खाद्य सुरक्षा और पोषण के लिए फूड सिस्टम का दृष्टिकोण

R.V. Bhavani | Shoba Suri

 

सार

फ़िलहाल दुनिया में अल्प-पोषण में बढ़ोतरी के साथ-साथ ज़्यादा वज़न, मोटापे और ग़ैर-संक्रामक बीमारियों के प्रसार में इज़ाफ़ा दिखाई दे रहा है. खाद्य प्रणाली का दृष्टिकोण (खेत-खलिहान से भोजन की थाली तक) अपनाए बिना खाद्य सुरक्षा और पोषण से जुड़े मसलों का निपटारा मुमकिन नहीं हो पाएगा. बेशक़, सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) की ओर प्रगति को रफ़्तार देने को लेकर खाद्य प्रणालियों के कायाकल्प के लिए 2021 में देशों ने राष्ट्रीय मार्गों का विकास किया. न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान आयोजित संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणालियों के सम्मेलन (UNFSS) के हिस्से के तौर पर इस क़वायद को अंजाम दिया गया. उसी साल G20 ने सतत खाद्य सुरक्षा और पोषण की ओर कार्रवाइयों को प्राथमिकता देने के लिए मटेरा घोषणापत्र को स्वीकार कर लिया. ये पॉलिसी ब्रीफ़ खाद्य प्रणालियों के कायाकल्प में सहायता पहुंचाने को लेकर G20 के लिए सिफ़ारिशें पेश करता है.

1. चुनौती

वैश्विक खाद्य सुरक्षा और पोषण के स्तर पर 2022 की रिपोर्ट में अल्प-पोषण के प्रसार में बढ़ोतरी दर्ज की गई. इस कड़ी में भुखमरी से जुड़े मसले, ख़ासतौर से अफ़्रीका (आबादी का 20.3 प्रतिशत), एशिया (9.1 प्रतिशत), और लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्र (8.6 प्रतिशत) में केंद्रित पाए गए.[i] सामाजिक-आर्थिक कारकों की वजह से देशों के भीतर और आपस में भारी विविधताएं मौजूद हैं. विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 में आमदनी और परिसंपत्तियों के मालिक़ाना हक़ में अंतरों को रेखांकित किया गया है. दुनिया की सबसे अमीर 10 प्रतिशत आबादी के खाते में वैश्विक आमदनी का 52 प्रतिशत और दौलत का 76 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि नीचे की आधी आबादी के पास आमदनी का सिर्फ़ 8.5 प्रतिशत और दौलत का महज़ 2 प्रतिशत हिस्सा है.[ii]

2022 में दुनिया कोविड-19 महामारी से तो उबर गई लेकिन यूक्रेन में छिड़े युद्ध ने अर्थव्यवस्थाओं पर असर डाला. मानव के अस्तित्व पर ख़तरा पेश कर रहा जलवायु परिवर्तन इस चुनौती को और जटिल बना देता है. कोविड महामारी वैश्विक समुदाय के अंतर-संपर्कों और ग़रीब आबादी की असुरक्षाओं को सतह पर ले आई. आज दुनिया के किसी एक हिस्से में होने वाले युद्ध और टकराव से समूचे विश्व की खाद्य क़ीमतें प्रभावित होती हैं. भले ही अल्प-विकसित देशों में ग्रीनहाउस गैसों (GHG) का उत्सर्जन विकसित देशों के मुक़ाबले कम हो लेकिन समृद्ध और अधिक विकसित राष्ट्रों के मुक़ाबले ग़रीब और कम विकसित देशों पर जलवायु परिवर्तन का ज़्यादा प्रभाव होता है. एक ओर जहां कई देश अल्प-पोषण से जूझ रहे हैं वहीं दूसरी ओर अधिक वज़न और मोटापे के साथ-साथ ग़ैर-संक्रामक बीमारियों (NCDs) के प्रसार की चुनौती भी लगातार बढ़ती जा रही है. खेती के लिए और ज़मीन, मवेशियों के लिए चाराग़ाह, और बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए ऊर्वरक और जल संसाधनों की बढ़ती ज़रूरत का वैश्विक पर्यावरण के हालात पर संदर्भित प्रभाव होगा.[iii]

