टास्क फोर्स 6: एक्सीलरेटिंग एसडीजीज़: एक्सप्लोरिंग न्यू पाथवेज़ टू द 2030 एजेंडा
इस पॉलिसी ब्रीफ में ‘महामारी संधि’ पर जारी वार्ताओं की चर्चा की गई है. संधि का लक्ष्य वैश्विक सहयोग के स्तर में बढ़ोतरी लाकर महामारी से लड़ने की तैयारियों और प्रतिक्रियाओं में सुधार लाना है. इस दिशा में कई चुनौतियों हैं, जिनमें वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन में समावेश और विविधता का अभाव शामिल है. महामारी की प्रतिक्रिया में समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता और संधि से जुड़ी वार्ता प्रक्रिया और स्वीकार्यता पर असर डालने वाले देशों का सामाजिक दर्जा भी इन्हीं चुनौतियों का हिस्सा हैं.
इन चुनौतियों से निपटने के लिए इस ब्रीफ में समानता को प्राथमिकता दिए जाने का प्रस्ताव किया गया है. साथ ही वैश्विक स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत बनाने, शोध और विकास में निवेश करने, पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने, विविध किरदारों को साथ जोड़ने और मौजूदा रूपरेखाओं के साथ तालमेल बिठाना भी आवश्यक है. महामारी संधि पर मौजूदा समय में जारी वार्ताओं के सिलसिले में G20 को अपने व्यक्तिगत और सामूहिक योगदानों में इन सिद्धांतों को प्राथमिकता देनी चाहिए. इससे ये सुनिश्चित हो सकेगा कि अंतिम मसौदा व्यापक, समावेशी और महामारियों की पेचीदा और बहुआयामी चुनौतियों के निपटारे में प्रभावी हो.
वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन को लेकर एकीकृत दृष्टिकोण की हमेशा से ज़रूरत महसूस की जाती रही है. कोविड-19 महामारी ने इस आवश्यकता को नए सिरे से रेखांकित कर दिया है. तमाम वैश्विक प्रयासों के बावजूद सच्चाई ये है कि विकासशील दुनिया में कोविड-19 से जुड़ी प्रतिरोधकता (immunity) दवा कंपनियों, सरकारों और वैश्विक स्वास्थ्य निकायों के संयुक्त प्रयासों की बजाए पूर्व में हुए संक्रमण का ही नतीजा ज़्यादा है. इससे प्रशासनिक शून्यता के संकेत मिलते हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों में वैश्विक सद्भाव में विश्वास से जुड़ी चर्चाएं अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई हैं. इस अंतर के निपटारे के लिए 2021 में विश्व स्वास्थ्य सभा (WHASS) के एक विशेष सत्र में सदस्य देश एक अंतर सरकारी वार्ता निकाय (INB) का गठन करने को लेकर सर्वसम्मति से तैयार हुए थे. इसका मक़सद विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा महामारी की तैयारी और प्रतिक्रिया के लिए सम्मेलन, समझौते या अन्य अंतरराष्ट्रीय उपकरण तैयार करना है.[1] सबसे पहले चिली और यूरोपीय संघ द्वारा प्रस्तावित ‘महामारी संधि’ को आगे चलकर दुनिया के नेताओं और WHO द्वारा सार्वजनिक अनुमोदन मिलता चला गया है.