश्यकता है जो ज़ाहिर करते हों कि क्या स्वच्छ ईंधन का लगातार इस्तेमाल लंबे समय तक जारी रहता है और अगर नहीं रहता है तो इसके पीछे कौन सी बाधाएं हैं. स्वच्छ ईंधन को लेकर प्रभावी क़दम उठाने के कार्यक्रमों को तैयार करने के लिए लोगों के कल्याण पर इस तरह के कार्यक्रमों के असर के मूल्यांकन की भी आवश्यकता पड़ती है. डाटा जमा करने में सुधार और विशेष परियोजनाओं के विश्लेषण के साथ-साथ अलग-अलग परियोजनाओं एवं संदर्भों से सीखने की अनुमति देने वाले तुलनात्मक विश्लेषण आवश्यक हैं.
अलग-अलग संदर्भों में सीखना विशेष रूप से व्यापक सांस्कृतिक विविधता वाले विकासशील देशों में जानकारी साझा करने का उपयोगी, किफ़ायती और व्यावहारिक तरीक़ा है. इस तरह की सीख क्षमता निर्माण की कार्यशाला और समय पर नीति के बारे में बताने का रूप ले सकती है ताकि जानकारी को उद्योग से जुड़े किरदारों और नीति निर्माताओं तक पहुंचाया जा सके. इसके लिए व्यवस्थित ढंग से अलग-अलग देशों एवं कंपनियों के अनुभव को साझा करने और इन्हें सर्वश्रेष्ठ पद्धतियों की श्रेणी में बदलने की आवश्यकता है ताकि नये किरदार और नये कार्यक्रम इन पर विचार कर सकें. उदाहरण के तौर पर, भारत के द्वारा सफलतापूर्वक प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (PMUY) के क्रियान्वयन ने 9 करोड़ ग़रीब महिलाओं को लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस (LPG) को अपनाने में समर्थ किया. इतने बड़े पैमाने और गति के मामले में ये योजना अभूतपूर्व थी और ये साफ़ तौर पर इस तरह की प्रक्रिया के मामले में क्या करना चाहिए (और क्या नहीं करना चाहिए) को लेकर एक महत्वपूर्ण सबक़ था. एक और उदाहरण कोको का है जो कि अफ्रीका में काम करने वाली एक प्राइवेट कंपनी है. कोको ने प्रतिस्पर्धी क़ीमत पर ईंधन ATM के विशाल नेटवर्क के ज़रिए लिक्विड बायोएथेनॉल की बिक्री करके प्रदूषण पैदा करने वाले लेकिन सर्वव्यापी चारकोल की बिक्री के नेटवर्क का मुक़ाबला किया है. इस तरह के मामलों से मिली सीख को साझा करने के लिए अलग-अलग विकासशील देशों के शोधकर्ताओं और निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के हिस्सेदारों के साथ नज़दीकी और लगातार भागीदारी की आवश्यकता है.

भारत का अनुभव

जनवरी 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा घोषित ग्लोबल साउथ सेंटर ऑफ एक्सीलेंस इस मामले में कमी को पूरा कर सकता है. भारत की आकांक्षा “ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) की आवाज़” बनने की है और वो खाना बनाने के स्वच्छ ईंधन पर केंद्रित जानकारी तैयार करने और उसका प्रसार करने के लिए एक दीर्घकालीन कार्यक्रम बनाकर इन प्रयासों की शुरुआत कर सकता है. PMUY से मिली सीख के आधार पर भारत के पास इस मामले में गहराई से प्रक्रिया शुरू करने के लिए पर्याप्त विशेषज्ञता और अनुभव है कि किस तरह की पद्धति अच्छा काम करेगी और भारत की योजना फरवरी 2023 में शुरू की गई एक पहल के ज़रिए इसे तेज़ करने की है. ये पहल सौर-सह-बिजली के चूल्हे को अगले दो से तीन वर्षों में 3 करोड़ घरों तक पहुंचाने की है. विकासशील देशों में अपनी “साख” का इस्तेमाल करके भारत ग्लोबल साउथ सेंटर ऑफ एक्सीलेंस के ज़रिए उन देशों के गठबंधन का नेतृत्व कर सकता है जिन्हें खाना बनाने के स्वच्छ ईंधन को पहुंचाने के प्रयासों को तेज़ करना है. ये एक बड़ा बदलाव हो सकता है जिसे इस क्षेत्र की सख़्त ज़रूरत है ताकि खाना बनाने के ईंधन के मामले में अभाव की लगातार चुनौती का समाधान किया जा सके.