अंतर्राष्ट्रीय विकास सहयोग में लैंगिक राजनीति की पुनर्कल्पना: G20 के लिए एक एजेंडा

Malancha Chakrabarty | Swati Prabhu | Arundhatie Biswas Kundal | Judyannet Muchiri

 

 

टास्क फोर्स 6 त्वरित SDG: 2030 एजेंडा के लिए नई राह की खोज

 

सारांश

 

 

सभी अंतरराष्ट्रीय प्रक्रियाओं में लैंगिक समानता एक स्पष्ट लक्ष्य होने के बावजूद महिलाओं को व्यवस्थित रूप से असमान दुनिया का सामना करना पड़ता है. यह पॉलिसी ब्रीफ अर्थात नीति संक्षिप्त पांच ऐसे कारणों की पहचान करती हैं कि आखिर क्यों विकास को लेकर सहयोग लैंगिक असमानता को दूर करने में विफ़ल साबित हुआ है: (i) अपर्याप्त फंडिंग (ii) लैंगिक न्याय पर प्रभावों का आकलन करने के लिए व्यापक लैंगिक डेटा प्राप्त करने की अपर्याप्त प्रणाली अथवा व्यवस्था, (iii) पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित कर्मचारियों और संसाधनों की कमी और ख़राब निगरानी और मूल्यांकन, (iv) विकासशील देशों में स्थानीय संगठनों की भागीदारी को लेकर उदासीनता, और (v) जेंडर अर्थात लिंग को लेकर अराजनीतिक ‘स्मार्ट अर्थशास्त्र’ दृष्टिकोण.

 

ग्लोबल गर्वनंस अर्थात वैश्विक शासन में G20 की महत्वपूर्ण भूमिका है. G20 के सदस्य देश, अंतर्राष्ट्रीय विकास के प्रमुख हिस्सेदार भी है. इतना ही नहीं लैंगिक समानता के लिए फोरम की प्रतिबद्धता भी सर्वविदित है. इसे देखते हुए यह समूह लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विकास संरचना में भारी बदलाव लाने के लिए एक आदर्श मंच बन जाता है. अन्य बातों के अलावा, यह संक्षिप्त ‘स्मार्ट इकोनॉमिक्स’ के दृष्टिकोण को छोड़ने और जेंडर पर एक अलग G20 ट्रैक स्थापित करने की सिफारिश करता है.

 

चुनौती

 

 

सभी अंतरराष्ट्रीय प्रक्रियाओं और प्रतिबद्धताओं में लैंगिक समानता एक स्पष्ट लक्ष्य और मार्गदर्शक सिद्धांत है. सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल अर्थात दीर्घकालीन विकास लक्ष्य (SDG) 5 का उद्देश्य लैंगिक समानता प्राप्त करते हुए सभी महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बनाना है. अंतर्राष्ट्रीय विकास सहयोग में लैंगिक चिंताओं को मुख्यधारा में लाने की अहम कोशिशों के बावजूद, लैंगिक समानता अब भी एक दूर का लक्ष्य ही बना हुआ है. 2022 के ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के अनुसार, यदि मौजूदा गति ही चलती रही तो वैश्विक जेंडर गैप को पाटने में कम से कम 132 साल लग जाएंगे.[1] इसके अलावा, COVID-19 महामारी ने महिला सशक्तिकरण और अधिकारों पर पूर्व में मिली सफ़लता की गति को धीमा करते हुए लैंगिक समानता को पटरी से उतार कर रख दिया है. वैश्विक स्तर पर दिखाई देने वाले सबूतों से साफ़ हो जाता है कि महामारी ने मौजूदा लैंगिक सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को मज़बूत ही किया है. महामारी के कारण ही अवैतनिक देखभाल कार्य का बोझ बढ़ा है, जबकि घरेलू और अंतरंग साथी के हाथों होने वाली हिंसा की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है.[2] 2020 में वैश्विक रोज़गार के क्षेत्र में होने वाले नुक़सान में महिलाओं की हिस्सेदारी लगभग 45 प्रतिशत थी. लेकिन प्रबंधकीय पदों पर महिलाओं की हिस्सेदारी 2019 से 2020 तक 28.3 प्रतिशत पर स्थिर बनी रही.[3] इसके अलावा, वंचित पृष्ठभूमि के अनेक बच्चों पर देखभाल की बढ़ती ज़िम्मेदारियों, आय अर्जित करने की आवश्यकता, सामाजिक सेवाओं के निलंबन और स्कूल बंद होने से कम उम्र में विवाह करने पर मजबूर होना पड़ा. 2022 सतत विकास लक्ष्यों की रिपोर्ट के अनुसार, 2030 तक, लगभग 10 मिलियन लड़कियों पर और बाल वधु बनने का ख़तरा मंडरा रहा है. इसके पहले ही यह अनुमान लगाया जा चुका है कि महामारी से पहले अनुमानित 100 मिलियन लड़कियां बाल वधु बनेंगी.[4] अधिकांश विकासशील देशों में कृषि क्षेत्र में अधिक प्रतिनिधित्व होने के बावजूद, कृषि भूमि पर महिलाओं का स्वामित्व अधिकार बेहद कम है. ऐसे में महिलाओं की घरों के पुरुष सदस्यों पर निर्भरता बढ़ जाती है. 2019 तक विश्व स्तर पर, महिलाएं G20 देशों में संसद के एक तिहाई से भी कम सदस्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं; इसके अलावा, 18 G20 देशों में 18 प्रतिशत महिलाओं की आय पुरुषों से कम ही है.[5]

