विकास कार्यक्रमों के क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स की मात्रा निर्धारित करने के लिए एक रूपरेखा

Tashina Madappa Cheranda | Kanchan Kargwal | Sahil Mathew

टास्क फोर्स 6: एक्सीलरेटिंग SDGs : एक्सप्लोरिंग न्यू पाथवेस्‌ टू द 2030 एजेंडा


सार


वैश्विक स्तर पर, बिगड़ते जलवायु परिवर्तन से न केवल पर्यावरणीय संकट पैदा हो रहा है, बल्कि सामाजिक संकट के साथ-साथ यह मौजूदा सामाजिक असमानताओं को भी बढ़ा रहा है. G20 समूह में शामिल सरकार , देश के विकास के स्तर पर ध्यान दिए बगैर, ग्लोबल वार्मिंग के इन परिणामों से निपटने के लिए विभिन्न विकास कार्यक्रमों और सुरक्षा उपाय योजनाओं को लागू कर रही हैं. अक्सर, ये योजनाएं अनपेक्षित, लेकिन महत्वपूर्ण लाभ प्रदान करती हैं, जिनमें क्लाइमेट को-बेनिफिट्स यानी जलवायु सह-लाभ शामिल हैं. लेकिन क्लायमेट को-बेनिफिट्‌स की व्यापक रूप से निगरानी, इनके लाभ के मात्रा की गणना नहीं होती है या इन्हें दर्ज़ नहीं किया जाता है. भारत में स्थित एक थिंक टैंक द सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी ने एक ग्रामीण विकास कार्यक्रम -पश्चिम बंगाल में उशरमुक्ति- के तहत क्लाइमेट को-बेनिफिट्स के लिए प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन (NRM) गतिविधियों का आकलन किया. इस अध्ययन ने एक ऐसे ढांचे की संकल्पना को जन्म दिया जो NRM -आधारित विकास कार्यक्रमों के लचीलेपन, अनुकूलन और इसके महत्व की मात्रा का निर्धारण कर सकती है. इस ढांचे के संचालन से सरकारों को NRM आधारित विकास कार्यक्रमों के जलवायु  को-बेनिफिट्‌स का आकलन कर और इनका प्रदर्शन करने में सहायता मिल सकती है. यह ढांचा जलवायु लक्ष्यों और SDG को हासिल करने में भी अहम भूमिका अदा कर सकता है. 

  1. चुनौती

जलवायु परिवर्तन और विकास से जुड़ी दुविधा


हीटवेव, सूखा, बाढ़ और चक्रवात, जलवायु आपदाओं के ऐसे उदाहरण हैं, जिनकी जलवायु परिवर्तन के कारण फ्रीक्वेंसी और विकरालता साल दर साल बढ़ी हैं. इसी वज़ह से जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ लचीलापन हासिल करने, इसे लेकर अनुकूलन करने और इन आपदाओं को कम करने की तात्कालिकता रेखांकित होती है. ऐसा करने से ही एक सुरक्षित, अधिक रहने योग्य और न्यायसंगत दुनिया सुनिश्चित की जा सकेगी. जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों को प्रभावित करके विकास कार्यक्रमों के संचालन पर भी असर डालता है. हालांकि, टिकाऊ, लचीले और लो-कार्बन डेवलपमेंट के बगैर, मौजूदा जलवायु संकट बढ़ जाएगा. ऐसे में एक फीडबैक लूप स्थापित हो जाएगा.  इसलिए, डेवलपमेंट इनिशिएटिव  को जलवायु परिवर्तन से समन्वय स्थापित करना होगा. यह समन्वय इस बात को लेकर होना चाहिए कि ये डेवलपमेंट इनिशिएटिव  जलवायु परिवर्तन में कैसे योगदान दे सकते हैं, इससे कैसे प्रभावित हो सकते हैं या कैसे इसका समाधान कर सकते हैं. यह तभी संभव है जब विकास नीतियां और कार्यक्रम क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स या उनके कार्यान्वयन न करने से जुड़े परिणामों को पुख़्ता रूप से समझें और स्वीकार करें. हालांकि, विकास कार्यक्रमों के क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स का ज्ञान, जानकारी और समझ सीमित या अप्रमाणित ही रहती है. 

