टास्क फोर्स 6 – SDGs में तेज़ी लाना: 2030 एजेंडा के लिए नए रास्ते तलाशना
यह संक्षिप्त विवरण विकास के लिए प्रभावी और ज़रूरी ग्लोबल गवर्नेंस के समक्ष आने वाली सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक पर चर्चा करता है, यानी संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के बीच में आने वाले वित्तपोषण के बड़े फ़ासले को समाप्त करने की चुनौती पर विस्तृत चर्चा करता है. यह लेख इस अंतर को दूर करने में न केवल जी20 की भूमिका पर विचार करता है, बल्कि समूह के रूप में काम करने के लिए 10 सूत्रीय कार्य योजना की रूपरेखा भी प्रस्तुत करता है. इसका उद्देश्य अगले साढ़े छह वर्षों में SDGs को हासलि करने के लिए ज़रूरी वित्तपोषण को बढ़ाना है, साथ ही हाल की वैश्विक घटनाओं जैसे कि लंबे समय तक चलने वाली कोविड-19 महामारी और यूक्रेन-रूस संघर्ष के मद्देनज़र वर्ष 2015 के अदीस अबाबा एक्शन एजेंडा के एक उन्नत संस्करण के रूप में कार्य करना है.
भारत को जिस कालखंड में G20 की अध्यक्षता का दायित्व मिला है, वो एक ऐसा समय है जिसमें जलवायु परिवर्तन, बढ़ती असमानता और मंडराती आर्थिक मंदी जैसे तमाम ख़तरे पूरी दुनिया को तेज़ी से अपनी चपेट में ले रहे हैं. इस सबके बावज़ूद जी20 की अध्यक्षता नई दिल्ली को महामारी के बाद की प्रगति से जुड़े नैरेटिव्स को आकार देने और ग्लोबल साउथ के नज़रिए से एक नए वैश्विक विकास के विचार-विमर्श को वर्णित करने, साथ ही उसे आगे बढ़ाने का एक विशेष अवसर प्रदान करती है.
कार्रवाई का यह दशक तेज़ी के साथ अपनी समय सीमा के क़रीब पहुंच रहा है, क्योंकि सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने की दिशा में जो प्रगति की उम्मीद थी, वह दुनिया के कई हिस्सों में भयानक तरीक़े से पिछड़ रही है. ग्लोबल साउथ के देशों के लिए सबसे अहम चिंताओं में से एक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ज़रूरी वित्तपोषण में भारी कमी है. अनुमानित रूप से विकासशील देशों को SDG वित्तपोषण में 1.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की वार्षिक कमी का सामना करना पड़ता है, जबकि पूरी दुनिया के लिए SDG के वित्तपोषण के वार्षिक अंतर को समाप्त करने के लिए 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की आवाश्यकता है. सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में सबसे बड़ी बाधाओं का सामना करने वाले देशों में विकसित देशों की संख्या सबसे कम है. तालिका-1 यह बताती है कि वर्ष 2030 तक SDG लक्ष्यों – 8.1, 1.1, और 9.2 को प्राप्त करने के लिए आवश्यक वित्तीय निवेशों को पूरा करने हेतु इन देशों में GDP वृद्धि के उच्चतम स्तर तक पहुंचने की ज़रूरत होगी और मौज़ूदा समय में जो माहौल और प्रवृत्तियां दिख रही हैं, उनके मद्देनज़र यह बेहद मुश्किल लगता है.
तालिका 1: LDCs में सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आवश्यक वृद्धि की लागत (2021-2030)
स्रोत: DI (2021), डिसूजा और जैन द्वारा उद्धृत (2022)
देखा जाए, तो दो बड़े घटनाक्रमों या कहें कि वैश्विक झटकों ने फंडिंग के इस अंतर को बढ़ा दिया है और SDGs को हासिल करने के वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामर्थ्य को और संकट में धकेल दिया है. पहली घटना है कोविड-19 महामारी और इसकी वजह से बिगड़े आर्थिक हालात. कोरोना महामारी ने देशों को अपने अंदर झांकने या कहा जाए कि अपने घरेलू मुद्दों पर ध्यान देने और इसके अर्थव्यवस्था पर होने वाले असर के बाहर निकलने को प्राथमिकता देने के लिए मज़बूर किया. दूसरा झटका है रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध. यूक्रेन संकट ने वैश्विक और क्षेत्रीय मूल्य श्रृंखलाओं को बाधित कर दिया है, मुद्रास्फ़ीति का दबाव बनाया है और कुछ छोटी अर्थव्यवस्थाओं के विदेशी मुद्रा भंडार को समाप्त कर दिया है, साथ ही इसने व्यापक स्तर पर आर्थिक असुरक्षा का माहौल भी पैदा किया है.
