भारत की G20 अध्यक्षता में ब्लू इकॉनमी: परोपकार का इरादा न हो कर, विकास की ज़रूरत है!

ब्लू इकॉनमी की वैश्विक अहमियत को देखते हुए भारत की G20 अध्यक्षता अपने साथ एक ऐसा अनूठा अवसर ले आई है, जिससे विकास, हरित अर्थव्यवस्था और सामाजिक समानता के लिए ब्लू इकॉनमी को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.
SRINATH SRIDHARAN | NILANJAN GHOSH

 

भारत की G20 अध्यक्षता के दौरान ब्लू इकॉनमी (BE) का लक्ष्य इस बात से और अहम हो जाता है कि विकसित देशों की तुलना में, विकासशील देशों के लिए इसका बिल्कुल अलग महत्व है. ये अंतर आम तौर पर पर्याप्त रूप से नहीं समझा जाता है. भारत द्वारा इंडोनेशिया से G20 की अध्यक्षता ग्रहण करना इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि इससे भारत, G20 की अध्यक्षता करने वाले तीन विकासशील देशों (इंडोनेशिया, भारत और ब्राज़ील) में बीच की कड़ी बन गया है. ऐसे में अब अध्यक्ष के तौर पर ये भारत की ज़िम्मेदारी है कि वो विकासशील देशों की दृष्टि से ब्लू इकॉनमी की महत्ता को और प्राथमिकता देकर बताए.

 

अब तक ब्लू इकॉनमी की ऐसी कोई परिभाषा नहीं है, जो सभी लोगों को स्वीकार्य हो. यूरोपीय आयोग की एक सामान्य परिभाषा के अनुसार, ब्लू इकॉनमी का मतलब वो सभी आर्थिक गतिविधियां हैं, जो समुद्री और तटीय इकोसिस्टम से जुड़ी हुई हैं. वहीं, विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र की परिभाषाओं में इसमें टिकाऊपन के आयाम को भी जोड़ा गया है.

यूरोपीय आयोग की एक सामान्य परिभाषा के अनुसार, ब्लू इकॉनमी का मतलब वो सभी आर्थिक गतिविधियां हैं, जो समुद्री और तटीय इकोसिस्टम से जुड़ी हुई हैं.

अब इसमें से कोई चाहे जो परिभाषा स्वीकार करे, लेकिन, ब्लू इकॉनमी की अहमियत इसी तथ्य से समझी जा सकती है कि दुनिया का 80 प्रतिशत व्यापार समुद्र के रास्ते होता है. विश्व की 40 प्रतिशत आबादी समुद्र तटों के पास रहती है और तीन अरब से भी ज़्यादा लोग अपनी रोज़ी-रोटी के लिए समुद्र की मदद लेते हैं. ब्लू इकॉनमी की ‘प्राकृतिक पूंजी’ लगभग 25 ख़रब डॉलर होने का अनुमान लगाया जाता है और इससे हर साल लगभग 2.5 ख़रब डॉलर मूल्य के उत्पाद और सेवाओं का उत्पादन होता है, जो GDP के पैमानों पर दुनिया की सातवीं बड़ी अर्थव्यवस्था के बराबर है.

 

विकासशील देशों के लिए समुद्रों की महत्ता

 

 

विकासशील देशों के लिए महासागरों के महत्व को मानव जीवन और रोज़ी-रोज़गार में उसकी भूमिका से समझा जा सकता है. तटीय क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन से जुड़ी तमाम ज़रूरतें पूरी करने में महासागर बेहद महत्वपूर्ण योगदान देते हैं. इन्हें प्रावधानों की सेवाओं (मछलियों, निर्माण सामग्री, खाना वग़ैरह), नियामक सेवाओं (कार्बन सोखने, कार्बन भंडारण करने, भू-क्षरण रोकने, भयंकर प्राकृतिक स्थितियों में नरमी लाने वग़ैरह), सांस्कृतिक सेवाओं (पर्यटन, मनोरंजन, सौंदर्य और आध्यात्मिक लाभ) और सहयोगी सेवाओं (जंतुओं और स्थानीय तत्वों और पोषण के जीवन चक्र के रख-रखाव में योगदान) में बांटा जा सकता है.