‘क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स’ को परिभाषित करना

इस बात पर व्यापक सहमति है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के उद्देश्य को लेकर लागू की जाने वाली जलवायु नीतियां और कार्रवाइयां भी स्वच्छ हवा और पानी, हरित रोज़गार, सार्वजनिक स्वास्थ्य और जैव विविधता के संरक्षण जैसी सतत विकास प्राथमिकताओं को पूरा कर सकती हैं. जलवायु कार्रवाइयों के ये लाभ स्थानीय हितधारकों के बीच इन्हें लोकप्रिय बना सकते है. ऐसे में इन कार्रवाइयों की स्वीकृति बढ़ जाती है. इसी प्रकार इस तरह की कार्रवाइयों को लागू करने का फ़ैसला लेने वाले लोग भी इन्हें गंभीरता से ले सकते है. 

इसका विपरीत भी सच है, यानी विकास कार्यक्रम, विकास लक्ष्यों को पूरा करने के अलावा, प्राकृतिक प्रणालियों के लचीलेपन को बढ़ाकर, आबादी को वर्तमान और भविष्य के जलवायु प्रभावों के अनुकूल बनाने में सहायता करते हुए कार्बन डाइऑक्साइड को कम करके क्लाइमेट को-बेनिफिट्स प्रदान कर सकते हैं. जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) ने को-बेनिफिट्‌स यानी सह-लाभों को कुछ इस तरह परिभाषित किया है, ‘‘किसी एक नीति या उपाय का उसके तय उद्देश्य के अलावा अन्य उद्देश्यों पर होने वाला सकारात्मक प्रभाव, भले ही इसमें इस उपाय या नीति का समग्र सामाजिक कल्याण पर होने वाले प्रभाव का विचार न किया गया हो.’’  

विश्व बैंक जैसे संगठन स्वीकार करते हैं कि विकास के उद्देश्यों का समर्थन करने वाले उनके निवेश और वित्तपोषण, क्लाइमेट एक्शन यानी जलवायु कार्रवाई को बढ़ाते हैं,  जबकि सरकारों की ओर से कार्यान्वित विकास कार्यक्रम, अक्सर क्लाइमेट को-बेनिफिट्स को लेकर अपनी क्षमता को ही नहीं पहचानते अथवा नहीं समझने वाले होते हैं या इन क्षमताओं के परिणाम हासिल करने में सफल नहीं होते. किसी राष्ट्र के विकास स्तर पर ध्यान दिए बिना, सरकार  अपने बजट का बड़ा हिस्सा विकास कार्यक्रमों और कल्याणकारी योजनाओं के लिए आवंटित करती हैं. इन कार्यक्रमों या योजनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित सामाजिक आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए लागू किया जाता है. हालांकि, लागू की गई कुछ गतिविधियों का इनके उद्देश्य के अलावा भी प्रभाव पड़ जाता है. ये गतिविधियां समुदायों और प्राकृतिक प्रणालियों के लचीलेपन में सुधार कर सकती हैं, सामाजिक-पारिस्थितिकी  प्रणालियों को वास्तविक या अपेक्षित जलवायु आपदाओं के अनुकूल बनाने में सहायता करते हुए कार्बन को अलग कर सकती हैं. 

उदाहरण के लिए, भारत की एक प्रमुख विकास योजना, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (MGNREGS) ने ग्रामीण रोजगार सृजित करने की अपनी क्षमता के लिए पिछले एक दशक में शोधकर्ताओं और नीति निर्माताओं का ध्यान आकर्षित किया है. कुछ मामले के अध्ययनों ने क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स मुहैया करवाने के लिए MGNREGS की क्षमता का खुलासा किया है. इसकी वज़ह से सरकार ने यह स्वीकार किया है कि MGNREGS उन ’24 प्रमुख पहलों’ में से एक है, जो देश में जलवायु परिवर्तन को काबू में करने के लिए काम कर सकता है.