इसके अतिरिक्त, जलवायु परिवर्तन उन देशों की वित्तीय मांगों में इजाफ़ा कर रहा है, जो पहले से ही महसूस किए जा रहे इसके दुष्परिणामों के साथ तालमेल बैठाने की कोशिश में जुटे हुए हैं और साथ ही तेज़ी से बढ़ते तापमान को कम करने के लिए ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों की ओर तीव्रता के साथ संक्रमण कर रहे हैं. SDGs को प्राप्त करना न सिर्फ़ महंगा, बल्कि मुश्किल भी होता जा रहा है, ख़ासकर ग्लोबल साउथ के देशों के लिए, जो असंगत तरीक़े से जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों का सामना कर रहे हैं. सोच के नये तरीकों, संस्थागत तंत्र, नए वित्तपोषण उपकरण और संचालित करने की प्रक्रियाओं की तत्काल ज़रूरत, कुछ ऐसी चीज़ें हैं, जो ग्लोबल नॉर्थ से ग्लोबल साउथ की ओर फंड्स के प्रवाह की अनुमति देती हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन सभी परिवर्तनों को सुगम और सुलभ बनाने में जी20 समूह अपनी क्या भूमिका निभा सकता है?
अपनी स्थापना के बाद से, G20 समूह ने वैश्विक आर्थिक व्यवस्था की एक मज़बूत और स्थिर प्रणाली बनाने में ग्लोबल साउथ के देशों के महत्त्व को स्वीकार किया है. वर्ष 2010 में सियोल डेवलपमेंट कॉन्सेन्सस से लेकर वर्तमान में SDGs में इसके महत्त्व तक, समय के साथ-साथ सतत विकास में जी20 की भूमिका भी बदली है और इसका विस्तार भी हुआ है.
जहां तक G20 की प्रासंगिकता की बात है, तो यह विश्व की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का एक समूह है, जिनकी कुल वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी 85 प्रतिशत है, जबकि विश्व व्यापार में हिस्सेदारी 75 प्रतिशत है.
और अधिक गहराई के साथ देखा जाए, तो G20 ने वैश्विक व्यापक आर्थिक स्थिरता को बढ़ाने, कर पारदर्शिता की मांग करने, रकम भेजने की लागत को कम करने और महिला श्रम बल की भागीदारी बढ़ाने हेतु नीतियों को प्रोत्साहित करने के लिए ठोस लक्ष्य निर्धारित करके SDGs में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है. हालांकि, SDGs को पूरा करने के लिए नए सिरे से ध्यान केंद्रित करने और पर्याप्त वित्तपोषण की आवश्यकता पड़ेगी एवं वर्ष 2015 के अदीस अबाबा एक्शन एजेंडा (AAAA) को सख़्ती के साथ अपग्रेड करने ज़रूरत होगी, जिसमें उन प्रतिबद्धताओं के एक समूह को रेखांकित किया गया है, जिसके मुताबिक़ विभिन्न देश सतत विकास के वित्तपोषण के लिए कार्य सकते हैं. इसलिए, यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि SDGs को वित्तपोषित करने के लिए विशिष्ट सिफ़ारिशों को परिभाषित किया जाए, ज़ाहिर है कि SDGs का वित्तपोषण इस समय वैश्विक विकास गवर्नेंस की सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौतियों में से एक है.
तेज़ी से बदलती इस दुनिया में SDGs पूंजी के विभिन्न स्वरूपों के साथ अपने संबंधों की वजह से लचीली अर्थव्यवस्थाओं के सृजन में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं. यानी कि मानव कल्याण और समृद्धि को बढ़ावा देने के माध्यम से लेबर मार्केट की स्थितियों में सुधार करने के लिए ह्यूमन कैपिटल या मानव पूंजी; न्यायसंगत और मज़बूत सोसाइटियों के लिए सोशल कैपिटल यानी सामाजिक पूंजी; LiFE को सक्षम बनाने वाले लक्ष्यों और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण एवं उनके बेहतरीन उपयोग के माध्यम से प्राकृतिक पूंजी या नेचुरल कैपिटल; और बाज़ारों, नवाचार एवं आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिए भौतिक पूंजी या फिजिकल कैपिटल. उल्लेखनीय है कि इन पूंजियों का कारगर तरीक़े से गठन जी20 अर्थव्यवस्थाओं के कारोबारी माहौल को बढ़ाने में बेहद अहम होगा.