कृषि, खाद्य प्रणालियों और आधुनिक खानपान का पर्यावरण पर प्रभाव

1961 के बाद प्रति व्यक्ति खाद्य उत्पादन की मात्रा में 30 प्रतिशत से भी ज़्यादा की बढ़ोतरी हो चुकी है, लेकिन उत्पादन में हुआ ये इज़ाफ़ा रासायनिक पदार्थों और जल संसाधनों के बेतरतीब इस्तेमाल के बूते मुमकिन हुआ है. बताया जाता है कि भूमिगत जल के दोहन की दर 1960 में 312 किमी3 प्रति वर्ष थी, जो साल 2000 में बढ़कर 734 किमी3 प्रति वर्ष के स्तर तक पहुंच गई, जबकि इसी कालखंड में भूमिगत जल में गिरावट की दर 126 किमी3 प्रति वर्ष से बढ़कर साल 2000 में 283 किमी3 प्रति वर्ष हो गई.[iv] नाइट्रोजन ऊर्वरक की खपत में 800 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है, जबकि सिंचाई के काम आने वाले पानी के इस्तेमाल में 100 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है. इसका पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. उधर, खाद्य उत्पादन में ज़ोरदार वृद्धि के बावजूद भुखमरी और कुपोषण अब भी बरक़रार है. 2050 तक विश्व की आबादी 10 अरब तक पहुंच जाने का अनुमान है, ऐसे में टिकाऊ तरीक़े से पर्याप्त भोजन के उत्पादन की चुनौती और विकराल हो जाएगी.[v]

फ़िलहाल दुनिया में लगभग 80 करोड़ लोग अल्प-पोषण के शिकार हैं, जबकि दो अरब वयस्क अधिक शारीरिक वज़न या मोटापे से ग्रस्त हैं. साथ ही तक़रीबन 2 अरब लोग सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से भी जूझ रहे हैं.a,[vi] खानपान की ग़लत आदतों और आहार में सघन पोषक खाद्य पदार्थों का अभाव दुनिया भर में पोषण और मोटापे से जुड़ी बीमारियों के मुख्य कारण हैं. इसके साथ ही कृषि के आधुनिक तौर-तरीक़े पर्यावरण के सामने संकट पैदा कर रहे हैं. दरअसल ये तमाम गतिविधियां विश्व के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों में 16 प्रतिशत से लेकर 27 प्रतिशत तक का योगदान दे रही हैं. इसका ताज़े पानी में प्रदूषण, मिट्टी के कटाव और जैव-विविधता की हानि में भी हाथ है.[vii] पर्यावरण और स्वास्थ्य के परिणामों में सुधार के लिए खाद्य प्रणालियों का तालमेल बिठाना 21वीं सदी की सबसे ज्वलंत चिंताओं में से एक है.

एक ओर खाद्य उत्पादन जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रहे है, वहीं दूसरी ओर दुनिया में उत्पादित खाद्य पदार्थों (खेतों में और खेतों से दूर) के एक तिहाई हिस्से का या तो नुक़सान हो जाता है या वो बर्बाद चला जाता है.[viii] खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के मुताबिक दुनिया में मानवीय गतिविधियों के चलते ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन का तक़रीबन 8 प्रतिशत हिस्सा (या 4.4 GtCO2b eq) हर साल खाद्य पदार्थों के वैश्विक नुक़सान और बर्बादी के चलते पैदा होता है (चित्र 1 देखिए). साथ ही FAO ने ज़ोर देकर कहा है कि बर्बादियों का कार्बन के मोर्चे पर सबसे बड़ा योगदान, उपभोग के चरण में होता है, हालांकि, खाद्य पदार्थों की कुल बर्बादी में उपभोग का हिस्सा सिर्फ़ 22 प्रतिशत है. बताया जाता है कि इसकी वजह ये है कि जैसे-जैसे हम खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में आगे बढ़ते हैं बर्बादी ज़्यादा कार्बन-सघन होती चली जाती है.[ix]