हालांकि, देश भर में विभिन्न पैमानों पर लागू किए गए अन्य विकास कार्यक्रमों को लेकर यह दावा नहीं किया जा सकता. अत: विकास कार्यक्रमों के क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स की मात्रा निर्धारित करने, इनकी निगरानी करने और रिपोर्ट करने की आवश्यकता को भारत समेत अन्य देशों ने मुख्यधारा  में शामिल नहीं किया है. ऐसे में यह स्थिति विकास कार्यक्रमों पर अमल करने वाली एजेंसियों के लिए एक मात्रा निर्धारण और रिपोर्टिंग अर्थात इनसे संबंधित जानकारी जुटाने की व्यवस्था करना और भी ज़रूरी कर देती है. क्योंकि आमतौर पर इन विकास कार्यक्रमों का ध्यान केवल एक ही उद्देश्य पर टिका होता है. यही बात हमें इससे जुड़ी एक अन्य चुनौती यानी हॉरिजॉन्टल नेटवर्किंग यानी आपसी समन्वय की कमी की ओर ले जाती है.

सीमित हॉरिजॉन्टल नेटवर्किंग

सरकारी विभाग जो विकास कार्यक्रमों और योजनाओं को लागू करते हैं, वे आम तौर पर प्रभावी समन्वय तंत्र की कमी के कारण साइलो यानी अपने ही दायरे में काम करते हैं. कार्यान्वयन एजेंसियों के बीच सीमित अंतर सहयोग- या यहां तक ​​कि इंट्रा सेक्टोरल यानी अंतर-क्षेत्रीय हॉरिजॉन्टल नेटवर्किंग के परिणामस्वरूप सरकारी विभागों की ओर से लागू किए जाने वाले कार्यक्रमों या योजनाओं में निवेश का दोहराव हो सकता है. हॉरिजॉन्टल नेटवर्किंग के अभाव की वज़ह से जलवायु परिवर्तन जैसे क्रॉस-कटिंग मुद्दों को हल करने में सरकार विफ़ल हो सकती है.

उदाहरण के लिए, भारत में, ग्रामीण आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे रहता है,  वहां ग्रामीण विकास मंत्रालय ऐसे अनेक विकास कार्यक्रम चलाता है जो बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच में सुधार के अलावा, ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं पर निर्भर प्राकृतिक संसाधनों के आधार को फिर से जीवंत करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं. ये कार्यक्रम, प्राकृतिक संसाधन पूंजी को पुनर्जीवित करते हुए समुदायों के कल्याण में सुधार के साथ काफ़ी क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स अर्जित करते हैं. हालांकि, जलवायु परिवर्तन संबंधी सभी परिणामों के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ज़िम्मेदार होता है. लेकिन इन दो एजेंसियों के बीच बेहद कम या कोई हॉरिजॉन्टल नेटवर्किंग नहीं होने की वज़ह से, विकास कार्यक्रमों के क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स की मात्रा निर्धारित करने और इनसे जुड़ी जानकारी एकत्रित करने की आवश्यकता उपेक्षित ही रहती है.

प्रत्येक देश को SDG को लेकर अपनी प्रगति की रिपोर्ट तैयार करनी पड़ती है. ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) और पेरिस समझौते के तहत आगामी अनुकूलन संचार को देखते हुए क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स की निगरानी, ​​​​मात्रा निर्धारण और रिपोर्टिंग के लिए एक व्यापक ढांचा अनिवार्य हो जाता है. क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स अनेक विकास कार्यक्रमों की बहुआयामीता को प्रकट करते हैं और इसलिए, नीति निर्माताओं को भविष्य की विकास चुनौतियों को देखने के लिए एक नया लेंस या दृष्टि प्रदान करते हैं.

CSTEP का रैपिड असेसमेंट यानी त्वरित आकलन: एक सिंहावलोकन

उपरोक्त चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए, CSTEP ने भारत के पश्चिम बंगाल में MGNREGS द्वारा संचालित एक नदी कायाकल्प कार्यक्रम उशरमुक्ति के कार्यान्वयन के परिणामस्वरूप क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स की मात्रा निर्धारित करने के लिए एक त्वरित मूल्यांकन किया. यह कार्यक्रम छह जिलों में लागू किया गया है और जल संचयन संरचनाओं, सिंचाई नहरों, पानी बहने के लिए भूमि पर बनी अविरल लंबी नली या खाई, रॉक चेक, बागवानी और सामाजिक वानिकी वृक्षारोपण जैसे माइक्रो-वाटरशेड प्रबंधन कार्यों का नियोजन करता है.