 

द इकॉनमिक्स ऑफ़ इकोसिस्टम्स एंड बायोडायवर्सिटी (TEEB) ने पारिस्थितिकी की इन सेवाओं को ग़रीबों की GDP का नाम दिया है. ये बात विकासशील देशों के तटीय क्षेत्रों में रहने वाले ग़रीब समुदायों के ऊपर भी लागू होती है. इसके अलावा चूंकि महासागर, अगले आर्थिक मोर्चे हैं और महासागरों पर आधारित कई उद्योग तेज़ी से विकसित हो रहे हैं, तो इन्हें पवन ऊर्जा, तटीय एक्वाकल्चर, समुद्र में खनन और समुद्री जेनेटिक जैविक प्रोद्यौगिकी के माध्यम से विकासशील देशों के भविष्य के विकास का इंजन माना जा रहा है.

चूंकि महासागर, अगले आर्थिक मोर्चे हैं और महासागरों पर आधारित कई उद्योग तेज़ी से विकसित हो रहे हैं, तो इन्हें पवन ऊर्जा, तटीय एक्वाकल्चर, समुद्र में खनन और समुद्री जेनेटिक जैविक प्रोद्यौगिकी के माध्यम से विकासशील देशों के भविष्य के विकास का इंजन माना जा रहा है.

इस संदर्भ में ये बात ध्यान देने योग्य है कि अपने मत्स्य उद्योग के ज़रिए दक्षिण एशिया दुनिया के खाने में बड़ा योगदान देता है. बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में पकड़ी जाने वाली मछलियां समुद्री मछली उत्पादन में 80 प्रतिशत योगदान देती हैं. मत्स्य उद्योग भारत में 1.5 करोड़ लोगों को रोज़गार देता है और दुनिया के कुल मत्स्य उत्पादन में 10 अरब रूपयों के साथ भारत का दूसरा स्थान (6.3%) है. इसके अलावा तटीय और समुद्री पर्यटन जो दुनिया की GDP का 5 प्रतिशत है, उससे 2030 तक 85 लाख लोगों को रोज़गार मिलने की उम्मीद की जा रही है (2010 में इसमें 70 लाख लोगों को रोज़गार मिला हुआ था). यानी ये क्षेत्र दक्षिण एशिया में लोगों को बड़े स्तर पर रोज़गार और रोज़ी-रोटी प्रदान करता है.

 

स्थायी विकास के लक्ष्य (SDG) 14 को पूंजी प्रदान करना

 

 

ब्लू इकॉनमी (BE) की पूरी संभावना का उपयोग करने का लक्ष्य अभी बहुत दूर है. इसका मुख्य कारण ब्लू इकॉनमी के क्षेत्र में आविष्कार करने के लिए वित्तीय और मानवीय पूंजी निवेश की कमी है. KPMG द्वारा किए गए हालिया सर्वे में संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास के लक्ष्य (SDG) 14 की पहचान इस तरह की गई है: पानी के नीचे जीवन को निजी क्षेत्र द्वारा स्थायी विकास के लक्ष्य के सबसे कम प्राथमिकता वाले क्षेत्र का दर्जा दिया गया है और इसे केवल 18 प्रतिशत कंपनियां प्राथमिकता देती है.