 

हालांकि बीजिंग प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन, द कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वूमेन और एजेंडा 2030 जैसे मंच लैंगिक न्याय और समानता को आगे बढ़ाने के प्रयासों को संगठित करने में उपयोगी साबित हुए हैं. लेकिन दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय संगठन महिलाओं के जीवन में परिवर्तनकारी बदलाव लाने में काफी हद तक विफ़ल ही रहे हैं. मातृ मृत्यु दर और प्राथमिक विद्यालय में नामांकन जैसे विकास संकेतकों में महत्वपूर्ण सुधार देखे जा रहे हैं, लेकिन वर्कफोर्स अर्थात कार्यबल, गर्वनंस अर्थात शासन और संपत्ति के स्वामित्व के मामलों में महिलाओं की हिस्सेदारी पुख्ता करने की दिशा मे बहुत कम प्रगति हुई है.[6]

 

अंतर्राष्ट्रीय विकास सहयोग लैंगिक असमानता को दूर करने और वास्तव में महिलाओं को सशक्त बनाने में विफ़ल साबित होने के अनेक कारण हैं – (i) जेंडर अर्थात लिंग विशिष्ट प्रोग्रामिंग यानी कार्यक्रमों के लिए अपर्याप्त राशि का आबंटन, (ii) लैंगिक न्याय और इक्विटी अर्थात समान हिस्सेदारी पर पड़ने वाले असर की जानकारी हासिल करने के लिए व्यापक जेंडर अर्थात लिंग डेटा को एकत्रित करने की अपर्याप्त प्रणाली, (iii) पर्याप्त प्रशिक्षित कर्मचारियों और संसाधनों की कमी और ख़राब निगरानी और मूल्यांकन, (iv) विकासशील देशों में छोटे स्थानीय संगठनों की बेहद नगन्य अथवा कम भागीदारी, और (v) जेंडर के लिए एक अराजनीतिक ‘स्मार्ट अर्थशास्त्र’/’दक्षता दृष्टिकोण’.

 

जेंडर-स्पेसिफिक अर्थात लिंग-विशिष्ट कार्यक्रमों के लिए पर्याप्त धन की कमी एक बड़ी बाधा है. OCED के अनुमानों के अनुसार, लैंगिक समानता के लिए आधिकारिक विकास सहायता का हिस्सा एक दशक तक बढ़ने के बाद 2018-19 में 44.5 प्रतिशत से घटकर 2020-21 में 44 प्रतिशत हो गया है.[7] इसके साथ ही विशेषज्ञों का मानना है कि लैंगिक कार्यक्रमों के लिए निर्धारित 99 प्रतिशत से अधिक संसाधनों को जमीनी स्तर के संगठन या नारीवादी आंदोलन के लिए काम करने वाले लोगों को मुहैया नहीं करवाया जाता. यही लोग लैंगिक समानता के लिए बनाए गए कार्यक्रमों पर अमल करते हुए स्थायी परिवर्तन के वास्तविक चालक होते हैं. इसके बजाय यह राशि  राशि सरकारी विभागों, बड़े संगठनों, या विकास संगठनों (परामर्शदाताओं और अन्य प्रशासनिक लागतों के लिए वेतन के रूप में) को आवंटित की जाती है.[8] इसके अलावा, जेंडर-डिसएग्रीगेटेड अर्थात अलग-अलग लैंगिक डेटा यानी जानकारी की कमी के चलते जेंडर अर्थात लैंगिक आधार पर होने वाले विकास ख़र्च की पुरी तस्वीर देख पाना मुश्किल हो जाता है. इसी प्रकार इस ख़र्च के परिणाम अथवा असर को भी आंकना टेढ़ी खीर साबित होता है. केंद्रीय रिपॉजिटरी अर्थात केंद्रीय भंडार में जेंडर डिसएग्रीगेटेड डेटा अक्सर आसानी से प्रकाशित नहीं होता. यह जानकारी सुलभ तरीके से मिल भी नहीं पाती. यदि मिलती है तो यह जानकारी अक्सर अधूरी और ऐसी होती है, जिससे किसी अन्य जानकारी की तुलना करना संभव नहीं होता.[9]