साउथ-साउथ सहयोग साझा अनुभव, क्षमता और संसाधनों पर दबाव एवं पारस्परिक सम्मान पर आधारित है. कम आय वाली अर्थव्यवस्थाओं को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है वे न केवल बहुआयामी है, बल्कि आपस में जुड़ी भी हुई हैं, जैसे कि खाद्य असुरक्षा से लेकर ग़रीबी, बढ़ती असमानता और भ्रष्टाचार की चुनौती. अक्सर देखा जाता है कि ये चुनौतियां ग्लोबल नॉर्थ की अर्थव्यवस्थाओं के समक्ष आने वाली चुनौतियों से अलग होती हैं और वास्तविकता में कई बार तो उन देशों के कार्यों की वजह से ही होती हैं. उदाहरण के लिए, वर्तमान वैश्विक आर्थिक प्रणाली को संचालित करने वाली कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जिनके मुख्यालय ग्लोबल नॉर्थ के देशों में हैं, उन्होंने न केवल साउथ के देशों से संसाधनों और श्रम का शोषण करना जारी रखा हुआ है, बल्कि अक्सर देखने में आता है कि इनके द्वारा स्थानीय पर्यावरण और सामाजिक प्रभावों के मुद्दे पर भी कोई तवज्जो नहीं दी जाती है. इसने अर्थव्यवस्थाओं के इन दो समूहों के बीच आर्थिक और सामाजिक असमानताओं को और ज़्यादा गहरा करने का काम किया है. ज़ाहिर है कि ऐसे में साउथ-साउथ सहयोग देशों के बीच इस प्रकार से पारस्परिक गठजोड़ को बढ़ावा देने में सहायता कर सकता है, जो शोषणकारी होने के बजाए आपसी तौर पर एक-दूसरे को लाभ प्रदान करने वाला हो.
यूनाइटेड नेशन्स ऑफिस फॉर साउथ-साउथ कोऑपरेशन (UNOSSC) का मानना है कि इस तरह की साझेदारी वैश्विक स्तर पर व्यवस्था स्थापित करने और अहम निर्णय लेने में कम विकसित देशों (LDCs) और स्माल आइलैंड डेवलपिंग स्टेट्स यानी छोटे आईलैंड विकासशील देशों (SIDs) की अधिक से अधिक भागीदारी सुनिश्चित कर सकती है. राष्ट्रों के बीच भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धाओं के बावज़ूद, दक्षिण-दक्षिण सहयोग रियायती ऋणों और मुक्त अनुदानों के रूप में डेवलपमेंट फाइनेंस के नए स्रोतों को देशों के बीच प्रवाहित करने में समर्थ बना सकता है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रायोजित SDG फंड का मकसद साउथ-साउथ सहयोग को पूरी तरह से बदलना है और यह सुनिश्चित करना है कि किस प्रकार से ज्ञान या जानकारी का सृजन किया जाता है, नीति निर्धारित की जाती है और फंड सुरक्षित किया जाता है.
सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ग्लोबल साउथ और ग्लोबल नॉर्थ को हिस्सेदारों के रूप में काम करने की ज़रूरत होगी. हालांकि, यह अहम है कि ये साझेदारियां विभिन्न सहयोग मॉडलों के माध्यम से आपसी शर्तों एवं समान आधार पर बनाई गई हैं, जो ज़िम्मेदारियों के उचित विभाजन पर आधारित हैं. हालांकि, विकास संबंधों की अन्यायपूर्ण एवं शोषणकारी प्रकृति को अब सुधारा जाना चाहिए, साथ ही विकास प्रयासों के विभिन्न उद्देश्यों को कम आय वाले देशों की प्राथमिकताओं और ज़रूरतों को पूरा करने के लिहाज़ से दोबारा से तैयार किया जाना चाहिए.