तेज़ी से मूल्यांकन करने के लिए, कार्यान्वयन क्षेत्र और निष्पादित कार्यों की कुल संख्या का स्तरीकरण कर रैंडम यानी निरुद्देश्य रूप से सैंपल लिए गए. क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स के लिए 13 वाटरशेड में कुल 541 कार्यों का आकलन मूल्यांकन क्षेत्र और सर्वेक्षण-आधारित विधियों के संयोजन का उपयोग करके किया गया. 

अध्ययन में पाया गया कि क्रियान्वित किए गए कार्यों ने न केवल आय संबंधी लाभ प्रदान किया, बल्कि कार्बन का पृथक्करण करते हुए समुदायों को लचीलापन बनाने और उनकी अनुकूलन क्षमता में सुधार करने में भी सहायता की. इसने संकल्पना का प्रमाण प्रदान किया और MGNREGS कार्यों के क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स की मात्रा निर्धारित करने के लिए एक रूपरेखा को जन्म दिया. इसी रूपरेखा को सभी NRM-आधारित विकास कार्यक्रमों के अनुरूप अनुकूलित किया गया है, जो स्पष्ट प्रत्यक्ष लाभ प्रदान करने के लिए जाने जाते हैं और क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स सुनिश्चित करने की क्षमता रखते हैं.

  1. G20 की भूमिका

जलवायु परिवर्तन और अन्य क्रॉस-कटिंग पर्यावरणीय मुद्दों को संबोधित करने के लिए G20 द्वारा की गई कई पहलों से पता चलता है कि यह समूह काफ़ी प्रभावी है. ऐसे में यह समूह वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने या उससे निपटने के लिए प्रतिबद्धताओं को बनाने में सहायक साबित हो सकता है. यह नीति आलेख एक निगरानी और मूल्यांकन ढांचे को मुख्यधारा में लाने का प्रस्ताव करता है जो NRM-आधारित विकास कार्यक्रमों के क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स के मात्रा निर्धारण और रिपोर्टिंग में मदद करेगा, जिससे विकास और जलवायु चुनौतियों को एक साथ संबोधित किया जा सकेगा. G20 फोरम की भूमिका स्पष्ट है: यह सदस्य देशों के बीच आम सहमति को बढ़ावा देने और ढांचे को अपनाने और कार्यान्वयन को बढ़ावा देने के लिए एक मंच के रूप में कार्य कर सकता है. G20 का प्रभाव इसके सदस्य देशों के दायरे से बाहर तक व्याप्त है. इसके साथ ही इस मंच ने ऐतिहासिक रूप से यह दिखा दिया है कि यह मंच सहयोग, आपसी लाभ और बहुपक्षवाद पर जोर देकर वैश्विक एजेंडा को आकार देने में अहम भूमिका निभाने का दमखम रखता है. 

  1. G20 के लिए सिफ़ारिशें

यहां प्रस्तावित एक रूपरेखा के संचालन के लिए G20 एक उचित मंच है. यह रूपरेखा NRM-आधारित विकास कार्यक्रमों के लचीलेपन, अनुकूलन और उनके सह-लाभों को कम करने की मात्रा निर्धारित करेगी. यह इस आलेख की प्राथमिक सिफ़ारिश है. विकास कार्यक्रमों के क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स की मात्रा निर्धारित करने, उनकी निगरानी करने और रिपोर्ट करने के लिए विकसित रूपरेखा निम्नलिखित फिगर में प्रस्तुत की गई है.

रूपरेखा के तीन मुख्य घटक हैं: सैलिंग यानी नमूनाकरण, रैपिड असेसमेंट यानी त्वरित मूल्यांकन और एनालिसिस फॉर जनरलाइजेशन यानी सामान्यीकरण के लिए विश्लेषण. रूपरेखा के संचालन की तैयारी के रूप में कई चरणों की आवश्यकता होती है और इन्हें निम्नलिखित घटकों में से प्रत्येक के तहत विस्तार से वर्णित किया गया है.