[2] इस संधि का लक्ष्य भविष्य की महामारियों से लड़ने की तैयारियों में सुधार करना और उनकी प्रतिक्रिया में वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देना है. इस संधि को ज़मीन पर उतारने के लिए वार्ता प्रक्रियाएं अंतर-सरकारी वार्ता निकाय की अगुवाई में जारी हैं. फ़रवरी 2023 में संधि का ज़ीरो ड्राफ्ट प्रस्तुत किया गया था, और अब इससे आगे की क़वायद की जा रही है. उल्लेखनीय है कि ये वार्ताएं कोविड-19 संक्रमण और मृत्यु दरों में ज़बरदस्त असमानताओं की पृष्ठभूमि में आगे बढ़ रही हैं. कोविड-19 के ‘सिंडेमिक यानी जीव-वैज्ञानिक स्वास्थ्य परिणामों’ से पैदा सामाजिक और आर्थिक विषमताएं बढ़ती जा रही हैं. इस संदर्भ में जटिल बीमारियां और स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारक तत्व गंभीर हो गए हैं. महामारी संधि को लेकर भारी-भरकम उम्मीदें हैं और इसे स्वास्थ्य के लिए ‘ब्रेटन वुड्स पल’ का नाम दिया गया है.[3] बहरहाल, इस सिलसिले में कुछ चुनौतियां बरक़रार हैं, जिनपर निश्चित रूप से क़ाबू पाना होगा:
वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन में एक प्रमुख चुनौती है समावेश और विविधता का अभाव. ऐतिहासिक रूप से वैश्विक स्वास्थ्य के क्षेत्र में निर्णय लिए जाने की प्रक्रिया पर चंद मुट्ठी भर देशों का ही दबदबा रहा है. इस सिलसिले में निम्न और मध्यम आय वाले देशों (LMICs) और हाशिए पर पड़ी जनता के स्वरों की अनदेखी होती रही है.[4] इससे वैश्विक स्वास्थ्य प्रणाली को लेकर अविश्वास का वातावरण बना है, जिसने महामारी से निपटने की क़वायद की प्रभावशीलता और निष्पक्षता को नुक़सान पहुंचाया है. वैसे तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की ‘एक देश, एक वोट’ व्यवस्था निर्णय लेने की प्रक्रिया में समानता लाने का इरादा रखती है, लेकिन ऊंची आय वाले देशों ने इसमें अनुपात से ज़्यादा प्रभाव दिखाया है. ख़ासतौर से छोटे-छोटे देशों के संदर्भ में ये बात दिखाई देती है, जिनके शिष्टमंडलों को वार्ता प्रक्रियाओं में ऐतिहासिक रूप से अलग-थलग किया जाता रहा है. इसके बावजूद हालिया वर्षों में ग्लोबल साउथ (विकासशील और अल्प-विकसित क्षेत्र) के देश, ख़ासतौर से अफ्रीकी राष्ट्र, वार्ताओं में अपनी प्रभावशीलता बढ़ाने वाली क़वायदों में समन्वय बिठाने में ज़्यादा प्रभावी साबित हो रहे हैं.[5] कोविड-19 को लेकर वैश्विक प्रतिक्रिया में कई तरह की ऐतिहासिक कमियां साफ़ तौर पर उभरकर सामने आईं हैं. ऐसे में महामारी संधि अंतिम तौर पर महामारी के ख़तरों की सबसे ज़्यादा ज़द में रहने वाली आबादियों के हितों का प्रदर्शन कर पाती है या नहीं, ये देखने वाली बात होगी. मिसाल के तौर पर संक्रमण की रोकथाम करने वाली स्वास्थ्य सेवाओं का न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करने के लिए वैधानिक रूप से बाध्यकारी प्रावधानों को शामिल किया जा सकता है. ऐतिहासिक कमज़ोरियों से पार पाने में इसकी कामयाबी मापने का ये एक प्रमुख उपाय होगा. ये पूरी क़वायद G20 की प्रतिबद्धता पर नाज़ुक तरीक़े से निर्भर करेगी.