इसके अतिरिक्त एक और अहम बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक समेत बहुपक्षीय विकास बैंकों की प्राथमिकताओं को ग्लोबल नॉर्थ के अधिकांश हितधारकों द्वारा निर्धारित किया जाता है. अक्सर देखने में आता है कि ये प्राथमिकताएं वित्त पोषण प्राप्त करने वाले देशों की ज़रूरतों या पसंद के मुताबिक़ नहीं होती हैं. अफ्रीकी विकास बैंक कोयले के उपयोग पर आधारित परियोजनाओं को चरणबद्ध तरीक़े से समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है; यूरोपियन इन्वेस्टमेंट बैंक ने भी जीवाश्म ईंधन के उपयोग के बारे में यही ऐलान किया है. एशियाई विकास बैंक, अपनी तरफ से ज्ञान, क्षमता-निर्माण और सतत विकास लक्ष्यों से संबंधित बातचीत का समर्थन करता है. हालांकि यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इन प्रतिबद्धताओं को वर्ष 2022 में अलग-अलग तरह की अत्यधिक ग़रीबी में रहने वाले 1.2 अरब लोगों के लिए जीवन यापन की बेहतर परिस्थितियां उपलब्ध कराने में तब्दील किया जाना अभी बाक़ी है.
सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए घरेलू वित्तीय उपायों को लेकर दो नज़रिए हो सकते हैं. ये उपाय SDGs के लिए घरेलू संसाधन जुटाने या उन वित्तीय नीतियों को विकसित करने के लिए समर्पित हो सकते हैं, जो SDGs प्राप्त करने पर नकारात्मक/सकारात्मक असर डालने वाले उद्योगों को हतोत्साहित/प्रोत्साहित करती हैं. पहला उपाय सुधारों पर ध्यान केंद्रित करने वाला हो सकता है, यानी कि कर प्रशासन को मज़बूत करने और ख़र्च को तर्कसंगत बनाने के साथ-साथ टैक्स चोरी को कम करने वाला हो सकता है. जबकि बाद वाला उपाय, उदाहरण के लिए, ऊर्जा सुधारों को सब्सिडी देने और जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर कर लगाने से संबंधित हो सकता है. वित्तीय नीति उत्पादन के स्तर पर अपस्ट्रीम संसाधन मूल्य निर्धारण (हानिकारक संसाधनों के लिए उच्च मूल्य और पर्यावरण के अनुकूल संसाधनों के लिए कम क़ीमत) और डाउनस्ट्रीम में प्रदूषण फैलाने वाले उत्पादों पर करों के ज़रिए एक सर्कुलर इकोनॉमी को फलने-फूलने में मदद कर सकती है.
आदर्श रूप से देखा जाए तो आधिकारिक विकास सहायता (ODA) को सबसे कमज़ोर समुदायों के पास जाना चाहिए, यह मध्यम आय वाले देशों को छोड़ देता है.
भारत जैसी उच्च प्रदर्शन वाली (लेकिन विकासशील) अर्थव्यवस्थाओं को SDGs के लिए घरेलू अर्थव्यवस्था से फंड सुनिश्चित करने के लिए योजना बनाने की ज़रूरत है. ऐसा करने के लिए एक तरीक़ा SDGs का वार्षिक बजट के साथ एकीकरण हो सकता है.
ऐसा होने पर प्रत्येक विभाग को सतत विकास से जुड़े कुछ लक्ष्यों को पूरा करना होगा, इससे जी20 देशों में SDG के कार्यान्वयन की निगरानी और मूल्यांकन का मार्ग प्रशस्त होगा.
चित्र 1: SDG -एकीकृत बजट के तीन स्तंभ
G20 को क्रिएशन ऑफ शेयर्ड वैल्यूज यानी साझा मूल्यों के सृजन (CSV) के लिए कंपनियों को प्रोत्साहित करने के मकसद से प्रक्रियाओं और संस्थानों का निर्माण करने की आवश्यकता है. ‘साझा मूल्य’ का अर्थ उन रणनीतियों से है, जो समुदायों के सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देते हुए, जिन क्षेत्रों में कंपनियां अपना बिजनेस करती हैं, वहां उनकी प्रतिस्पर्धा में सुधार करते हैं. CSV मॉडल इस विश्वास पर टिका है कि ‘डूइंग वेल’ और ‘डूइंग गुड’ आपस में कोई बहुत विशेष नहीं है, और SDGs को वित्तीय रूप से टिकाऊ, आत्मनिर्भर एवं मापने योग्य बना सकते हैं. CSV का बहुप्रतीक्षित विकल्प कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी यानी कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) है, जिसमें जन कल्याण की बहुत ही कम गुंजाइश है और इसलिए यह बुहत कम वित्तपोषण एकत्र कर सकता है.