घटक 1: स्तरीकृत यानी स्ट्रेटिफाइड  रैंडम सैंपलिंग

विकास कार्यक्रम बड़े पैमाने पर लागू किए जाते हैं. इन कार्यक्रमों के लाभार्थी विशाल क्षेत्रों में फ़ैले होते हैं, जैसे कि एक क्षेत्र, एक राज्य या एक देश; इस वज़ह से, एक जनगणना सर्वेक्षण करना असंभव हो जाता है. इसलिए, रूपरेखा को लागू करने की दिशा में पहला कदम चुने गए विकास कार्यक्रम का आकलन करने के लिए एक सैंपल की पहचान करना हो जाता है.

सैंपल  की पहचान करने के लिए, एक स्तरीकृत यानी स्ट्रेटिफाइड  रैंडम सैम्पल प्रोटोकॉल, जो एक कार्यक्रम की मैनेजमेंट इंर्फोमेशन सिस्टम (MIS) से डेटा का उपयोग करता है, को विकसित और स्वचालित करना होगा. यदि इस कार्यक्रम में MIS का निर्माण नहीं हो रहा है, लेकिन यह कार्यक्रम क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स देने की क्षमता रखता है, तो पहले चरण में MIS बनाना और MIS को बनाए रखना होगा. इस MIS को सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई के स्तर पर डेटा प्रस्तुत करने के लिए डिज़ाइन किया जाना चाहिए. इस डेटा में लाभार्थी के नाम और उन गतिविधियों के नाम  शामिल होने चाहिए, जिनसे वे लाभान्वित हो रहे हैं, लेकिन यह इन तक ही सीमित नहीं होना चाहिए. रैंडम सैम्पल जनरेटर एक बड़ी आबादी से लाभार्थियों का सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण रैंडम सैम्पल प्रदान करेगा, जिससे मूल्यांकनकर्ताओं को यह सूचित किया जाएगा कि सर्वेक्षण के मामले में क्षेत्र से संबंधित मेजरमेंट  के लिए कहां से सैंपल  लेना है और किसका सैम्पल लेना है. 

घटक 2: रैपिड असेसमेंट यानी तीव्र मूल्यांकन

मूल्यांकन किए जा रहे विकास कार्यक्रम के लिए प्रासंगिक डेटा संग्रह महत्वपूर्ण है. पहला कदम कार्यक्रम की उन विशिष्ट गतिविधियों की पहचान और मानचित्रण करना है जो क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स मुहैया करा  रहे हैं. इसके बाद, संकेतक जो कार्य के प्रमुख प्रदर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं और इसके क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स को प्रमाणित करते हैं, की कल्पना की जानी चाहिए. यह अनुशंसा की जाती है कि संकेतकों की संकल्पना की प्रक्रिया नेशनल गोल्स एंड टार्गेट्‌स, जैसे SDG और NDC के अनुरूप ही हो. विकास कार्यक्रम और राष्ट्रीय उद्देश्यों के बीच संकेतकों का ओवरलैप जितना अधिक होगा, सरकार के लिए कार्यक्रम से क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स का मूल्यांकन करने का प्रोत्साहन उतना ही अधिक होगा.

संकेतकों की कल्पना करने के बाद, संकेतकों को मापने पर चरण-दर-चरण निर्देश प्रदान करने के लिए एक विधि मैनुअल यानी संहिता तैयार करने की आवश्यकता होती है. उदाहरण के लिए, बागवानी बागानों की स्थापना करके एक विकास कार्यक्रम किसानों की सहायता करना चाहता है. इस कार्यक्रम के मुख्य लाभों में किसानों को पूरक आय प्रदान करने वाले फल और इमारती लकड़ी शामिल हैं. लेकिन इसके साथ ही, इस विकास कार्यक्रम से संभावित जलवायु लचीलापन और अनुकूलन सह-लाभों के अलावा कार्बन पृथक्करण के माध्यम से एक क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स प्राप्त किया जाता है. इस मामले में विधि संहिता को वृक्षारोपण से अलग किए गए कार्बन की मात्रा निर्धारित करने के निर्देश देने की आवश्यकता है. इसमें आवश्यक मेजरमेंट  यानी माप के प्रकारों का विवरण और पृथक कार्बन की मात्रा निर्धारित करने के लिए एलोमेट्रिक समीकरणों को एक स्पष्ट तरीके से दिया जाना चाहिए.