महामारियां बहुआयामी चुनौतियां प्रस्तुत करती हैं और इनके निपटारे के लिए महामारी संधि का प्रभावी क्रियान्वयन और उसकी अनुपालना बेहद अहम है. इनकी अनुपालना सुनिश्चित करने के लिए ठोस व्यवस्थाओं की दरकार है. इनकी ग़ैर-मौजूदगी में ऐसी संधि के प्रावधानों को सार्वभौम रूप से स्वीकार्यता नहीं मिल पाएगी, जिससे कुल मिलाकर इनकी प्रभावशीलता पर असर पड़ेगा. अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य नियमनों (IHRs) को लेकर पिछले अनुभवों से ऐसे जोख़िम रेखांकित होते हैं. सैद्धांतिक रूप से IHRs के लिए देशों द्वारा कुछ मुख्य स्वास्थ्य प्रणाली क्षमताओं की स्थापना और उनको आगे बढ़ाए जाने की दरकार होती है. बहरहाल, संसाधनों से जुड़ी रुकावटों और सीमित बुनियादी ढांचों की वजह से निम्न और मध्यम आय वाले देशों को इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में भारी जद्दोजहद करनी पड़ती है.[6] अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य नियमनों की प्रभावशीलता राज्यसत्ताओं की सद्भावना और संक्रमण के प्रकोप और प्रसार की जानकारी देने में स्वैच्छिक सहयोग पर भी टिकी होती है, जिनको पहले से मानकर आगे नहीं बढ़ा जा सकता. COVAX सुविधा विश्व स्तर पर स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक और बड़ा कार्यक्रम रहा है, जो एक अलग क़िस्म का लेकिन समान रूप से निर्देशात्मक उदाहरण प्रस्तुत करता है. दुनिया भर में कोविड-19 वैक्सीन की न्यायसंगत पहुंच की गारंटी देना COVAX का लक्ष्य था. इस कड़ी में समृद्ध देशों द्वारा निम्न आय वाले देशों को सहारा देने के लिए संसाधन इकट्ठे करने की बात कही गई थी. बहरहाल, शुरुआती दौर से ही इस क़वायद को फंडिंग और आपूर्ति के दृष्टिकोण से भारी रुकावटों का सामना करना पड़ा. ऊंची आय वाले कई देशों ने अपनी आबादी के लिए टीके के संग्रह को वरीयता दी, और प्रभावी रूप से उन्होंने वैक्सीन की जमाख़ोरी कर ली. इस तरह साझा जोख़िम और मुनाफ़े को लेकर COVAX के सिद्धांत को कमज़ोर कर दिया गया.[7] इन दोनों उदाहरणों से ठोस, पर्याप्त रूप से वित्त-पोषित (financed) और लागू किए जा सकने योग्य अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य समझौतों की सर्वोच्चता और उनकी अहमियत रेखांकित होती है. इसके साथ संसाधनों का न्यायसंगत बंटवारा और दृढ़ता पूर्ण अंतरराष्ट्रीय सहयोग जुड़ा होना चाहिए.
महामारी संधि, महामारी से निपटने में समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण के अभाव का निपटारा करने का लक्ष्य रखती है. बहरहाल, संधि का वैधानिक स्वरूप तय किया जाना अभी बाक़ी है. अगर ये फ्रेमवर्क कन्वेंशन यानी रूपरेखा सम्मेलन का स्वरूप लेता है तो संधि से जुड़े पक्ष अपने आप पूरे तौर पर इससे बंधे नहीं होंगे. नतीजतन इन प्रतिबद्धताओं की महज़ खानापूर्ति ही दिखाई पड़ सकती है.[8] वैसे तो कुछ सरकारों की दलील है कि इस सिलसिले में क़ानूनी रूप से बाध्यकारी समझौता आवश्यक है. उनका कहना है कि इससे ये सुनिश्चित हो सकेगा कि सभी देश भविष्य में महामारियों की रोकथाम करने और उनका जवाब देने के लिए ज़रूरी कार्रवाई करें. उधर, कुछ अन्य देशों का मानना है कि ग़ैर-बाध्यकारी समझौता ज़्यादा प्रभावी होगा. उनका विचार है कि इससे देशों के बीच ज़्यादा लचीलापन और सहभागिता बनाने की छूट मिल सकेगी. ऐसे अलग-अलग विचारों के बावजूद सुधारात्मक कार्रवाई किए जाने की ज़रूरत पर सबकी सहमति है. विश्व की मौजूदा स्वास्थ्य प्रणाली में अंतरों और कमज़ोरियों के निपटारे के लिए ऐसा किया जाना ज़रूरी है. इससे ये सुनिश्चित हो सकेगा कि दुनिया भावी महामारियों के लिए बेहतर तरीक़े से तैयार रहे. इस सिलसिले में परिचर्चाएं सुधार के प्रमुख क्षेत्रों की पहचान पर लक्षित हैं. इनमें अन्य बातों के अलावा बेहतर डेटा शेयरिंग, शुरुआती दौर में चेतावनी देने वाली प्रणाली और विकासशील देशों में क्षमता निर्माण शामिल हैं.