कंपनियां निम्नलिखित कार्यों के माध्यम से CSV मॉडल का सहयोग कर सकती हैं: सबसे पहले, उत्पादों और बाज़ारों को नया स्वरूप देना (नए उत्पादों को बनाना, जो कि सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करते हैं). दूसरा, मूल्य श्रृंखला उत्पादकता की फिर से ब्रांडिंग करना (संसाधन का उपयोग, ऊर्जा के स्रोत और नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों में बदलाव). तीसरा, लोकल क्लस्टर डेवलपमेंट की अनुमति देना (गेटकीपिंग तकनीक़ का उपयोग करने से दूर हटना, कौशल-आधारित विकास और क्षमता निर्माण का समर्थन करना). इस पूरी प्रक्रिया में कंपनियां अपने और व्यापक समाज के लिए मूल्य सृजित करती हैं. G20 देशों की सरकारों को व्यवसायों एवं कंपनियों के लिए अधिक से अधिक लाभ अर्जित करने से अलग हटकर ज़्यादा से ज़्यादा मूल्य सृजित करने की ओर बढ़ने के लिए वित्तीय और गैर-वित्तीय दोनों तरह के प्रोत्साहन प्रदान करने की ज़रूरत होगी.
चित्र 2: साझा मूल्य का सृजन
स्रोत: हार्वर्ड बिजनेस स्कूल
व्यापक तौर पर ‘सामाजिक उद्यमिता’ की ऐसे बिज़नेस का रूप में व्याख्या की जा जाती है, जिसका मक़सद सामाजिक मूल्य का सृजन करना होता है. सामाजिक उद्यमी अक्सर दो तरफा मूल्य मॉडल का अनुसरण करते हैं, जहां लाभार्थियों के साथ सामाजिक मूल्य भी सृजित किया जाता है. वैश्विक स्तर पर SDG से जुड़े हुए व्यवसाय कम से कम 12 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के बाज़ार अवसर उपलब्ध कराते हैं. G20 देशों की सरकारें न केवल सामाजिक उद्यमिता के लिए प्रोत्साहन प्रदान कर सकती हैं, बल्कि एक SDG क्रेडिट फ्रेमवर्क बनाने पर भी विचार कर सकती हैं, जो निवेश प्रबंधकों को सभी तरह की सामाजिक उद्यमिता इंडस्ट्री में एक संतुलित क्रेडिट पोर्टफोलियो बनाने की अनुमति देता है.
यह SDG क्रेडिट इस प्रकार के व्यापार करने योग्य उपकरण होने चाहिए, जिनका मार्केट फ्रेमवर्क में व्यापार किया जा सकता है. हालांकि यह नकारात्मक बाहरी कारकों वाली कंपनियों से SDGs पर सकारात्मक प्रभाव वाली कंपनियों के लिए निवेशक फंडिंग को मोड़ सकता है. इतना ही नहीं यह उन कंपनियों को भी अनुमति दे सकता है, जिनके पास समाज पर पर्याप्त मात्रा में विकासात्मक फुटप्रिंट्स हैं और जो कम या नकारात्मक विकासात्मक प्रभाव रखने वाली कंपनियों को उन्हें बेच सकते हैं और इस प्रकार से राजस्व अर्जित कर सकते हैं, साथ ही इस कमाई के कुछ हिस्से को फिर से विकासात्मक परियोजनाओं में निवेश किया जा सकता है. यह उन कंपनियों को सामाजिक विकास के क्षेत्र से जुड़ने का अवसर प्रदान करेगा, जिन्होंने कभी भी इस क्षेत्र में कार्य नहीं किया है. ये निश्चित है कि यह मार्केट तभी शुरू होगा, जब जी20 अर्थव्यवस्थाओं द्वारा इस मैकेनिज़्म को अपने देश की सीमा के भीरत अनिवार्य किया जाए और उसके पश्चात समुचित नियम-क़ानून के दायरे में इसे सभी G20 देशों में लागू किया जाए.
यूनाइटेड नेशन्स कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट (UNCTAD) का दावा है कि पिछले दशक में स्थिरता यानी टिकाऊपन से संबंधित निवेश में आश्चर्यजनक ढंग से भारी वृद्धि हुई है और वर्ष 2020 में SDG-लक्षित निवेश 3.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का था. इन निवेशों में सस्टेनेबल फंड्स (1.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर), ग्रीन बॉन्ड्स (1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक), सोशल बॉन्ड्स ( 212 बिलियन अमेरिकी डॉलर), और मिक्स्ड-सस्टेनेबिलिटी बॉन्ड्स ( 218 बिलियन अमेरिकी डॉलर) शामिल हैं.