 

विशेषज्ञ यह भी तर्क देते हैं कि लैंगिक समानता के लिए की जाने वाली प्रतिबद्धताओं के बाद उसकी निगरानी और मूल्यांकन करने के लिए पर्याप्त कर्मचारी क्षमता मुहैया करवाने पर ध्यान नहीं दिया जाता.[10] कई क्षेत्र-विशिष्ट कार्यक्रम बहुआयामी कार्रवाई के अवसरों को खो देते हैं क्योंकि इसके लिए जेंडर और अन्य क्षेत्र-विशिष्ट या देश/संदर्भ-विशिष्ट कौशल के ज्ञान की आवश्यकता होती है. यह ज्ञान ज़्यादातर विकास पेशेवरों में नदारद पाया जाता हैं, क्योंकि उनके पास सीमित कौशल होता है.[11] अंतर्राष्ट्रीय विकास संगठनों की संरचना और कार्यप्रणाली भी परिणामों को प्रभावित करने वाली साबित होती है. उदाहरण के लिए, साझेदारी शुरू करने वाले विकास अधिकारियों में अक्सर उन देशों की स्थानीय वास्तविकताओं को लेकर समझ नहीं होती अथवा उसका अभाव होता है जिन देशों वे काम करते हैं.[12] अंतर्राष्ट्रीय विकास संगठन अक्सर बाध्यकारी गतिविधियों के एक स्पष्ट समूह के तहत काम करते हैं. ये संगठन परियोजना के डिजाइन, जटिल प्रबंधन प्रणालियों और आवश्यक डिलिवरेबल्स अर्थात विकास प्रक्रिया के लिए आवश्यक संसाधन मुहैया करवाने पर अधिक बल देते हुए स्थानीय स्तर पर काम करने वाले छोटे जेंडर अर्थात लिंग-आधारित संगठनों को इससे बाहर ही रखते हैं.[13] विकासशील देशों में छोटे संगठनों के पास विकास का एक बड़ा फुटप्रिंट होता है. लेकिन ये संगठन अक्सर अंतर्राष्ट्रीय विकास संगठनों की आवश्यक जटिल प्रक्रियाओं का पालन करने की क्षमता की कमी से जूझते दिखाई देते है.

 

हालांकि, सबसे अहम चिंता यह है कि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने विशेषत: मापने योग्य प्रगति पर आधारित लैंगिक समानता का एक अराजनीतिक वर्णन प्रस्तुत किया है. दूसरे शब्दों में, जिसे मापा नहीं जा सकता, उसे उपेक्षित कर दिया जाता है या फिर छोड़ दिया जाता है. अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय विकास संगठन और बड़े गैर-लाभकारी संगठन लैंगिक समानता को ‘स्मार्ट अर्थशास्त्र’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसमें प्रभावों और परिणामों को अधिकतम करने और मापने पर जोर दिया जाता है. महिलाओं के श्रम और उत्पादकता में सुधार को केवल आर्थिक विकास को बढ़ाने के एक उपकरण के रूप में देखा जाता है. स्मार्ट अर्थशास्त्र के दिशा-निर्देर्शों के तहत लैंगिक समानता पर होने वाली चर्चा में समानता और न्याय के अधिकार या शक्ति असंतुलन के किसी भी नैतिक आधार का पूर्ण अभाव है. इस बात को समझना अहम है कि लैंगिक समानता एक गहरा राजनीतिक मुद्दा है और यह केवल एक हार्मलेस कॉन्सेप्ट अर्थात हानिरहित अवधारणा नहीं है; बल्कि, यह शक्ति, लाभ और संसाधनों के मौजूदा वितरण को चुनौती देता है.[14] इसलिए, एक रिलेशनल इश्यू अर्थात संबंधपरक मुद्दे के रूप में और स्ट्रक्चरल इनइक्वॉलिटी अर्थात संरचनात्मक असमानता के मामले में, लैंगिक समानता को सरकारों, विकास संस्थानों और समाज द्वारा सीधे संबोधित किया जाना ज़रूरी है.[15]