आकलनों के मुताबिक फ़िलहाल भोजन की जिस मात्रा की हानि या बर्बादी हो रही है, अगर उसके एक चौथाई हिस्से को बचा लिया जाए तो दुनिया भर में 87 करोड़ लोगों का पेट भरने के लिए पर्याप्त भोजन का इंतज़ाम हो जाएगा. भूख से जुड़ी समस्या का सामना कर रहे लोगों का सबसे बड़ा अनुपात भारत में मौजूद है (तक़रीबन 19.46 करोड़).[x] खाद्य पदार्थों का अधिकतम नुक़सान खेत-खलिहान से भोजन की थाली (ख़ासतौर से शहरी बाज़ारों में) तक आवागमन के दौरान होता है. ये हानि आमदनी में गिरावट के ज़रिए ना सिर्फ़ उत्पादकों पर बल्कि बढ़ी लागतों के रूप में उपभोक्ताओं पर भी असर डालती है. इतना ही नहीं, इससे कुल मिलाकर खाद्य सुरक्षा को भी चुनौती पेश आती है.

चित्र 1: देशों के हिसाब से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन

 

वैश्विक पोषण में तीन क़वायदों के बीच चुनाव की चुनौती में आहार, स्वास्थ्य और पर्यावरण से जुड़े मसलों का निपटारा शामिल है. इस सिलसिले में इनकी पारस्परिक निर्भरता के प्रति जागरूक रहते हुए इनमें से किसी भी पहलू के साथ किसी भी तरह की कटौती नहीं होनी चाहिए.[xi] वैश्विक स्तर पर बीमारियों के कुल बोझ का तीन-चौथाई हिस्सा आहार से जुड़े मौजूदा रुझानों का नतीजा हैं. साथ ही आहार से संबंधित बीमारियों के पर्यावरणीय प्रभावों में भी ज़बरदस्त बढ़ोतरी हो गई है. बताया जाता है कि दुनिया भर में मधुमेह या डायबीटीज़ के प्रसार में हुई 80 प्रतिशत बढ़ोतरी के लिए खानपान की आदतें ज़िम्मेदार हैं.

2018 में हुई वयस्कों की कुल मौतों के 26 प्रतिशत हिस्से के लिए अपर्याप्त खानपान को ज़िम्मेदार बताया गया था. इस प्रकार जिन 1.2 करोड़ लोगों की मौत हुई थी, उन्हें रोका जा सकता था. 2021 वैश्विक पोषण रिपोर्ट के मुताबिक 2010 के बाद से आहार से जुड़ी मृत्यु दर (जिसे रोका जा सकता था) में 15 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है, जो जनसंख्या में 10 प्रतिशत की दर से हुई बढ़ोतरी से भी आगे निकल गई.[xii] आहार में सस्ते और प्रॉसेस्ड खाद्य पदार्थों का दबदबा हो जाने के चलते कृषि-खाद्य उद्योग के रुझान बदल रहे हैं. इसका पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा है क्योंकि इससे मेटाबॉलिक और पोषण-संबंधी बीमारियों का प्रसार बढ़ गया है.

कोविड-19 के प्रभाव

कोविड-19 संकट ने इस हालात को और विकट बना दिया. यूनिसेफ़ के मुताबिक महामारी के चलते पोषण कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में 30 प्रतिशत की कमी आई; जबकि लॉकडाउन के दौर में ये गिरावट 75-100 प्रतिशत के ऊंचे स्तरों तक पहुंच गई. 2020 में पांच साल से कम उम्र वाले तक़रीबन 14.9 करोड़ बच्चे बौनेपन के शिकार पाए गए, यानी उनकी लंबाई उनके उम्र के हिसाब से कम थी, जबकि 4.5 करोड़ बच्चे कमज़ोर या दुर्बल पाए गए यानी उनका वज़न उनकी लंबाई के मुक़ाबले काफ़ी कम पाया गया. इसी तरह 3.9 करोड़ बच्चों का वज़न ज़रूरत से ज़्यादा पाया गया.[xiii] प्रजनन आयु वाली महिलाओं में से एक तिहाई आबादी ख़ून की कमी यानी एनीमिया से पीड़ित पाई गईं.[xiv] इन सबके मिले-जुले परिणाम अब उभरकर सामने आने शुरू हुए हैं और इनका दीर्घकालिक असर होने की आशंका है. ख़ासतौर से महामारी के दौरान मातृत्व और बाल स्वास्थ्य के साथ-साथ पोषण सहायता की डांवाडोल स्थिति के दुष्परिणाम देखने को मिल सकते हैं.