टेबल 2: SDG -थीम्ड फंड्स में शुद्ध प्रवाह (2010-2020)
स्रोत: UNCTAD
सस्टेनेबल डेवलपमेंट फंड्स में एक्सचेंज-ट्रेडेड फंड्स (ETFs) और एसेट एलोकेशन वाले म्यूचुअल फंड्स शामिल हैं, जो इक्विटी, फिक्स्ड इनकम और मिक्स्ड एलोकेशन फंड्स में विभाजित हैं. सस्टेनेबिलिटी फंड के लिए सबसे बड़ा ट्रिगर या कहा जाए की इनके बढ़ोतरी की सबसे बड़ी वजह कोविड-19 महामारी रही है, क्योंकि वर्ष 2019 से 2020 तक SDG फंड दोगुना हो गया है और उसमें भी स्वास्थ्य संबंधी फंड में भारी वृद्धि हुई है. यह बहुत ज़रूरी है कि एसडीजी फंड्स को अस्थाई उपाय के रूप में नहीं देखा जाए, लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस तरह के फंड्स में एक निरंतर प्रयास के रूप में वितरित प्रवाह है, जो SDG की एकीकृत और ना बांटने वाली प्रकृति को समझता है. अनिवार्य एनवॉयरमेंटर, सोशल और गवर्नेंस (ESG) घोषणा के माध्यम से सक्षम सिक्योरिटी रेगुलेशन यानी प्रतिभूति विनियमन और उच्च पर्यावरणीय, सामाजिक एवं नैतिक (ESE) ज़ोख़िमों वाले व्यवसायों में निवेश को लेकर निवेशकों की बढ़ती अनिच्छा ने SDG- अनुकूलित निवेश का मार्ग प्रशस्त किया है. G20 अर्थव्यवस्थाओं में SDGs को हासिल करने के लिए डेरिवेटिव एक्सचेंज, इंपैक्ट इन्वेस्टमेंट और ब्लेंडेड फाइनेंस भी कुछ अन्य माध्यम हो सकते हैं.
इस सबके अतिरिक्त, वैश्विक और घरेलू अर्थव्यवस्थाओं द्वारा सस्टेनेबिलिटी बॉन्ड को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. ये बॉन्ड्स निश्चित-आय वाले वित्तीय साधनों के रूप में होने चाहिए, जिनसे होने वाले मुनाफे को ख़ासतौर पर SDGs के वित्तपोषण के लिए उपयोग किया जा सकता है. हालांकि, मुश्किल यह है कि ज़्यादातर मामलों में परिवार के लोग और प्राइवेट सेक्टर उन वित्तीय उत्पादों में लेन-देन करने में अधिक दिलचस्पी रखते हैं, जिनमें आर्थिक रिटर्न की संभावना अधिक होती है, ज़ाहिर है कि SDG से जुड़ी परियोजनाओं में आर्थिक रिटर्न कम होता है. ऐसे में निजी सेक्टर को अपने निवेश को इस तरफ मोड़ने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु टैक्स होलीडेज जैसे वित्तीय प्रोत्साहनों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. इसके अलावा, विशिष्ट सतत विकास लक्ष्यों के प्रभावों को मापने के लिए वेदर डेरिवेटिव या वॉटर इंडेक्स फ्यूचर्स या ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर या ग्रीन फ्रेट इंडेक्स जैसे अन्य इनोवेटिव डेरिवेटिव उपकरणों को देखना भी बेहद अहम है.
चित्र 3: विकसित राष्ट्रों की ओर से विकासशील देशों को वित्तीय मदद
स्रोत: यूनाइटेड नेशन्स एनवॉयरमेंट प्रोग्राम
देखा जाए तो ग्लोबल साउथ के जलवायु वित्तपोषण समाधान का एक बड़ा हिस्सा अनुकूलन में निहित है, जहां अनुकूलन वित्तपोषण में कमी है. समस्या ‘इकोनॉमिक रेट ऑफ रिटर्न’ के साथ कुदरती तौर पर जुड़ी हुई है. स्पष्ट है कि अनुकूलन परियोजनाओं के लिए समग्र तौर पर ‘सोशल रेट ऑफ रिटर्न’ बहुत अधिक है, लेकिन यह ‘इकोनॉमिक रेट ऑफ रिटर्न’ में ज़ाहिर नहीं होता है. यही वो जगह है जहां सरकार को वित्तीय उपकरणों या उपायों के माध्यम से इस अंतर को पाटना चाहिए, फिर चाहे इसके लिए सार्वजनिक व्यय को बढ़ा जाए या फिर अनुकूलन परियोजनाओं के लिए प्रोत्साहन दिया जाए. इतना ही नहीं यह कार्य नगदी का प्रत्यक्ष हस्तांतरण, सब्सिडी या टैक्स छूट के ज़रिए भी किया जा सकता है.