 

जेंडर-पॉलिटिक्स अर्थात लैंगिक राजनीति में हमेशा विकसित होने वाले रुझानों और औपनिवेशिक और नस्लीय सोच की व्यापकता के साथ-साथ ये चुनौतियां भी प्रकट होती है. इसी औपनिवेशिक और नस्लीय सोच के भीतर ही अंतर्राष्ट्रीय विकास क्षेत्र का निर्माण होता है और ये चुनौतियां लगातार रहती है. प्रणालीगत अन्याय, कोलोनियल लॉजिक्स अर्थात औपनिवेशिक तर्क, नस्लवादी बयानबाजी, बढ़ते राष्ट्रवाद, और उभरते वैश्विक संकट (जैसे महामारी) के संदर्भ में, ये चुनौतियां प्रणालियों, संस्थानों, नीतियों और प्रथाओं में मिश्रित होती हैं, जो लिंग-उत्तरदायी नीतियों और प्रथाओं में प्रगति को कमज़ोर करती रहती हैं. इस वर्तमान संदर्भ को बदलने के लिए, अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसियां और क्षेत्र में अन्य एक्टर्स अर्थात साझेदार अहम भूमिका अदा कर सकते हैं.

 

हालांकि अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसियां फंडिंग इंफ्रास्ट्रक्चर और नीति को आकार देने की अपनी क्षमता के कारण विकास क्षेत्र में एक अहम स्थिति रखती हैं. लेकिन जेंडर अर्थात लिंग के प्रति उनका दृष्टिकोण अक्सर उस सीमा को कम कर देता है, जिस हद तक वे परिवर्तनकारी बदलाव को सूचित करने वाली प्रथाओं और नीतियों में योगदान कर सकते हैं. इस बदलाव के लिए जेंडर के अधिक मज़बूत विश्लेषण की आवश्यकता है, क्योंकि यह शक्ति से संबंधित है और इसलिए, असमानताओं के (पुन:) उत्पादन से भी जुड़ा है. जेंडर के प्रति एक नारीवादी दृष्टिकोण इस संबंध में इंस्ट्रक्टिव अर्थात शिक्षाप्रद है. जेंडर को लेकर एक नारीवादी दृष्टिकोण को इस मामले में शिक्षाप्रद कहा जा सकता है. नारीवादी दृष्टिकोण अपनाकर ही अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसियां जेंडर को लेकर वर्तमान में चल रही सिंग्यूलर नैरेटिव्स् अर्थात एकतरफा बयानबाजी या नज़रिए से आगे बढ़कर एक अधिक सूक्ष्म विश्लेषण कर सकेंगी. इस सूक्ष्म विश्लेषण में आने वाले इंटरसेक्शन्स अर्थात चौराहे पर जेंडर संबंधित अन्य अन्यायों, जैसे नस्लीय अन्याय, शरणार्थियों के प्रति अन्याय, युद्ध और संघर्ष के दौरान होने वाली हिंसा और अन्याय, और जाति आधारित अन्याय के साथ लैंगिक न्याय भी शामिल होगा. जेंडर के लिए एक नारीवादी दृष्टिकोण विश्लेषणात्मक उपकरण प्रदान करते हुए जेंडर प्रोग्रामिंग और नीति में प्रगति की संभावनाओं का विस्तार करने में सहायक साबित होता है.

 

G20 की भूमिका

 

 