महामारी ने आजीविका पर भी असर डाला; इस संदर्भ में किए गए सूक्ष्म सर्वेक्षणों से पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं पर इसका ज़्यादा असर होने का ख़ुलासा हुआ है. इन अनुभवों से कई सबक़ सीखने को मिले हैं. इनमें इंसान, पशु और धरती की सेहत के अंतर-संपर्कों और ‘एक स्वास्थ्य’ के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत शामिल हैं. महामारी के चलते हुए नुक़सानों की भरपाई करना आज एक चुनौती बन गई है. जलवायु के हिसाब से लोचदार कृषि खाद्य प्रणालियां तैयार करना और भविष्य के लिए पहले से ज़्यादा टिकाऊ और सतत व्यवस्थाओं के लिए रास्ता साफ़ करना भी निहायत ज़रूरी है.[xv]

 

2. G20 की भूमिका

2021 में दुनिया के अनेक देशों ने सतत विकास लक्ष्यों की ओर प्रगति में रफ़्तार भरने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अपनाए जाने वाले मार्गों के विकास की प्रक्रिया शुरू कर दी. संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणाली सम्मेलन के हिस्से के तौर पर इस क़वायद को अंजाम दिया जा रहा था.[xvi] इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने को लेकर कार्ययोजना से जुड़े कई गठजोड़ उभर चुके हैं. इनमें ज़ीरो हंगर, क्लाइमेट रेज़िलिएंस आदि शामिल हैं. साथ ही 2021 में G20 के देशों ने मटेरा घोषणा पत्र को स्वीकार कर लिया. इसके तहत सदस्य देशों से खाद्य सुरक्षा और पोषण की ओर आगे बढ़ने के लिए प्राथमिकता के हिसाब से कार्रवाइयां करने का आह्वान किया गया.[xvii]

इसमें कोई शक़ नहीं कि लचीली खाद्य प्रणालियां सतत खाद्य सुरक्षा और पोषण का आधार हैं. ऐसे में पूरी श्रृंखला की समस्याओं का निपटारा आवश्यक हो जाता है. इस दायरे में उत्पादन, फ़सलों की कटाई और तैयारी, भंडारण, और उपज के बाद मूल्य वर्धन के लिए की जाने वाली प्रॉसेसिंग के साथ-साथ मार्केटिंग और उपभोग शामिल है. G20 के देश बेहतरीन तरीक़े साझा कर इस क़वायद की अगुवाई कर सकते हैं. साथ ही ज्ञान का आदान-प्रदान करके, तकनीकी और वित्तीय सहायता सुनिश्चित करके, गठबंधनों को प्रोत्साहित करके और नीति-निर्माण को प्रभावित करके इस प्रक्रिया को अंजाम दिया जा सकता है.

साल 2015 से ही G20 खाद्य पदार्थों के नुक़सान और बर्बादी (FLW) को कम करने को लेकर रणनीतियां तैयार करने में अहम भूमिका निभाता आ रहा है. जर्मनी इस सिलसिले में नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहा है. G20 के कृषि वैज्ञानिकों की बैठक के कार्यक्रम के तहत खाद्य पदार्थों की हानि और बर्बादी को कम करने के लिए 2017 से सालाना कार्यशालाओं का छह बार आयोजन किया जा चुका है. G20 के कई देश ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन के 80 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार हैं और इसको कम करने के लिए COP27 की प्रतिबद्धताओं के हिसाब से ज़रूरी क़दम उठाए जाने का आह्वान किया गया है.c