‘क्षमता-निर्माण’ का तात्पर्य देशों और समुदायों को संसाधनों एवं जानकारी से लैस करना है, जो कि परिवर्तनों और कमज़ोरियों का प्रबंधन करने और उनका सामना करने के लिए ज़रूरी है. यह एजेंडा 2030 को राष्ट्रीय सतत विकास ढांचे के साथ एकीकृत करने का एक अवसर है. इसे नॉर्थ-साउथ सहभागिता और जानकारी को साझा करने के ज़रिए बढ़ाया जा सकता है. कई मामलों में यह पाया गया है कि ग्लोबल साउथ के कई देशों के पास प्रोजेक्ट एप्लिकेशन के लिए फंडिंग एजेंसियों की ज़रूरतों को समझने के साधन नहीं हैं. यह जलवायु कार्रवाई से संबंधित प्रोजेक्ट्स के लिए ख़ासतौर पर एक सच्चाई है. शायद यही वो वजह है जिसके चलते जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समाप्त करने वाले प्रोजेक्ट्स को आसानी से फंड मिल जाता है, लेकिन जलवायु के अनुकूलन से जुड़ी परियोजनाएं अक्सर फंड पाने के योग्य नहीं होती हैं या पिछड़ जाती है. इसकी एक बड़ी वजह ऊर्जा संक्रमण परियोजनाओं यानी हरित ऊर्जा से जुड़े प्रोजेक्ट के वित्तपोषण के प्रति एक स्पष्ट पूर्वाग्रह भी है. यही कारण है कि आवेदक बैंक के योग्य यानी जिस पर बैंक आसानी से फाइनेंस कर दें, ऐसी अनुकूल परियोजनाओं को बनाने में असमर्थ हैं. यह आवेदक देशों के लिए क्षमता-निर्माण की ज़रूरत है ताकि जमा किए गए फंडिंग प्रस्ताव फंड देने वालों के साथ-साथ आवेदकों की अपेक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप हों. ज़ाहिर है कि जी20 को इन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए क्षमता निर्माण को बढ़ावा देने की दिशा में काम करने की आवश्यकता है.
आज के दौर में डेटा यानी आंकड़े बेहद अहम हैं और इसी को देखते हुए इसे ‘दि न्यू ऑयल’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है. आज आंकड़े ज़रूरतों और चुनौतियों की पहचान करने, प्रगति की निगरानी करने, संसाधन आवंटन की सूचना देने और साक्ष्य-आधारित नीति बनाने के लिए सहायक हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम क्षेत्रों में होने वाली प्रगति देखा जाए तो आंकड़ों के अभाव से बाधित होती है. आज भी कई देश ऐसे हैं, जो डेटा संग्रह के मसले पर संघर्ष कर रहे हैं.
दृष्टिअंतर्राष्ट्रीय डोनर की अगुवाई वाले निवेश को सुरक्षित करने और घरेलू अर्थव्यवस्था में SDGs को सटीक ढंग से लक्षित करने हेतु ग्लोबल साउथ के लिए आंकड़ों की उपलब्धता बेहद अहम है.
विश्व बैंक डेटा उपलब्धता में सुधार के लिए विकासशील देशों को तीन स्तंभ प्रदान करता है. सबसे पहले, डेटा संग्रह के पारंपरिक स्रोतों (नागरिक पंजीकरण, प्रशासनिक डेटा और घरेलू सर्वेक्षण) को आधुनिक तकनीक़ों (सैटेलाइट इमेजरी, भू-स्थानिक डेटा, सोशल मीडिया से मिले आंकड़े और मोबाइल डिवाइस डेटा) के साथ एकीकृत करना. दूसरा, डेटा संग्रह की नई-नई प्रथाओं के राजनीतिक दुरुपयोग और लीकेज से रोकने के लिए डेटा सुरक्षा से जुड़े मानदंडों को मज़बूत करने की ज़रूरत होगी. तीसरा, डेटा मूल्य श्रृंखला के सभी पहलुओं के साथ आंकड़ों को मिलाकर काम करना, यानी डेटा संग्रह से लेकर प्रबंधन तक और उन्हें व्यवस्थित करने से लेकर उनके विश्लेषण तक से जुड़े सभी कार्यों को मिलाकर काम करना.