19 देशों और यूरोपीय संघ (EU) का एक ऐसा मंच, जो वैश्विक GDP का लगभग 85 प्रतिशत, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का 75 प्रतिशत और वैश्विक आबादी के दो-तिहाई हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है, G20 एक जबरदस्त आर्थिक और राजनीतिक शक्ति को अपने आप में समाहित करता है.[16] इसमें शामिल देशों के प्रमुखों की वार्षिक बैठकें, इसकी प्रभावशीलता को बढ़ाकर इसे वैश्विक शासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अधिकार प्रदान करती हैं. विकास सहयोग में यूरोपीय संघ के साथ अमेरिका, जापान, जर्मनी, फ्रांस और यूके जैसे विकसित देश सबसे बड़े प्रदाता हैं. 2021 में, अमेरिका की आधिकारिक विकास सहायता 42.3 बिलियन US$, UK की 15.8 बिलियन US$, जर्मनी की 32.2 बिलियन US$, जापान की 17.6 बिलियन US$ और EU की 19 बिलियन बिलियन US$ थी.[17] ग्लोबल साउथ जैसे कि चीन, भारत और ब्राजील के विकास भागीदारों ने पिछले दो दशकों में अपने विकास सहयोग कार्यक्रमों के दायरे का विस्तार किया है. 2020 में चीन का विकास सहयोग 2.9 बिलियन US$ तक पहुंच गया था, जिसमें 2030 एजेंडा पर जोर दिया गया है. इसमें लैंगिक समानता भी शामिल है.[18] 2020 में, ब्राज़ीलियाई कोऑपरेशन एजेंसी ने अन्य विकासशील देशों को संसाधनों के सीमा-पार हस्तांतरण के माध्यम से सतत विकास के लिए लगभग 33.2 मिलियन US$ का सहयोग किया था.[19] हालांकि OCED और non-OCED दाताओं के बीच परिभाषाओं में बड़े अंतर के कारण तुलना करना मुश्किल है, लेकिन उपलब्ध डेटा अर्थात जानकारी से यह संकेत मिलते है कि G20 के अनेक विकासशील देशों की अंतर्राष्ट्रीय विकास एक्टर्स अर्थात खिलाड़ियों अथवा सहयोगियों के रूप में अहमियत बढ़ रही है. इसी वज़ह से G20 शिखर सम्मेलन के पास विकसित और विकासशील देशों के बीच बातचीत को सक्षम करते हुए वैश्विक विकास एजेंडा को आकार देने का अहम अवसर और अधिकार मौजूद है. उसे इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए.

 

G20 नेताओं ने हालांकि पहली बार 2009 के लंदन शिखर सम्मेलन में लैंगिक समानता के मुद्दे पर बात की थी. लेकिन इस दिशा में पहला अहम कदम 2012 में मैक्सिको में लॉस काबोस शिखर सम्मेलन में उठाया गया था. इसी सम्मेलन में मैक्सिको की महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में कम भागीदारी को देश के आर्थिक विकास में एक बाधा के रूप में पहचाना गया था.[20] इसके बाद रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में हुआ अगला शिखर सम्मेलन महिलाओं और महिलाओं की उद्यमशीलता से जुड़ी क्षमताओं के लिए वित्तीय शिक्षा पर केंद्रित था. 2014 के ब्रिस्बेन एक्शन प्लान ने वर्कफोर्स अर्थात श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने और महिलाओं के रोज़गार की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया गया. G20 नेताओं ने अपने यहां की राष्ट्रीय परिस्थितियों को आधार बनाकर अपने देशों में श्रम बल भागीदारी में लैंगिक अंतर को 25 प्रतिशत तक कम करने के लक्ष्य पर भी सहमति व्यक्त बना ली.[21] G20 प्रक्रिया में लैंगिक मुद्दों को मुख्यधारा में लाने को सुनिश्चित करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण कदम W20 (Women20) का गठन किया जाना था. यह एक आधिकारिक संवाद समूह है, जिसके गठन का निर्णय 2015 में तुर्की की अध्यक्षता के दौरान लिया गया था.

 

G20 की लैंगिक प्रतिबद्धताओं ने शुरू में महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी बढ़ाने और महिलाओं के लिए काम करने की स्थिति में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया था,[22] लेकिन 2015 के बाद से, इसमें महिला उद्यमियों और किसानों पर भी ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया है. इसके साथ ही अब यह समूह इस बात को भी सुनिश्चित करना चाहता है कि महिलाओं की विज्ञान, गणित, तकनीक, इंजीनियरिंग में भी भागीदारी को बढ़ाने के उपाय किए जाए.[23] जेंडर अर्थात लिंग आधारित हिंसा को समाप्त करने की प्रतिबद्धता 2017 में की गई थी. 2020 में, G20 ने महिलाओं पर COVID-19 महामारी के असंगत प्रभाव को स्वीकार करते हुए इसकी वज़ह से पैदा हुई लैंगिक असमानता को दूर करने का संकल्प लिया. 2022 में इंडोनेशियाई अध्यक्षता के तहत, G20 ने उच्च-गुणवत्ता और सस्ती देखभाल सुविधाओं, डिजिटल तकनीकों और MSME क्षेत्र के बुनियादी ढांचे में अधिक निवेश पर बल देने का निर्णय लिया.[24] भारतीय की प्रेसीडेंसी अर्थात अध्यक्षता में लैंगिक समानता और “महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास” पर विशेष जोर दिया जा रहा है. भारत की अध्यक्षता के तहत फोकस वाले तीन क्षेत्र तय किए गए हैं: (i) महिला उद्यमिता: इक्विटी अर्थात समान हिस्सेदारी और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए ही विन-विन (win win) अर्थात बल्ले-बल्ले की स्थिति; (ii) जमीनी स्तर सहित सभी स्तरों पर महिलाओं के नेतृत्व को बढ़ावा देने के लिए साझेदारी; और (iii) महिला सशक्तिकरण और समान कार्यबल भागीदारी की कुंजी यानी शिक्षा.[25]