3. G20 के लिए सिफ़ारिशें

पहले से ज़्यादा सतत खाद्य प्रणालियों के पोषण के लिए तात्कालिक तौर पर क़दम उठाए जाने की दरकार है. जलवायु-स्मार्ट खेती (CSA) या सतत कृषि एक एकीकृत रणनीति है जिसके तहत मवेशियों के पालन-पोषण और फ़सलों उगाने के लिए जलवायु-अनुकूल तौर-तरीक़ों को शामिल किया जाता है.[xviii] खेतीबाड़ी की टिकाऊ प्रणालियां अपनाना, स्वस्थ भोजन पर ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर देना, CSA को बढ़ावा देना और खाद्य उत्पादन की पूरी आपूर्ति श्रृंखलाओं में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए उपायों को अपनाना- ये सारी रणनीतियां संपूर्ण खाद्य प्रणाली में टिकाऊपन से जुड़े मसले के निपटारे के लिए आवश्यक हैं.[xix]

खाद्य प्रणाली रुख़ (चित्र 2 देखिए) आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय स्थिरता के आयामों का निपटारा करती है.

चित्र 2: खाद्य प्रणालियों का दृष्टिकोण

Source: https://www.fao.org/3/ca2079en/CA2079EN.pdf 

2021 में UNFSS के समापन के दौरान कार्रवाई के लिए पांच क्षेत्रों को रेखांकित किया गया था. ये टिकाऊ खाद्य प्रणालियों की ओर आगे बढ़ने के लक्ष्य के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय आयामों का निपटारा करते हैं. इनमें: i) सभी लोगों को पोषण मुहैया कराने; ii) प्रकृति-आधारित समाधानों को बढ़ावा देने; iii) न्यायसंगत आजीविकाओं, सम्मानजनक कामकाज और सशक्त समुदायों को आगे बढ़ाने; iv) असुरक्षाओं, कमज़ोरियों, झटकों और दबावों के प्रति लचीले रुख़ का निर्माण करने; और v) क्रियान्वयन के साधनों को तेज़ करने; की बात कही गई है.

कार्रवाई के क्षेत्र आपस में जुड़े हुए हैं, पर्यावरण-अनुकूल तरीक़े से स्वस्थ और पोषक खाद्य पदार्थों के उत्पादन से जुड़े ऐसे विचारों को आगे बढ़ाना ‘सबके लिए पोषण’ के सिद्धांत का आधार है. पोषक आहार तक पहुंच बनाने के लिए न्यायसंगत आजीविकाओं और आमदनियों की आवश्यकता है; साथ ही झटकों और तनावों- प्राकृतिक (जैसे भूकंप, बाढ़) और मानव-निर्मित (जैसे कोविड-19 महामारी) के प्रति लचीला रुख़ रखना खाद्य उपलब्धता और आजीविका सुनिश्चित करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है; और पांचवां कार्य क्षेत्र ज़रूरी साधनों या संसाधनों के जुगाड़ से जुड़ा है, जिसमें बाक़ी के चारों कार्य क्षेत्र शामिल हो जाते हैं.

राष्ट्रीय आहार दिशानिर्देशों की समीक्षा किया जाना भी ज़रूरी है ताकि उसे पर्यावरणीय तौर पर टिकाऊ बनाया जा सके. इस तरह वैश्विक प्रमाण को स्थानीय संदर्भों के साथ संतुलित किया जा सकेगा और समानता से जुड़े विचारों को भी आगे बढ़ाया जा सकेगा.[xx]

मिसाल बन चुके कार्यक्रम

मौजूदा समय में खाद्य सुरक्षा के कई ऐसे कार्यक्रम हैं जो अब तक बेहतरीन ढंग से कारगर रहे हैं. इनके साथ-साथ सामाजिक सुरक्षा जाल के अनेक उपायों और नीतिगत कार्यक्रमों के भी नतीजे शानदार रहे हैं. खाद्य प्रणाली के अलग-अलग पहलुओं में मज़बूती लाने के लिए दूसरे भी इनको अपने यहां दोहरा सकते हैं. ग्लोबल साउथ से ताल्लुक़ रखने वाले G20 के देशों की बात करें तो ब्राज़ील का फ़ोमो ज़ेरो, भारत का राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), और चिली और मैक्सिको का फ़्रंट-ऑफ़-पैकेज फ़ूड लेबलिंग कार्यक्रम सबकी सलामती सुनिश्चित करने की दिशा में समावेशी रुख़ों की चंद मिसालें हैं.