पिछले कुछ दशकों में, विकासशील अर्थव्यवस्थाओं और कम विकसित देशों यानी LDCs ने वैश्विक आर्थिक झटकों के नुक़सान का सामना किया है. 21वीं सदी में बढ़ी हुई कनेक्टिविटी और कम्युनिकेशन ने अर्थव्यवस्थाओं को पहले से कहीं अधिक एक दूसरे के साथ जोड़ा है, साथ ही एक दूसरे पर निर्भर किया है. नतीज़तन, अगर कोई आर्थिक झटका लगता है, तो उसका असर पूरी दुनिया में महसूस किया जाता है. कम आर्थिक लचीलेपन और कम संसाधनों वाली छोटी अर्थव्यवस्थाएं वैश्विक आर्थिक झटके के बाद उबर नहीं पा रही हैं और परिणामस्वरूप वर्षों से ग़रीबी और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं से जूझ रही हैं. वर्ष 1997 में एशियाई मुद्रा संकट, वर्ष 2007-2008 के सबप्राइम मोर्टगेज संकट, यूरोपीय कर्ज संकट (2009-10), वर्ष 2020 की शुरुआत में कोविड-19 महामारी और यहां तक कि हाल-फिलहाल में चल रहे यूक्रेन-रूस युद्ध के संकट के दौरान भी यही स्थिति बनी हुई है.
सहभागिता को आसान बनाने और अर्थव्यवस्थाओं यानी देशों को वित्तपोषण के फ्रेमवर्क विकसित करने में मदद करने के लिए G20 के अंतर्गत एक डेवलपमेंट फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन (DFI) विकसित करने की ज़रूरत है. पिछले दो दशकों के जो भी अनुभव हैं, उनसे यह पता चलता है कि वैश्विक झटकों के दौरान सतत विकास लक्ष्यों को सुरक्षित रखने की आवश्यकता है. ज़ाहिर है कि ऐसे में साउथ-नॉर्थ साझेदारी को मज़बूत करने में DFI महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा, साथ ही ग्लोबल नॉर्थ की विशेषज्ञता, ग्लोबल साउथ वित्तपोषण तंत्र को डिजाइन करने में मददगार है. DFI के रूप में एक अकेला संस्थान यह भी सुनिश्चित करेगा कि भू-राजनीतिक परिस्थितियां कम विकसित देशों को सहायता उपलब्ध कराने की प्रक्रिया को प्रभावित न करें.
DFI का उद्देश्य दोहरा होगा, यानी सबसे पहले, यह इनोवेटिव उपकरणों के इस्तेमाल के ज़रिए विभिन्न स्रोतों से धन जुटाकर SDG वित्तपोषण के गैप को भरने में मदद करेगा और साथ ही यह भी सुनिश्चित करेगा कि फंड्स ग्लोबल साउथ और दुनिया के सबसे कमज़ोर क्षेत्रों की ओर प्रवाहित हों. दूसरी बात यह है कि किसी भी संकट की स्थिति आने पर यह संस्थान वैश्विक अर्थव्यवस्था की विकास शक्तियों को फिर से ईंधन देने में भी सहायता करेगा, जैसा कि दक्षिण पूर्व एशियाई संकट के बाद से पिछले 25 वर्षों में कई बार देखा जा चुका है.
यह पॉलिसी ब्रीफ़ SDGs के लिए बेहद अहम वित्तपोषण के फासले को भरने के लिए जी20 के लिए कार्रवाई योग्य विचारों को प्रस्तुत करता है. G20 का उद्देश्य वैश्विक अर्थव्यवस्था के मुद्दों को संबोधित करना और मज़बूत गवर्नेंस को सुनिश्चित करना है. यह अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय स्थिरता, जलवायु परिवर्तन के मामलों में कमी और सतत विकास में नीतिगत दख़ल के साथ उसके लक्ष्यों में साफ दिखाई देता है.
बेहतर वित्तपोषण तंत्र के ज़रिए SDGs को संबोधित करके जी20 एक अधिक न्यायसंगत और समानता वाले वैश्विक आर्थिक गवर्नेंस फ्रेमवर्क को स्थापित करने में भी मदद करेगा.
उल्लेखनीय है कि यह ब्रीफ़ न केवल वर्तमान समय की तत्काल चुनौतियों और ग्लोबल साउथ के देशों की ज़रूरतों एवं प्राथमिकताओं को सामने लाता है, बल्कि उनका उत्तर भी देता है.
दि जॉर्ज वाशिंगटन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी में फेलो टेरी बी. चैपमैन को इस पॉलिसी ब्रीफ़ के शुरुआती मसौदे पर उनकी टिप्पणियों के लिए लेखक उन्हें धन्यवाद देते हैं.
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