इसके बावजूद G20 के लैंगिक समानता पर दिए जा रहे ध्यान के परिणामस्वरूप कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए है. इस विषय को अभी समझना शुरू करने वालों की जानकारी के लिए जेंडर के लिए समर्पित शब्दों को शेयर करने अर्थात उसका उपयोग करने की स्थिति 2009 के लंदन शिखर सम्मेलन में मात्र 3 प्रतिशत थी जो अब बढ़कर 2021 के रोम शिखर सम्मेलन में 16 प्रतिशत हो गई है.[26] 2008 और 2021 के बीच, G20 ने लैंगिक समानता पर 80 प्रमुख प्रतिबद्धताएं और 39 संबंधित प्रतिबद्धताएं कीं, लेकिन इन्हें लेकर सदस्य देशों के बीच औसत अनुपालन 62 प्रतिशत ही था (सभी विषयों में 72 प्रतिशत के औसत अनुपालन के ख़िलाफ़).[27] यह काफ़ी हद तक इन लैंगिक प्रतिबद्धताओं की निगरानी करने की ख़राब व्यवस्था की वज़ह से है. G20 देश और विकास एजेंसियां कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में पर्याप्त निवेश करने में विफ़ल रही हैं. उदाहरण के लिए, जब महामारी ने महिलाओं को बुरी तरह प्रभावित किया, तो सदस्य देशों ने डिजिटलीकरण पर जोर दिया, लेकिन तकनीक और कौशल तक पहुंच को लेकर महिलाओं की चिंताओं की उपेक्षा की गई. इसी तरह, जैसे-जैसे दुनिया हाइब्रिड वर्क कल्चर की ओर शिफ्ट हुई, सरकारें और विकास एजेंसियां केयर इकॉनॉमी अर्थात देखभाल अर्थव्यवस्था में महिलाओं और घरेलू और अंतरंग साथी के हाथों हिंसा का शिकार हए लोगों की परेशानियों और चिंताओं को दूर करने में असफ़ल रहीं.

 

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के एक मंच के रूप में G20 के महत्व को देखते हुए, अंतर्राष्ट्रीय विकास में इसके सदस्य देशों की बढ़ती भूमिका और लैंगिक समानता के लिए समूह की प्रतिबद्धता को देखते हुए यह समूह लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विकास संरचना में भारी बदलाव लाने वाला आदर्श मंच दिखाई देता है.

 

सिफारिशें

 

 

महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना और लैंगिक समानता को बढ़ावा देना बेहद ज़रूरी है. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय विकास सहयोग अपने मौजूदा स्वरूप में महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाले प्रणालीगत अन्याय को संबोधित करने में सक्षम नहीं है. सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों (नेतृत्व की भूमिकाओं सहित) में महिलाओं और लड़कियों की पूर्ण भागीदारी के लिए एक नारीवादी दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है. इसके लिए वर्तमान में अपनाए गए मामूली कल्याणकारी उपायों के साथ-साथ संकीर्ण आर्थिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण से आगे बढ़ने की आवश्यकता है. वर्तमान त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण जेंडर के बीच असमान शक्ति संबंध, सामाजिक दृष्टिकोण और महिलाओं के जीवन को नियंत्रित करने वाले मानदंड जैसी संरचनात्मक समस्याओं को संबोधित करने वाला है. यह नीति संक्षेप SDG 5 को प्राप्त करने में तेजी लाने के लिए निम्नलिखित अनुशंसाओं का प्रस्ताव करता है.

लैंगिक समानता के लिए धन का प्रवाह बढ़ाएं: लैंगिक समानता के लिए बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के बावजूद इस मुद्दे को लेकर बनाए जाने वाले कार्यक्रमों के लिए धन में समवर्ती वृद्धि नहीं की गई है. अत: ऐसे में तत्काल इससे संबंधित कार्यक्रमों के लिए धन के प्रवाह को बढ़ाना ज़रूरी है.