भारत ने 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू करके ‘भोजन के अधिकार’ को क़ानूनी अधिकार बना दिया है. भारत दुनिया के सबसे बड़े खाद्य वितरण कार्यक्रमों से एक का संचालन कर रहा है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली, सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील्स (MDMs), और एकीकृत बाल विकास सेवाओं (ICDS) के तहत गर्भवती महिलाओं, बच्चों को दूध पिलाने वाली माताओं और शून्य से छह साल तक के बच्चों को पूरक पोषण मुहैया कराए जा रहे हैं. पोषण में सुधार लाने के लिए पोषक तत्वों से भरपूर मोटे अनाजों (जिन्हें श्री अन्न भी कहा जा रहा है) और दालों को प्रोत्साहित किए जाने की क़वायद भी इस अधिनियम के दायरे में शामिल है. मोटे अनाज और दालें जलवायु के हिसाब से लचीले, वर्षा जल से सिंचित होने वाली फ़सल हैं, जो जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों के रोकथाम में मददगार हो सकते हैं.

इस बीच स्कूलों में फलों और सब्ज़ियों के ‘पोषण उद्यान’ उगाए जा रहे हैं और उनकी उपज को मध्यान्ह भोजन (midday meals) में शामिल किया जा रहा है. इस तरह ताज़ी सब्ज़ियों के सेवन को बढ़ावा दिया जा रहा है. कुपोषण से जंग को प्राथमिकता बनाकर राष्ट्रीय स्तर पर पोषण अभियान का आग़ाज़ किया गया है ताकि सतत विकास लक्ष्य 2 (शून्य भुखमरी) की ओर आगे बढ़ा जा सके. क़रीब दो दशकों तक माताओं और उनके बच्चों के राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्वकारी आंकड़ों के इस्तेमाल के ज़रिए किए गए अध्ययन से पता चला है कि 2006 से 2016 के बीच बच्चों में आयु के हिसाब से लंबाई के Z-स्कोर (HAZ) में सुधार से मध्यान्ह भोजन का संबंध रहा था.[xxi] इस अध्ययन में 10 से 13 साल की आयु वाले बच्चों के समूहों में तुलना की गई. एक समूह के बच्चों को अपने जीवन के शुरुआती तीन वर्षों में ICDS योजनाओं से पूरा-पूरा लाभ मिला था, जबकि दूसरे समूह के बच्चे जीवन के उसी कालखंड में एकीकृत बाल विकास योजनाओं से पूरी तरह वंचित रहे थे. दोनों समूहों में तुलनात्मक अध्ययन से पता चला कि ICDS पोषण योजनाओं का लाभ उठा चुके बच्चों में लंबाई और वज़न में सुधार के वैसे ही प्रमाण सामने आए जिनकी ऊपर चर्चा की गई है.[xxii]

इसी कार्यक्रम के अनुरूप 2004 में ब्राज़ील में फ़ोमे ज़ीरो कार्यक्रम का आग़ाज़ किया गया. ये कार्यक्रम तीन स्तंभों पर आधारित है, जिनमें (i) निम्न-आय वाले परिवारों के लिए पारिवारिक भत्ता या बोल्सा फ़ैमिलिया नक़द हस्तांतरण कार्यक्रम; (ii) राष्ट्रीय स्कूल पोषण कार्यक्रम; और (iii) किसान परिवारों के लिए सब्सिडी; शामिल हैं. इस सदी के पहले दशक में ग़रीबी, भुखमरी और अल्प-पोषण में गिरावट का दौर दिखाई दिया.[xxiii]

फ़ूड लेबलिंग सार्वजनिक स्वास्थ्य के मोर्चे पर एक और उपयोगी रणनीति है, इसका लक्ष्य उपभोक्ताओं को अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थों के ख़तरों को लेकर चेतावनी देना है. इनमें नमक, चीनी और ट्रांस-फ़ैट्स की भरमार वाली अल्ट्रा-प्रॉसेस्ड खाद्य सामग्रियां शामिल हैं. चिली और मैक्सिको जैसे देशों ने फ़ूड लेबलिंग के उपाय लागू भी कर दिए हैं.