जिस बड़े पैमाने पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए, उसे देखते हुए निम्नलिखित प्रयासों की सिफ़ारिश की जाती है:

  1. क्षेत्र आकलन करने की क्षमता वाले संस्थानों, संगठनों और कर्मियों की पहचान करने के लिए एक व्यापक स्टेकहोल्डर-मैपिंग अभियान चलाया जाए;
  2. संकेतकों की मात्रा निर्धारित करने के लिए सरल लेकिन मज़बूत तरीकों की पहचान की जाए. ऐसा इसलिए सुनिश्चित किया जाना चाहिए ताकि इन संकेतकों का फील्ड कर्मी आसानी से उपयोग कर सकें ;
  3. प्रशिक्षण सामग्री का विकास और मौजूदा क्षमता निर्माण कार्यक्रमों में इसका एकीकरण यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाए कि इसमें शामिल सभी हितधारकों की क्षमता का निर्माण किया गया है; और
  4. जहां भी संभव हो, डेटा की डिजिटल रिकॉर्डिंग या ऑप्टिकल मार्क रिकग्निशन फॉर्मेट का उपयोग किया जाए, जिसकी सिफ़ारिश पारदर्शिता सुनिश्चित करने और सर्वेक्षण किए गए सभी स्थानों से डेटा के निर्बाध एकत्रीकरण की अनुमति देने के लिए की जाती है, क्योंकि इससे समय और धन की बचत होती है. यह बचत विशेषत: विकासशील देशों में अहम होती है, जहां आकलन करने के लिए संस्थागत क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है.

घटक 3: विश्लेषण और सामान्यीकरण

क्षेत्र के आकलन और सर्वेक्षण के माध्यम से एकत्र किए गए डेटा का विश्लेषण किया जाना चाहिए और सैम्पल से समग्र क्षेत्र, जनसंख्या या देश को कवर करने के लिए इसे सामान्यीकृत किया जाना चाहिए. डेटा विश्लेषण और रिपोर्टिंग की प्रक्रिया को ऑटोमेट यानी स्वचालित करने के लिए एक टेम्पलेट  बनाई जा सकती है. यह उन संकेतकों के लिए विशेष रूप से सहायक होगी जिनके लिए क्वांटिफिकेशन के लिए थोड़ी उन्नत तकनीकों की आवश्यकता होती है, जैसे कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन यानी कार्बन को अलग करना. हालांकि, विश्लेषण का एक ऑटोमेटेड यानी स्वचालित तरीका तभी संभव होगा जब डेटा को डिजिटल रूप से एकत्र किया जाए. इसलिए, घटक 2 के भीतर डिजिटल डेटा संग्रह को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

CSTEP द्वारा किए गए अध्ययन में विकास कार्यक्रम के क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स पर प्रकाश डाला गया है. एक रूपरेखा को अपनाना, जैसा कि यहां प्रस्तुत किया गया है, एक कार्यक्रम द्वारा अर्जित कई को-बेनिफिट्‌स की मात्रा निर्धारित करने और रिपोर्ट करने में सहायता करेगा. उदाहरण के लिए, यदि कोई विकास कार्यक्रम बाढ़ सुरक्षा के को-बेनिफिट्‌स की पेशकश करता है, तो मूल्यांकन और मात्रा निर्धारण के लिए इस रूपरेखा का उपयोग करने से उस कुल जनसंख्या का पता चल सकता है, जो कार्यक्रम के कारण वर्तमान या अपेक्षित बाढ़ स्थितियों के अनुकूल हो गई है. मिटिगेशन यानी शमन के मामले में, यह रूपरेखा कार्बन पृथक्करण की मात्रा के बारे में जानकारी प्रदान करेगी.