 

मानव संसाधनों में बेहतर डेटा और निवेश के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय विकास से होने वाले लाभ को अधिकतम करें: केवल लैंगिक समानता के लिए धन की मात्रा बढ़ाने से जेंडर जस्टिस अर्थात लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करने के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता. इसका कारण यह है कि जेंडर से जुड़े डिसएग्रीगेटेड अर्थात अलग-अलग डेटा की कमी और योजना बनाने के लिए प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी के कारण लिंग-विशिष्ट कार्यक्रमों को लागू करने और उनकी निगरानी करना मुश्किल साबित होता है. इसलिए, इन चुनौतियों से निपटने के लिए यह ज़रूरी है कि इसी दिशा में संसाधनों और प्रयासों को लगाया जाए. लैंगिक आधार पर अलग-अलग डेटा एकत्र करने और उसे प्रकाशित करने के लिए पर्याप्त निवेश किया जाना चाहिए. इसी प्रकार विकास पेशेवरों को क्षेत्र/संदर्भ-विशिष्ट कौशल और लैंगिक मुद्दों को लेकर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए.

 

लैंगिक समानता के लिए स्मार्ट अर्थशास्त्रके दृष्टिकोण को त्यागकर इक्विटी और न्याय पर ध्यान दिया जाएं: अंतर्राष्ट्रीय विकास संगठनों को लैंगिक समानता के लिए एफिशियन्सी अर्थात दक्षता या ‘स्मार्ट अर्थशास्त्र’ के दृष्टिकोण को त्यागना चाहिए. लैंगिक समानता को उत्पादकता में सुधार या विकास को बढ़ाने के साधन के बजाय एक लक्ष्य के रूप में अपनाया जाना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय विकास को महिलाओं के जीवन को नियंत्रित करने वाले नकारात्मक सामाजिक मानदंडों और दृष्टिकोणों को संबोधित करने पर ध्यान देना चाहिए. क्योंकि यही मानदंड और दृष्टिकोण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी और नेतृत्व को बाधित करते हैं. आर्थिक विकास के बजाय लैंगिक समानता और जमीनी विकास पर ध्यान केंद्रित करने वाले विकास सहयोग का एक उदाहरण भारत की ‘सोलर मामा’ (‘solar mamas’) परियोजना को माना जा सकता है. ITEC कार्यक्रम के माध्यम से, भारत की सरकार दूर-दराज के गैर-विद्युतीकृत गांवों की अशिक्षित ग्रामीण महिलाओं को सौर इंजीनियर बनाकर उन्हें उनके गांवों में बिजली लाने के लिए प्रशिक्षित करने का काम कर रही है. 2016 में, 16 ITEC पाठ्यक्रमों के माध्यम से प्रशिक्षित 78 देशों की लगभग 800 ‘सौर मामा’ ने 500 से अधिक गांवों में 50,000 घरों का सफ़लतापूर्वक विद्युतीकरण किया था.[28] भारत द्वारा इसी तरह के प्रयास 14 पैसिफिक द्वीप देशों में भी शुरू किए गए हैं, जहां 2,800 घरों को ग्रामीण महिलाओं द्वारा विद्युतीकृत किया गया था.[29] अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों को इस तरह के कम लागत वाले विकसित विकास समाधान कार्यक्रमों को वैश्विक स्तर पर समर्थन देकर इनके दायरे को बढ़ाना चाहिए.

 

विकासशील देशों में स्थानीय संगठनों की भागीदारी बढ़ाई जाएं: लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण के लिए परिवर्तनकारी बदलाव प्राप्त करने के सबसे प्रभावी तरीकों में से एक स्थानीय महिला संगठनों की इस काम में भागीदारी को बढ़ाना होगा. विभिन्न देशों को अपने संसाधनों को छोटे और स्थानीय जमीनी स्तर के संगठनों में स्थानांतरित कर उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए प्रक्रियाओं को सरल बनाने पर विचार करना चाहिए. परियोजनाओं के डिजाइन में स्थानीय संगठनों की भी अधिक भूमिका होनी चाहिए.

 

शेरपा ट्रैक के तहत जेंडर पर अलग G20 ट्रैक बने: भारत की अध्यक्षता में महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास को दिए जा रहे महत्व को देखते हुए, G20 को शेरपा ट्रैक के तहत एक अलग कार्य समूह की स्थापना करनी चाहिए. इस कार्य समूह का गठन इसलिए ज़रूरी है ताकि उन तरीकों पर चर्चा की जा सके, जिनके माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय विकास लैंगिक समानता को संबोधित कर महिलाओं और लड़कियों के जीवन में परिवर्तनकारी बदलाव लाया जा सकता है.