मैक्सिको में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि 2020 में लागू किए गए फ़ूड लेबलिंग के उपायों से स्वास्थ्य और पोषण से जुड़े फ़र्जी दावों को चुनौती दी जा सकती है. ग़ौरतलब है कि प्रोसेस्ड और अल्ट्रा-प्रॉसेस्ड खाद्य पदार्थों वाले ब्रांड्स अक्सर ऐसे दावे करते रहते हैं. मैक्सिको में उठाए गए क़दम से उपभोक्ता सूचना और जागरूकता के स्तरों में सुधार लाया जा सकता है.[xxiv] चिली में 2016 में खाद्य पदार्थों की पैकेजिंग के सामने वाले हिस्से में चेतावनी भरी सूचनाएं लगाने का क़दम उठाया गया था. वहां किए गए एक अध्ययन से पता चला कि ऐसे उपायों के अस्तित्व में नहीं रहने वाले कालखंड के मुक़ाबले ऐसे बदलावों वाली मियाद में अस्वास्थ्यकर भोजन सामग्रियों की सकल ख़रीद में काफ़ी गिरावट दर्ज की गई. इन खाद्य पदार्थों में कैलोरी, चीनी, सैचुरेटेड फ़ैट्स और सोडियम से भरपूर पदार्थ शामिल थे.[xxv]

इस बीच बांग्लादेश (जो जलवायु के हिसाब से बेहद असुरक्षित देश होने के साथ-साथ G20 का अतिथि राष्ट्र है) ने मुजीब जलवायु समृद्धि योजना की शुरुआत की है. इसका लक्ष्य असुरक्षित हालात से लचीलेपन की ओर और उसके बाद समृद्धि की ओर आगे बढ़ना है.[xxvi] इस योजना का लक्ष्य प्रभावी वित्तीय उपकरणों और मॉडलों के ज़रिए असुरक्षित आबादियों को ऐसी क्षमताओं से लैस करना है जिससे वो जोख़िमों का बेहतर ढंग से प्रबंधन करते हुए लोचदार और मज़बूत बन सकें. जलवायु परिवर्तन से जंग की क़वायद में बांग्लादेश का ये रुख़ जलवायु के मोर्चे पर असुरक्षा का सामना कर रहे अन्य देशों के लिए मॉडल बन सकता है.

ये दृष्टिकोण खाद्य असुरक्षा के निपटारे में राजनीतिक प्रतिबद्धता और प्रशासन की अहमियत को रेखांकित करते हैं, साथ ही दूसरे देशों के लिए कारगर उदाहरण भी पेश करते हैं. ख़ासतौर से दक्षिण एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका के साथ-साथ कैरेबियाई देशों (जो इससे मिलते-जुलते मसलों से जूझ रहे हैं) के लिए ये उपयोगी साबित हो सकते हैं.

सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कुपोषण के सभी स्वरूपों से जंग की दिशा में होने वाला निवेश, G20 के एजेंडे में शीर्ष पर होना चाहिए. इसके लिए स्वास्थ्य व्यय में समान रूप से बढ़ोतरी, सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण जागरूकता रणनीतियों के क्षेत्र में स्थायित्व और लैंगिक स्तर पर समावेशी दृष्टिकोण अपनाए जाने की ज़रूरत है. इसके अलावा टेक्नोलॉजी में निवेश और उसका प्रभावी इस्तेमाल और फ़ूड लेबलिंग जैसे नियामक उपायों की भी समान रूप से दरकार होगी.

मुख्य सिफ़ारिशें


एट्रीब्यूशन: आर वी भवानी और शोभा सूरी, “ए फ़ूड सिस्टम एप्रोच टू फ़ूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन,” T20 पॉलिसी ब्रीफ़, मई 2023.