 

चूंकि SDG 14 को प्राप्त करने के लिए हर साल 174.52 अरब डॉलर के निवेश की ज़रूरत का अनुमान लगाया गया है. जबकि हर साल इस क्षेत्र में सिर्फ़ 25.05 अरब डॉलर ही व्यय किए जा रहे हैं. इससे इस क्षेत्र में निवेश में सालाना 149.02 अरब डॉलर की कमी का आकलन किया गया है. ये बड़ी वित्तीय कमी, दुनिया के उन कमज़ोर तबक़ों की बढ़ती संख्या के लिए ठीक नहीं है, जो अपनी रोज़ी रोटी के लिए महासागरों पर निर्भर हैं. ऐसे में सरकारों और संगठनों के लिए ये आवश्यक है कि वो ब्लू इकॉनमी के विस्तार और इनोवेशन पर ध्यान केंद्रित करें, जिससे कम कार्बन वाले टिकाऊ भविष्य की स्पष्ट राह विकसित हो सके. ब्लू बॉन्ड और ऋण और ब्लू डेरिवेटिव उत्पाद जैसे समुद्र क्षेत्र से जुड़े नए वित्तीय उपकरणों के बारे मे विचार करना होगा, तभी SDG14 के लिए आवश्यक पूंजी जुटाई जा सकेगी.

 

भारत की G20 अध्यक्षता: एक अवसर

 

 

ब्लू इकॉनमी की महत्ता और विशेष रूप से महासागरों पर निर्भर विकासशील देशों के कमज़ोर समुदायों को देखते हुए, भारत की G20 अध्यक्षता अपने साथ एक ऐसा अनूठा अवसर लायी है, जिसमें ब्लू इकॉनमी को विकास, हरित अर्थव्यवस्था और सामाजिक समानता के लक्ष्य पाने के लिए प्राथमिकता दी जा सकती है.

 

चिंता इस बात की है कि विशेष सिद्धांतों या दिशा-निर्देशों के अभाव में राष्ट्रीय ब्लू अर्थव्यवस्थाएं या टिकाऊ महासागरीय अर्थव्यवस्थाओं के आर्थिक विकास पर ज़्यादा ध्यान देने और पर्यावरण को टिकाऊ बनाने और सामाजिक समानता की अनदेखी करने का डर है. ब्लू इकॉनमी के साथ भारत का संवाद लगातार बढ़ रहा है. अब भारत ब्लू इकॉनमी, समुद्री व्यापार और समुद्री सहयोग से जुड़े कई अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संवादों में भागीदार है.

ब्लू इकॉनमी के साथ भारत का संवाद लगातार बढ़ रहा है. अब भारत ब्लू इकॉनमी, समुद्री व्यापार और समुद्री सहयोग से जुड़े कई अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संवादों में भागीदार है.

इस दृष्टि से चूंकि समुद्र मनुष्य द्वारा हर साल उत्पादित की जाने वाले एक तिहाई कार्बन डाई ऑक्साइड को सोखता है और समुद्र में मौजूद लौह स्तर समुद्री पौधों के विकास में मदद करते हैं, जो समुद्र द्वारा कार्बन भंडारण का प्रमुख तत्व हैं. इसके अतिरिक्त रख-रखाव की अधिक लागत और बड़े स्तर पर भंडारण की चुनौती के बाद भी, समुद्र की लहरों से ऊर्जा उत्पादन, हरित ऊर्जा का एक बड़ा स्रोत हो सकता है.

 

इस संदर्भ में 1 नवंबर 2021 को ग्लासगो के पर्यावरण सम्मेलन (COP26) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मिशन LiFE (लाइफस्टाइल फॉर एनवायरमेंट) अपनाने की अपील बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है. समुद्र, मानव के अस्तित्व से जुड़े प्रावधानों, सहयोग करने और नियामक सेवाओं की अत्यंत महत्वपूर्ण सेवाएं देते हैं. इनके संरक्षण के लिए, भारत को G20 की अपनी अध्यक्षता के दौरान समुद्री और तटीय पारिस्थितिकी के बचाव का मुद्दा गंभीरता से उठाना चाहिए. यहां इस बात को समझना होगा कि ब्लू इकॉनमी केवल परोपकार का इरादा नहीं, बल्कि विकासशील देशों की दृष्टि में विकास की आवश्यकता है.


ये लेख मूल रूप से इंडिया टुडे में प्रकाशित हुआ था.