 

G20 देशों में एंबेसडर-एट-लार्ज फॉर जेंडर-रिस्पॉन्सिव बजटिंगका कार्यालय: G20 देशों को अपने विदेश मंत्रालयों में ‘एंबेसडर-एट-लार्ज फॉर जेंडर-रिस्पॉन्सिव बजटिंग’ का एक कार्यालय स्थापित करने पर भी विचार करना चाहिए. ताकि वे बहुपक्षीय विकास सहयोग में लैंगिक मुख्यधारा के लिए धन का उचित उपयोग करने को लेकर उत्तरदाययी हो सकें. एंबेसडर-एट-लार्ज का कार्यालय विकास सहायता और सहयोग कार्यक्रमों में जेंडर बजट और उसके प्रभाव का आकलन करते हुए उसकी निगरानी कर सकता है. यह कार्यालय एक वार्षिक श्वेत पत्र के माध्यम से अपने देश में लिंग समानता पर प्रगति को ट्रैक करने अर्थात उस पर नज़र रखने का काम भी सकता है.


Endnotes

[1] World Economic Forum, Global Gender Gap Report 2022.

[2] UN Women and the Unstereotype Alliance, 2022.

[3]  United Nations, The Sustainable Development Goals Report 2022.

[4] United Nations, The Sustainable Development Goals Report 2022.

[5] Virginia Alonso-Albarran et al, Gender Budgeting in G20 Countries, IMF Working Paper No 2021/269, International Monetary Fund, 2021.

[6] Carren Grown, Tony Addison, and Finn Tarp, “Aid for Gender Equality and Development: Lessons and Challenges”, Journal of International Development, 28:3, 2016.

[7] Organisation for Economic Cooperation and Development, “Official Development Assistance for gender equality and women’s empowerment: A snapshot”, 2023.

[8]  E Lever, K Miller,and K Staszewska, Moving More Money to the Drivers of Change: How Bilateral and Multilateral Funders Can Resource Feminist Movements. AWID and Mama Cash with support from the Count Me In! Consortium, 2020.

[9] Charlotte Smith, “A Preliminary Look at the State of Gender Disaggregated Aid Data”, Reliefweb, September 12, 2018.

[10] Carren Grown, Tony Addison, and Finn Tarp, “Aid for Gender Equality and Development: Lessons and Challenges”

[11]  Carren Grown, Tony Addison, and Finn Tarp, “Aid for Gender Equality and Development: Lessons and Challenges”

[12] Rania Eghnatios and Francesca El Asmar, “Making the case for a transformed development ecosystem: a feminist reflection on the experience of RootsLab in Lebanon”, Gender and Development 28 (2020): 69-83. 

[13] Rania Eghnatios and Francesca El Asmar, “Making the case for a transformed development ecosystem: a feminist reflection on the experience of RootsLab in Lebanon”

[14] Lars Engberg-Pedersen, “Global norms, gender equality and development cooperation: the need to build on strong local support to change gender relations”, Real Instituto Elcano, May 2019.

[15] Sylvia Chant & Caroline Sweetman, “Fixing women or fixing the world? ‘Smart economics’, efficiency approaches, and gender equality in development”, Gender and Development, 20:3, November 2012, 517-529.

[16] Organisation for Economic Cooperation and Development, “What is the G20?”.

[17] Organisation for Economic Cooperation and Development, Development Co-operation Profiles, OECD Publishing, Paris, 2022.

[18] China International Development Cooperation Agency, White Paper: China International Development Cooperation in the New Era, January 10, 2021.

[19] Organisation for Economic Cooperation and Development, “Other official providers not reporting to the OECD“, in Development Co-operation Profiles, OECD Publishing, Paris, 2022.

[20] Daniel Neff and Joachim Betz, “Gender Justice as an International Objective: India in the G20”, German Institute of Global and Area Studies, 2017.

[21] G20 Australia, “Brisbane Action Plan”, November 2014.

[22] Julia Kulik, “G20 performance on gender equality”, The Global Governance Project, 2021.

[23]  Julia Kulik, “G20 performance on gender equality”

[24] Kaajal Joshi and Nibedita Hatibaruah, “How India’s G20 presidency can pave the way for inclusive gender commitments”, Sattva, March 21, 2023.

[25]  Ministry of Women and Child Development, ““If you want to get your future right, if you want to be future-ready, make sure that women are the centre of the discourse and that women are at the centre of your decisions” says WCD Minister on first day of G-20 EMPOWER Inception Meeting in Agra”, Press Information Bureau, February 11, 2023.

[26]  Julia Kulik, “G20 performance on gender equality”

[27]  Julia Kulik, “G20 performance on gender equality”

[28] United Nation, “The Barefoot Solar Mamas of the World”, India Perspective, 2016.

[29] Ministry of Finance, “Expenditure Profile 2023-24: Gender Budget”.