ENDNOTES

a कुपोषण को अल्प-पोषण या अति-पोषण और/या सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी (जिसे ‘छिपी भूख’ भी कहा जाता है) वाली अवस्था के तौर पर परिभाषित किया गया है.

b एक अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड

[i] FAO, IFAD, UNICEF, WFP and WHO, “The State of Food Security and Nutrition in the World 2022. Repurposing Food and Agricultural Policies to Make Healthy Diets More Affordable,” 2022.

 

[ii] L. Chancel et al. “World Inequality Report 2022,” World Inequality Lab, wir2022.wid.world.

 

[iii] Shoba Suri and Subhasree Ray, “Building Climate-Resilient Food Systems,” Observer Research Foundation, ORF Issue Brief No. 566, August 2022.

 

[iv] Yoshihide Wada et al., “Global Depletion of Groundwater Resources,” Geophysical Research Letters 37, no. 20 (2010).

 

[v] FAO, IFAD, UNICEF, WFP and WHO, “The State of Food Security and Nutrition in the World 2022”

 

[vi] FAO, IFAD, UNICEF, WFP and WHO, “The State of Food Security and Nutrition in the World 2022”

 

[vii]Summary for Policymakers,” Climate Change and Land: An IPCC Special Report on Climate Change, Desertification, Land Degradation, Sustainable Land Management, Food Security, and Greenhouse Gas Fluxes in Terrestrial Ecosystems, 2019.

 

[viii] Joseph Poore et al., “Reducing Food’s Environmental Impacts Through Producers and Consumers,” Science 360 (2018): 987-992.

 

[ix] Food and Agriculture Organization, “Food Wastage Footprint & Climate Change,” 2015.

 

[x] Mucahit Turetken, “One-Fourth of Wasted Food Could Feed 870 Million People: Expert,Anadolu Agency, January 27, 2021.

 

[xi] Michael Clark et al., “The Diet, Health, and Environment Trilemma,” Annual Reviews 43 (2018): 109-134.

 

[xii]2021 Global Nutrition Report: The State of Global Nutrition,” Development Initiatives.

 

[xiii] UNICEF, “Tackling the Situation of Children During Covid-19,” November 2021.

 

[xiv] World Health Organization, “Anaemia,” 2021.

 

[xv] World Health Organization, “UN Report: Pandemic Year Marked by Spike in World Hunger,” July 12, 2021.

 

[xvi] United Nations, “The Food Systems Summit,” September 23, 2021.

 

[xvii]Matera Declaration on Food Security, Nutrition and Food Systems. A Call to Action in the Time of the Covid-19 Pandemic and Beyond,” G20.

 

[xviii] Food and Agricultural Organization, “Climate-Smart Agriculture”.

 

[xix] Food and Agriculture Organization, “Sustainable Food Systems: Concept and Framework,” 2021.

 

[xx] Renzo R. Guinto et al., “Health Sector Solutions for Promoting Sustainable and Nutritious Diets,” BMJ 378 (2022).

 

[xxi] Suman Chakrabarti et al., “Intergenerational Nutrition Benefits of India’s National School Feeding Program,” Nature Communications 12, no. 1 (2021): 4248.

 

[xxii] Gaurav Dhamija et al., “Lasting Impact of Early Life Interventions: Evidence from India’s Integrated Child Development Services,” The Journal of Development Studies 57, no. 1 (2021): 106-138.

 

[xxiii]The Fome Zero (Zero Hunger) Program: The Brazilian Experience,” FAO, 2010.

 

[xxiv] Carlos Cruz-Casarrubias et al., “Estimated Effects of the Implementation of the Mexican Warning Labels Regulation on the Use of Health and Nutrition Claims on Packaged Foods,” International Journal of Behavioral Nutrition and Physical Activity 18, no. 1 (2021): 1-12.

 

[xxv] Lindsey Smith Taillie et al., “Changes in Food Purchases After the Chilean Policies on Food Labelling, Marketing, and Sales in Schools: A Before and After Study,The Lancet Planetary Health 5, no. 8 (2021): e526-e533.

 

[xxvi]Mujib Climate Prosperity Plan 2030,” December 2021.