अंतिम तौर पर संधि का क़ानूनी स्वरूप चाहे जो भी हो, सभी सदस्यों का इसके प्रावधानों और प्रोटोकॉल्स पर रज़ामंद होना निहायत ज़रूरी है. इसके बाद इन देशों द्वारा उन नियमों का पालन करना और उनका क्रियान्वयन किया जाना भी आवश्यक है. महामारी संधि चुनौतियों के जिस स्वरूप से दो-दो हाथ करने का इरादा रखती है, उसको देखते हुए कोई अन्य परिणाम वैश्विक प्रशासन की भारी नाकामी दर्शाएगा. G20 के देशों को दरारों भरी और एकाकी वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन ढांचे के परिणामों के बारे में जागरूक होना पड़ेगा, साथ ही पहले से ज़्यादा समग्र उपकरण के लिए ज़ोर देने पर एकजुट होना होगा. महामारी संधि में क्रियान्वयन के लिए स्पष्ट और विशिष्ट दिशानिर्देशों को शामिल किया जाना चाहिए. साथ ही अनुपालना पर निगरानी रखने और उनकी रिपोर्टिंग करने के लिए एक प्रणाली भी तैयार करनी चाहिए. इससे महामारी की पेचीदा और बहुआयामी चुनौतियों से निपटने की प्रभावशीलता सुनिश्चित हो सकेगी.
इस सिलसिले में अनेक प्रकार के संभावित निर्माण प्रक्रियाएं हैं. इनमें रेजिम कॉम्प्लेक्स थ्योरी एक मूल्यवान दृष्टिकोण मुहैया कराता है जिसके ज़रिए इन चुनौतियों को समझा जा सकता है. ये सिद्धांत बताता है कि तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थानों और किरदारों के बीच समन्वय और सहयोग को बढ़ावा देकर अंतरराष्ट्रीय प्रशासकीय चुनौतियों का निपटारा किया जा सकता है.[9] इसका तर्क है कि कोई अकेला संस्थान या किरदार पेचीदा वैश्विक समस्याओं (जैसे महामारी) का प्रभावी निपटारा नहीं कर सकता. इसकी बजाए महामारी की प्रतिक्रिया में पहले से ज़्यादा व्यापक और एकीकृत दृष्टिकोण तैयार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थानों और किरदारों का नेटवर्क एकजुट होकर काम कर सकता है. महामारी संधि के संदर्भ में ये थ्योरी सुझाव देती है कि क्रियान्वयन और अनुपालना से जुड़े मसलों में अंतरराष्ट्रीय संस्थानों और किरदारों का जाल तैयार कर उनका निपटारा किया जा सकता है. इस नेटवर्क को संधि के क्रियान्वयन और अनुपालना पर निगरानी रखने की दिशा में कंधे से कंधा मिलाकर काम करना होगा. ये नेटवर्क विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों को शामिल करेगा. इसके साथ-साथ राष्ट्रीय सरकारों, सिविल सोसाइटी संगठनों और अन्य स्टेकहोल्डर्स को भी जोड़ा जाएगा. इस दृष्टिकोण को क्रियान्वयन के सवालों पर लागू किए जाने से सहभागिता को आगे बढ़ाने की प्रणालियों की अहमियत रेखांकित होती है. इस सिलसिले में सूचना साझा किए जाने की क़वायद को बढ़ावा देना, क्षमता निर्माण और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और किरदारों के पूरे नेटवर्क में मानकों और मापदंडों का निर्माण शामिल है. इसमें बेहतरीन अभ्यासों और सीखे गए सबक़ों को साझा करने वाली प्रणालियां तैयार किया जाने की प्रक्रिया को शामिल किया जा सकता है. साथ ही निम्न आय वाले देशों में क्षमता निर्माण करना और अनुपालना और पारदर्शिता की संस्कृति को बढ़ावा देना भी इसी कड़ी में शामिल होगा. G20 की प्रतिबद्धता से इन क़वायदों और ऐसी सहभागिता वाले नेटवर्क को आगे ले जाने की उनकी क्षमता को ज़बरदस्त रूप से बढ़ावा दिया जा सकेगा.