यदि विकास कार्यक्रम में एक अच्छी तरह से कार्य करने वाली MIS है, तो परिणामों को सिस्टम पर नियमित रिपोर्टिंग के भाग के रूप में शामिल किया जा सकता है. यदि यह संभव नहीं है, तो परिणाम को शोकेस करने या प्रदर्शित करने के लिए MGNREGS-SDG डैशबोर्ड जैसा एक अलग पोर्टल बनाया जा सकता है. एक विकास कार्यक्रम के कई इच्छित और अनपेक्षित को-बेनिफिट्‌स को सीधे SDG, NDC और अनुकूलन संचार पर देश की रिपोर्टिंग आवश्यकताओं में शामिल किया जा सकता है.

निष्कर्ष

जैसा कि G20 दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को कार्य योजना प्रदान करता है, यह मंच सतत विकास प्राप्त करते हुए अनपेक्षित जलवायु कार्रवाइयों पर सहयोग और रिपोर्टिंग की प्रक्रिया को भी बढ़ावा दे सकता है. आने वाले दशकों में तापमान और वर्षा बढ़ने का अनुमान है. इसके अलावा, अत्यधिक वर्षा और हीटवेव की घटनाओं, चक्रवातों और बाढ़, शुष्क दौर या सूखे और भूस्खलन के दूसरे क्रम के प्रभावों की तीव्रता और बारंबारता में वृद्धि होने की संभावना है.

इसलिए, समर्पित जलवायु कार्रवाइयों के माध्यम से महसूस किए गए क्लाइमेट बेनिफिट्‌स महत्वपूर्ण है , लेकिन पर्याप्त नहीं हैं. यहां प्रस्तावित रूपरेखा को विकास कार्यक्रमों की निगरानी और रिपोर्टिंग प्रक्रिया में एकीकृत करना ज़रूरी है. रूपरेखा विकास कार्यक्रमों की प्रभावशीलता का आकलन करने और क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स को बढ़ाने के लिए, यदि आवश्यक हो, पाठ्यक्रम सुधारों को शामिल करने का अवसर भी प्रदान करती है.


 

(श्रेय: तशिना मडप्पा चेरंडा et al., “ए फ्रेमवर्क फॉर क्वॉन्टिफाइंग द क्लाइमेट को-बेनिफिट्‌स ऑफ डेवलपमेंट प्रोग्राम्स्‌,” T20 पॉलिसी ब्रीफ, मई 2023.)

 


 

[1] IPCC, “Climate Change 2022: Impacts, Adaptation, and Vulnerability,” in Working Group II Contribution to the Sixth Assessment Report of the Intergovernmental Panel on Climate Change, eds. Hans-Otto Pörtner et. al. (Cambridge and New York: Cambridge University Press, 2022), 3056, doi: 10.1017/9781009325844.

[2] IPCC, “Annex II: Glossary,” in Climate Change 2014: Synthesis Report. Contribution of Working Groups I, II and III to the Fifth Assessment Report of the Intergovernmental Panel on Climate Change, eds. Katharine J. Mach, Serge Planton and Christoph von Stechow. (IPCC, Geneva, Switzerland, 2014), 117–130.

[3] “What You Need to Know About Climate Co-Benefits,” The World Bank, March 11, 2021.

[4] Ministry of Rural Development, “Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Act, 2005: Annual Master Circular 2021-22, Ministry of Rural DevelopmentDepartment of Rural Development, Government of India (2022), 19.

[5] Ian Scott and Ting Gong, “Coordinating Government Silos: Challenges and Opportunities,” Global Public Policy and Governance 1 (2021): 20–38.

[6] “Rural population (% of total population) – India,” The World Bank, accessed March 4, 2023.

[7] Reserve Bank of India, “Handbook of Statistics on the Indian Economy, Reserve Bank of India (2021-22).

[8] “Prime Minister to launch PM GatiShakti on 13th October,” Press Information Bureau DelhiOctober 12, 2021.

[9] CSTEP, “A framework for quantifying the climate co-benefits of MGNREGS works,” CSTEP (2023).

[10] Ashok Khosla, “Managing our Natural Resources for the Benefit of All,” MAHB Blog (2017).