संधि के विकास और वार्ता का समावेशी और भागीदारी वाला स्वभाव इसकी कामयाबी के लिए सबसे अहम होगा. इस काम को आगे ले जाने के लिए अंतर-सरकारी वार्ता निकाय (INB) का गठन किया गया है, जो एक अच्छी शुरुआत है. इसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन के 194 सदस्य देशों के प्रतिनिधि शामिल हैं. इस प्रक्रिया में विभिन्न क्षेत्रों और पृष्ठभूमियों से विविध स्टेकहोल्डर्स को शामिल किया जाना निहायत ज़रूरी है. साथ ही इस सिलसिले में नाज़ुक और असुरक्षित आबादियों के दृष्टिकोणों और आवश्यकताओं को वरीयता दिए जाने की आवश्यकता है. इनमें महिलाएं, बच्चे, शरणार्थी और ग़रीबी में ग़ुज़र बसर कर रहे लोग शामिल हैं, जिन पर महामारी की सबसे ज़्यादा मार पड़ी है.[10] ऊंची आय वाले देशों के साथ निम्न और मध्यम आय वाले देशों की तुलना करते हुए मृत्यु दर और अस्वस्थता दरों में विषमताएं सामने आती हैं. इसी तरह बीमारी के दीर्घकालिक सामाजिक प्रभावों में लिंग-आधारित असमानताओं का अनुभव किया गया है. इस तरह महामारी के प्रभावों के भेदभाव भरे स्वभाव को पूरी तरह से स्वीकार किया जाना चाहिए.[11] ये प्रमुखताएँ संधि के ज़ीरो ड्राफ्ट में समाहित की गई हैं. बहरहाल अंतिम तौर पर रज़ामंदी वाला क़रार स्वास्थ्य के क्षेत्र में असमानताओं के भीतरी कारणों और इनसे जुड़े मसलों के निपटारे में कितनी दूर तक कारगर रहता है, ये देखने वाली बात होगी. G20 जैसे समूहों को इस सिद्धांत के प्रति अपनी वचनबद्धता स्पष्ट करनी चाहिए. इस दिशा में कोई भी क़वायद तमाम क्षेत्रों और किरदारों के बीच उद्देश्यपूर्ण सहभागिता और समन्वय पर निर्भर करेगी. इनमें सरकारें, सिविल सोसाइटी संगठन और निजी क्षेत्र शामिल हैं.
समावेश और असुरक्षाओं के विश्लेषण के लिए मौजूदा रूप रेखाओं का भरपूर उपयोग
महामारी संधि तैयार किए जाने और उसके क्रियान्वयन पर देशों के सामाजिक दर्जे का भारी प्रभाव होगा. इनमें राष्ट्रों के आर्थिक विकास का स्तर, राजनीतिक शक्ति और अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर उनकी प्रभावशीलता शामिल हैं. पूरे आसार हैं कि बड़ी राजनीतिक ताक़त और रुतबे वाले देश इस संधि की वार्ता प्रक्रिया और स्वीकार्यता को प्रभावित करेंगे, जबकि छोटे या कम शक्तिशाली देशों की आवाज़ अनसुनी रह जाने की आशंका है. इसी प्रकार ऊंची आय वाले देशों के पास इस संधि के प्रावधानों का पालन करने और उन पर अमल करने की ज़्यादा क्षमता होगी. संसाधनों और बुनियादी ढांचे तक बेहतर पहुंच की वजह से उन्हें ये कामयाबी आसानी से मिल जाएगी. ये हालात चिंताजनक होंगे, क्योंकि ये बात धीरे-धीरे साफ़ हो चुकी है कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों पर महामारी की सबसे ज़्यादा चोट पड़ी है. साथ ही आवश्यक संसाधनों, जैसे टीकों, मेडिकल साज़ोसामानों और वित्तीय सहायता तक उनकी पहुंच भी सीमित रही है. महामारी ने विश्व में वैज्ञानिक व्यवस्था की ताक़त भी उभार कर रख दी. कोविड 19 के अनेक टीकों का कामयाबी से विकास किया गया. इस समय दुनिया भर में अलग-अलग परिस्थितियों के लिए MRNA पर आधारित लगभग 200 दवाइयों का क्लीनिकल ट्रायल चल रहा है. बहरहाल, महामारी के अनुभवों को देखते हुए इस बात पर संदेह होने लगा है कि वैज्ञानिक मोर्चे पर इन कामयाबियों का दुनिया भर की जनता तक समान रूप से वितरण हो पाएगा! महामारी संधि के इर्द-गिर्द जारी वार्ताओं से इन विषमताओं के निपटारे के लिए बड़ी मुश्किल से एक मौक़ा हाथ आया है.
वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन के सामने विविध स्वरूप वाली और पेचीदा समस्याओं को समझने और उनके निपटारे के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की दरकार है. महामारी संधि के संदर्भ में अलग-अलग प्रकार की असुरक्षाओं को समझने में सैद्धांतिक रूप से तीन रूपरेखाएं अपना बहुमूल्य योगदान देती हैं. ये हैं- द किंगडम मॉडल,[12] डिडेरिक्सन मॉडल,[13] और दहलग्रेन-व्हाइटहेड मॉडल[14].
अपने विचार-मंथनों में इन स्थापित सैद्धांतिक रूपरेखाओं का उपयोग करके महामारी संधि की क़वायद को आगे बढ़ाने में शामिल पक्ष सभी देशों की आवश्यकताओं के प्रति संजीदगी सुनिश्चित कर सकते हैं, चाहे उन राष्ट्रों का सामाजिक या आर्थिक दर्जा कुछ भी क्यों ना हो. बराबरी को वरीयता देने वाली संधि की ओर आगे बढ़ने में इन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए.
संधि से जुड़ी वार्ताओं में वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन के लिए मौजूदा रूपरेखाओं (जैसे अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य नियमनों यानी IHRs) के साथ आगे बढ़ने और तालमेल बिठाने का स्पष्ट लक्ष्य शामिल है. इस सिलसिले में नाकामयाबियों और अपर्याप्तताओं को दोहराए जाने की बजाए उनसे हासिल सबक़ों को शामिल किए जाने की क़वायद होनी चाहिए.[15] [16] अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य नियमनों (IHRs) की समीक्षा की मौजूदा क़वायद के साथ संधि की वार्ता प्रक्रिया का सफल सामंजस्य इसी वजह से सबसे अहम हो जाता है. इसके अतिरिक्त महामारी संधि को महामारी का जवाब देने के लिए एक समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण अपनाना चाहिए. विश्व स्वास्थ्य संगठन की सार्वभौम स्वास्थ्य और तैयारी समीक्षाओं (UHPRs) के साथ सामंजस्य बिठाने की प्रक्रिया को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि ये संधि महामारी के मेडिकल पहलुओं के तंग नज़रिए से कहीं आगे निकले. इस तरह इनके प्रसार और प्रभाव के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारकों का पूरी तरह से लेखा-जोखा रखा जा सकेगा.[17] इसी प्रकार महामारी कोष द्वारा किए गए निवेशों को इस संधि को पूरी तरह से क्रियान्वित करने के लिए ज़रूरी क्षमताओं में मौजूद अहम अंतरों को पाटने के लिहाज़ से पूरी तरह से तालमेल भरा होना चाहिए. इन प्रक्रियाओं में अपना ज़बरदस्त प्रभाव दिखाने के क्रम में G20 को इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए. यही प्रक्रियाएं इन तंत्रों को आकार देंगी और उनके एकजुट होकर काम करने की वजह बनेंगी.
ऊपर जिन चुनौतियों और समाधानों को रेखांकित किया गया है, उनको आधार बनाकर इस पॉलिसी ब्रीफ में G20 के देशों से वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन में समावेश, विविधता और असुरक्षा विश्लेषण का स्तर बढ़ाने के लिए आगे दिए गए सिद्धांतों को अपनाने की सिफ़ारिश की गई है. महामारी संधि पर फ़िलहाल जारी वार्ता में व्यक्तिगत और सामूहिक योगदान देते समय उन्हें इनका पालन किया जाना चाहिए (चित्र 1 देखिए). इन सिद्धांतों को संधि की वार्ता प्रक्रियाओं में ठोस रूप देते हुए क्रियाशील बनाने योग्य बनाया जाना चाहिए. ये सुनिश्चित करने में G20 की अहम भूमिका है. संधि पर हो रही वार्ताएं वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन में एकीकृत दृष्टिकोण स्थापित करने को लेकर अद्वितीय अवसरों का प्रतिनिधित्व करती हैं.
चित्र 1: G20 के लिए सिफ़ारिशें
स्रोत: ख़ुद लेखक के
वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन के प्रमुख खिलाड़ी के रूप में G20 देशों के कंधों पर महामारी संधि की सफलता सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी उत्तरदायित्व निभाने का जिम्मा है. पिछली ख़ामियों का निपटारा करने, बराबरी को बढ़ावा देने और राष्ट्रों के बीच सहभागिता को आगे बढ़ाने की क्षमता से महामारी संधि की प्रभावशीलता का निर्धारण होगा. सभी सदस्य राष्ट्रों का संधि के प्रावधानों और प्रोटोकॉल्स से सहमत होना निहायत ज़रूरी है. पहले से ज़्यादा व्यापकता वाले उपकरण की वक़ालत करने में G20 को नेतृत्वकारी भूमिका निभानी चाहिए. इस ब्रीफ में रेखांकित किए गए प्रस्तावों को स्वीकार करके G20 समूह पहले से ज़्यादा मज़बूत और अधिक न्यायपूर्ण वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन प्रणाली में अपना योगदान दे सकता है. इससे भावी महामारियों के लिए तैयारियों का स्तर ऊंचा उठेगा. इसके अलावा सद्भावना और सहयोग के सिद्धांतों को भी मज़बूती मिलेगी.
एट्रिब्यूशन: वायोला सेवी डिसूज़ा आदि, “प्रीपेयरिंग फॉर द नेक्स्ट क्राइसिस: द G20 एंड द पैंडेमिक ट्रीटी,” T20 पॉलिसी ब्रीफ, मई 2023.
aलेखक LSE के रेबेका फोरमैन और क्लेर वेनहम को उनके योगदानों के लिए धन्यवाद देते हैं.
————————————————————————————————————-Endnotes
[1] “World Health Assembly Agrees to Launch Process to Develop Historic Global Accord on Pandemic Prevention, Preparedness and Response,” World Health Organization, accessed May 14, 2023.
[2] “Global Leaders Unite in Urgent Call for International Pandemic Treaty,” World Health Organization, March 30, 2021.
[3] Kristalina Georgieva, “A New Bretton Woods Moment,” International Monetary Fund, October 15, 2020.
[4] Bambra Clare, Ryan Riordan, John Ford, and Fiona Matthews, “The COVID-19 Pandemic and Health Inequalities,” Journal of Epidemiology and Community Health 74, (2020): 964.
[5] “Today’s Challenges Require More Effective and Inclusive Global Cooperation, Secretary-General Tells Security Council Debate on Multilateralism,” United Nations, December 14, 2022.
[6] Preben Aavitsland, Ximena Aguilera, Seif Salem Al-Abri, Vincent Amani, Carmen C Aramburu, Thouraya A Attia, Lucille H Blumberg, et al., “Functioning of the International Health Regulations during the COVID-19 Pandemic,” The Lancet 398, no. 10308 (2021): 1283–87.
[7] Victoria Pilkington, Sarai Mirjam Keestra, and Andrew Hill, “Global Covid-19 Vaccine Inequity: Failures in the First Year of Distribution and Potential Solutions for the Future,” Frontiers in Public Health 10 (2022).
[8] “Pandemic Prevention, Preparedness and Response Accord,” World Health Organization, 24 February 2023.
[9] Laura Gómez-Mera, “International Regime Complexity,” Oxford Research Encyclopedia of International Studies, August 31, 2021.
[10] “Explainer: How COVID-19 Impacts Women and Girls,” UN Women, 17 March, 2021.
[11] Bambra Clare, Ryan Riordan, John Ford, and Fiona Matthews, “The COVID-19 Pandemic and Health Inequalities,” Journal of Epidemiology and Community Health 74 (2020): 964.
[12] John W. Kingdon, “Agendas, Alternatives, and Public Policies,” Boston :Little, Brown, 1984.
[13] Diderichsen Finn, Timothy Evans, and Margaret Whitehead, “The Social Basis of Disparities in Health,” Challenging Inequities in Health: From Ethics to Action, September.
[14] Margaret Whitehead, and Göran Dahlgren, “Policies and strategies to promote social equity in health,” Stockholm: Institute for Future Studies (1991).
[15] Sridhar Venkatapuram, and Rajat Khosla, “The Pandemic Treaty – One Ring to Rule Them All,” Observer Research Foundation, 4 March 2023.
[16] Clare Wenham, Mark Eccleston-Turner, and Maike Voss, “The Futility of the Pandemic Treaty: Caught between Globalism and Statism,” International Affairs 98 (3): 837–52.
[17] “Universal Health & Preparedness Review,” World Health Organization, accessed May 14, 2023.